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मात्र ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं, अभिनंदन ग्रंथ

हिंदी के अनेक दुर्लभ ग्रंथ, पुरानी पुस्तकों की प्रति, पत्रिकाओं की पुरानी फाइलें अब उपलब्‍ध नहीं हैं। इस कारण देश के विश्वविद्यालयों में शोध कार्य प्रामाणिक ढंग से नहीं हो पाते और साहित्य में ऐतिहासिक तथ्यों को लेकर गड़बड़ियां बनी रहती हैं। इस कमी को देखते हुए राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने सन 1933 में प्रकाशित द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ को दोबारा प्रकाशित कर अच्छा काम किया है। लेकिन जिस तरह हड़बड़ी और असावधानी में यह ग्रंथ प्रकाशित किया गया है उसे लेकर चिंता होती है।
मात्र ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं, अभिनंदन ग्रंथ

यह ऐतिहासिक ग्रंथ उस व्यक्ति पर निकला है जिसने अपना समस्त जीवन हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में होम कर दिया। सन 1903 में द्विवेदी जी ने 200 रुपये की रेलवे की नौकरी छोड़ कर सरस्वती के संपादक के रूप में मात्र 20 रुपये में नौकरी करना मंजूर किया था। द्विवेदी जी हिंदी के विकास के लिए मात्र दसवें भाग की तनख्वाह पर काम करने को राजी हुए थे और उन्होंने अपने जीवन के तीस साल इसके लिए समर्पित कर दिए। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि वह इस काम के प्रति कितने सचेत थे। लेकिन जब न्यास ने इस ग्रंथ को दोबारा प्रकाशित किया तो इस ग्रंथ की भूमिका का एक पूरा पृष्ठ ही प्रकाशित नहीं किया। इस पृष्ठ को काशी नागरी प्रचारिणी सभा के सभापति रामनारायण मिश्र ने लिखा था। इस पृष्ठ के न छपने से यह पता नहीं चलता है कि भूमिका किसने लिखी थी। इस ग्रंथ का परिचय प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडेय ने लिखा है जिसमें उन्होंने रहस्योद्घाटन किया है कि इस ग्रंथ की प्रस्तावना नंददुलारे वाजपेयी ने लिखी थी और उनकी पुस्तक हिंदी साहित्य बीसवीं सदी में 'महावीर प्रसाद द्विवेदी’ शीर्षक लेख के रूप में शामिल है। उसमें वाजपेयी जी ने अपने लेख के प्रारंभ में ही लिखा था कि उन्होंने सन 1933 में ही द्विवेदी ग्रंथ की प्रस्तावना लिखी थी लेकिन किन्हीं कारणों से उनका नाम नहीं जा सका था। इस ग्रंथ की प्रस्तावना के अंत में बाबू श्यामसुंदर दास और कृष्ण दास का नाम है। द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ की प्रस्तावना श्यामसुंदर दास ने नहीं लिखी थी

 

मैनेजर पांडेय ने अपने परिचय में इस बात पर प्रकाश नहीं डाला है कि कृष्ण दास कौन थे। क्या वह मशहूर कलाविद राय कृष्ण दास थे जिन्होंने बकौल शिवपूजन सहाय इस ग्रंथ को निकलने के लिए डेढ़ साल तक भाग-दौड़ की थी और जो काशी नागरी प्रचारिणी सभा के महामंत्री भी थे। अगर यह राय कृष्ण दास थे तो इस ग्रंथ में उनका नाम कृष्ण दास क्यों छपा। क्या यह छपाई की भूल थी? लेकिन इस ग्रंथ का संपादन तो शिवपूजन सहाय जैसे व्यक्ति ने किया था जो इसकी छपाई के लिए महीनों इंडियन प्रेस की अतिथि शाला में पड़े रहे और खुद इसके प्रूफ भी देखे थे। अगर यह कृष्ण दास नाम के कोई दूसरे लेखक थे तो कौन थे। क्योंकि हिंदी साहित्य में इस नाम का कोई लेखक प्रसिद्ध नहीं हुआ। मैनेजर पांडेय का यह जरूर कहना है, 'कृष्ण दास नामक एक लेखक ने निराला की तुलसीदास पुस्तक की भूमिका लिखी थी लेकिन यह छद्म नाम रामविलास शर्मा का था।’ पर मैनेजर जी ने इस ग्रंथ के परिचय में इसका कोई जिक्र नहीं किया है। भारतेंदु युग में राधा कृष्ण दास नाम के लेखक जरूर थे पर वह कृष्णा दास नाम से नहीं लिखते थे लेकिन सन 1933 में रामविलास शर्मा की उम्र 19 साल थी इसलिए इसकी संभावना कम नजर आती है और उन्होंने कहीं इस बात का जिक्र भी नहीं किया है कि द्विवेदी ग्रंथ की प्रस्तावना में उनका नाम भी था। ऐसे में इस ग्रंथ को फिर से प्रकाशित करते हुए इन बातों पर रोशनी डालनी चाहिए थी ताकि पाठकों के मन में भ्रम न बना रहे और सही तथ्यों का पता चल सके। शिवपूजन सहाय ने अपनी ग्रंथावली में महावीर प्रसाद द्विवेदी और द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ को लेकर अनेक टिप्पणियां लिखी हैं लेकिन उन्होंने कृष्णदास नामक किसी लेखक का नाम नहीं लिया है। उन्होंने यह भी नहीं लिखा है कि इस ग्रंथ की प्रस्तावना नंद दुलारे वाजपेयी ने लिखी थी। इस पर मैनेजर पांडेय का कहना है कि शिवपूजन सहाय अत्यंत सज्जन व्यक्ति थे। उन्होंने यह बात लिखकर बाबू श्यामसुंदर दास से दुश्मनी मोल लेना उचित नहीं समझा होगा। नंद दुलारे वाजपेयी ने शिवपूजन जी पर अपने एक संस्मरण में द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ को हिंदी का पहला और अंतिम बेजोड़ ग्रंथ बताते हुए इसके संपादन में सहाय जी के योगदान की चर्चा की है लेकिन इसकी प्रस्तावना उन्होंने खुद लिखी इस बात का जिक्र नहीं किया है पर नामवर सिंह और अशोक वाजपेयी का कहना है कि श्यामसुंदर दास अपने जमाने के बहुत प्रभावशाली व्यक्ति थे और उनकी आधी किताबें तो उनके शिष्यों ने ही लिखी थीं इसलिए मैनेजर पांडेय ने सही लिखा है। महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली के संपादक भारत यायावर का कहना है कि नंददुलारे वाजपेयी ने 1940 में ही हिंदी साहित्य बीसवीं सदी पुस्तक लिखी थी, उस समय श्यामसुंदर दास और रायकृष्ण दास जीवित थे लेकिन उन्होंने इसका प्रतिकार नहीं किया था। इस अभिनंदन ग्रंथ के संपादक के रूप में शिवपूजन सहाय का नाम भी नहीं छापा गया और न ही उनका लेख इसमें शामिल किया गया। 'अगर इस ग्रंथ के परिचय में इसके प्रकाशन से जुड़ी इन सारी बातों और विवादों को शामिल किया जाता तो शोधार्थियों को मदद मिलती और भ्रम की गुंजाइश नहीं रहती क्योंकि रामनारायण मिश्र ने अपनी भूमिका के तीसरे पृष्ठ पर यह भी लिखा है कि ग्रंथ के संपादन का भार काशी नगरी प्रचारिणी सभा ने बाबू श्यामसुंदर दास और राय कृष्णदास को दिया था लेकिन लगता है कि नेशनल बुक ट्रस्ट ने इस ग्रंथ को गंभीरता से नहीं छापा है।

