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पिता से पहले गुरु थे कुमार गंधर्व

रिमझिम बारिश और पूना के बेतरतीब ट्रैफिक से गुजर जब मैं वार्जे के अतुल नगर इलाके में पहुंची तो हल्की ठंडक ने थोड़ी सी सिहरन भर दी थी। जब मैं कमरे में पहुंची तो कपूर की भीनी सी खुशबू नथुनों से टकराई और लगा जैसे एक-डेढ़ घंटे की थकान धीरे-धीरे कपूर के साथ उड़ रही है। उस छोटे से कमरे में कला के विविधरूप थे। छोटी मूर्तियां, कुछ रंग और बहुत सारा संगीत। इन सबके बीच सफेद धोती, कमीज और कंधे पर गमछा डाले जो शख्स विनम्रता से आते हैं उनका नाम है, मुकुल शिवपुत्र।
पिता से पहले गुरु थे कुमार गंधर्व

 

परिपक्व गले के मालिक, बेहतरीन शास्त्रीय गायक अपने बारे में बताइए कहने पर वह बहुत सौम्यता से कहते हैं, 'आप पूछती जाइए मैं बताता जाऊंगा।’ नहीं मेरा मतलब है, आपके बचपन के बारे में बताइए। 'बचपन तो सभी का एक सा होता है। मस्त। जैसे आपका बचपन वैसे मेरा।’ आपने संगीत सीखा मैंने नहीं। तब वह कहते हैं हां यह अंतर है। अपनी संगीत यात्रा के बारे में वह बताते हैं, 'डार्विन के शब्दों में कहूं तो दिमाग की रचना 20 हजार साल में होती है। एक होता है जन्मजात स्वभाव दूसरा होता है संस्कार। जिसे सीखने के लिए प्रयत्न न करना पड़े वही संस्कार है। हम अनजाने ही बहुत सी बातें सीखते हैं। संगीत मेरे लिए ऐसा ही रहा। जब बच्चे होते हैं तो 3-4 साल संस्कार की अधिकता रहती है। फिर शिक्षा आ जाती है। जैसे संस्कार में क्या है, आपकी मातृभाषा। यह आपको कोई सिखाता नहीं है। आप सुनते हैं और सीखते चलते हैं। उसके लिए कोई अभ्यस नहीं करना पड़ता। बस संगीत मेरे लिए यही संस्कार है। संगीत मेरी मातृभाषा है। जबकि शिक्षा में एक प्रयत्न विद्यार्थी का होता है और एक प्रयत्न अध्यापक का।’ मुकुल शिवपुत्र मात्र 9 साल की उम्र में मंच पर प्रस्तुति देने आ गए थे। इंदौर के नेहरू पार्क में अंकुर समारोह में 14 नवंबर को बाल दिवस के कार्यक्रम में वह अध्यक्ष बनाए गए थे। उनसे कहा गया कि वह अपना अध्यक्षीय भाषण दें! मुकुल शिवपुत्र की आंखों में यह घटना बताते हुए चमक आ जाती है। वह कहते हैं, 'मैंने बहुत आत्मविश्वास के साथ कहा मैं भाषण नहीं दूंगा। मुझे गाना आता है। आप कहें तो सुना दूं। सभी ने कहा हां ठीक है गाना ही सुना जाए। उस वक्त तबले पर उस्ताद जहांगीर खां साहब और सारंगी पर उस्ताद उलाउद्दीन खां साहब थे। फिर मैंने भैरवी में एक भजन गाया और खूब वाह-वाही बटोरी।’ यह घटना बताते हुए वह उसी दौर में पहुंच जाते हैं। लेकिन उनके लिए यह सब कुछ इतना आसान भी नहीं था जितना सुनते हुए लगता है। वह एक ऐसे पिता की संतान थे जिनका दबाव वह भले ही महसूस न करते हों पर लोगों के दिमाग में यह हमेशा रहता था कि वह प्रख्यात शास्त्रीय निर्गुण गायक कुमार गंधर्व के सुपुत्र हैं।

 