 

एनबीटी के सूत्रों का कहना है, 'महावीर प्रसाद राष्ट्रीय स्मारक समिति ने जिस रूप में इस ग्रंथ को दिया था उसे उसी रूप में छापा गया और उसमे भूमिका का एक पृष्ठ नहीं था। दरअसल, एनबीटी और मैनेजर पांडेय ने इस ग्रंथ को पुस्तकालयों में ढूंढ़ने की कोशिश नहीं की यह सही है कि यह दुर्लभ ग्रंथ है पर यह नेशनल डिजिटललाइब्रेरी और दिल्ली के मारवाड़ी पुस्तकालय तथा भारतीय इतिहास अनुसंधान लाइब्रेरी में जरूर है। लगता है, न तो एनबीटी के लोगों ने और न ही मैनेजर पांडेय ने इस ग्रंथ की मूल प्रति को देखा जिसके कारण इसकी भूमिका का एक पृष्ठ गायब होने पर उनका ध्यान नहीं गया।

 

बहरहाल यह ऐतिहासिक ग्रंथ अब सहज रूप से उपलब्‍ध  हो गया है। लेकिन अब भी ऐसे कई ग्रंथ हैं जो दुर्लभ हैं और उन्हें फिर से छापा जाना चाहिए। द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ से पहले टैगोर पर स्वर्ण स्मृति ग्रंथ और मदनमोहन मालवीय पर भी एक स्मृति ग्रंथ निकला था जो पुस्तकालयों में नहीं मिलता। इसी तरह पृथ्वी राज कपूर पर एक अभिनंदन ग्रंथ निकला था। राजेंद्र बाबू पर भी दो अभिनंदन ग्रंथ निकले। नेहरू अभिनंदन ग्रंथ और लाल बहादुर शास्त्री स्मृति ग्रंथ तथा मैथिली शरण गुप्त, केदारनाथ पोद्दार, नाथूराम शर्मा प्रेमी, बनारसी दास चतुर्वेदी, झाबरमल शर्मा, सीताराम सेक्सरिया आदि पर भी अभिनंदन ग्रंथ निकले हैं। सुमित्रानंदन पंत पर लोकायतन नमक अभिनंदन ग्रंथ निकला लेकिन बाद में हिंदी में अभिनंदन ग्रंथों की परंपरा खत्म हो गई, क्योंकि इन ग्रंथों में व्यक्तियों पर गुणगान अधिक होता था मूल्यांकन कम। द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ और राजेंद्र अभिनंदन ग्रंथ जो प्रभावती जी की महिला चरखा समिति पटना की योजना थी और जो बिहार की महिलाएं नाम से प्रकाशित हुआ इसके अपवाद  हैं। उसमे व्यक्ति को केंद्र में नहीं रखा गया था। अगर  इन सभी ग्रंथों को इंटरनेट पर अपलोड़ कर दिया जाए तो शोध  में मदद मिलेगी और सही तथ्यों का पता चल सकेगा और इतिहास लिखने में सहायता मिलेगी।

(लेखक कवि एवं साहित्यकार हैं।)

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