कुमार साहब और उनके बीच एक अलग तरह का रिश्ता था। न वह पूरी तरह गुरु-शिष्य का था न पिता-पुत्र का। सत्रह साल की उम्र में उन्होंने घर छोड़ा और 23 साल की उम्र में वह देवास शहर छोड़ कर इंदौर चले आए थे। अपने पिता को याद करते हुए वह कहते हैं, 'संगीत के लिए मुझे किसी ने प्ररित नहीं किया। यही वजह रही कि जो मुझे अच्छा लगा उसी के पीछे मैं रहा। हां मेरे पिता से मतभेद थे, बहुत थे। कुछ तो व्यक्तित्व के टकराव भी थे। सभी में होते हैं। वह न हो इसके लिए थोड़ी दूरी बनानी पड़ती है। लेकिन वास्तव में आप किसी से दूर नहीं होते। यह बस एक-दूसरे की सहूलियत होती है। अपन पेड़ तो हैं नहीं कि एक जगह लग गए तो बस वहीं रहें। कहीं आ जा नहीं सकते। बस यही वजह थी जिसे कुछ लोगों ने गलत तरीके से पेश किया और कहा कि मेरी कभी पिता से पटरी नहीं बैठी। हम दोनों के बीच गहरे दोस्त का नाता था। मैं उन्हें खरी-खरी सुना देता था। बदले में वह भी मुझसे साफ-साफ बात करते थे और खुश होते थे। एक बार का वाकया है, हम दोनों साथ-साथ घूमने गए। वहां एक मंदिर में भजन चल रहा था। पिताजी ने कहा कि कितना अच्छा भजन चल रहा है। तो मैंने तपाक से कह दिया कि यह तो फलां फिल्म के फलां गाने की धुन पर है। इतनी स्पष्टता का उन्होंने बुरा नहीं माना। बल्कि खुश हुए और कहा, कोई बात नहीं धुन कोई भी हो पर भजन की आत्मा तो निर्गुणी है न।’

 

संगीत में उनके पहले गुरु पिता ही थे। वह मानते हैं कि कुमार साहब मंच पर जितना अच्छा गाते थे उससे अच्छे वह कंपोजर थे और उससे भी अच्छे अध्यापक। वह अपने छात्रों को सिखाते वक्त कभी चिड़चिड़ाते नहीं थे। जितनी बार उन्हें समझाना पड़े समझाते थे। एक वाक्य को टुकड़े कर सिखाते और उसका विश्लेषण करते थे। संगीत के संस्कार और इतने अच्छे गुरु ने मुकुल शिवपुत्र को तराशा है। फिर भी कई बार उनके बारे में खबरें आती हैं कि वह नियत समय पर कार्यक्रम नहीं पहुंचे। वह कहते हैं, 'आयोजक कलाकार की रजामंदी जाने बगैर नामों की घोषणा कर देते हैं। इसी से गफलत पैदा होती है। और मुझे लगता है किसी भी कलाकार को उसकी मंच प्रस्तुति के आधार पर नहीं आंका जाना चाहिए। हम सिर्फ सेल्समैन नहीं है न सिर्फ प्रस्तोता हैं। हम भी पढ़ते हैं, रचते हैं, महसूस करते हैं। यदि मैं मंच पर प्रस्तुति नहीं दे रहा तो क्या मैं कलाकार नहीं। जब मैं प्रस्तुति नहीं देता तो खालीपन नहीं लगता लेकिन यदि कुछ नया न रचूं तो खालीपन लगता है।

 

नई पीढ़ी के लिए उनके पास बहुत सी योजनाएं हैं। वह एक विद्यार्थी संकुल खोलना चाहते हैं। ध्वनि प्रदूषण कम हो इसके लिए प्रयास करना चाहते हैं। वह कहते हैं, 'इतना कोलाहल है कि संगीत सुनने की इच्छा खत्म हो गई है। संगीत की भूख खत्म होने से अच्छे-बुरे संगीत के बीच फर्क खत्म हो गया है। टीवी, रेडियो मोबाइल फोन चहां देखो पृष्ठभूमि में एक शोर है। यह शोर खत्म होगा तो संगीत पैदा होगा।

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