हिंदी फिल्मों का अब तक जो इतिहास लिखा गया है, वह मुख्यतः अभिनेता-अभिनेत्रियों और निर्देशकों पर ज्यादा केंद्रित है। इसमें गीतकारों और संगीतकारों की जगह कम है। कुछ साल पहले हिंदी के चर्चित कवि पंकज राग ने धुनों की यात्रा नाम से एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखकर इस कमी को बहुत हद तक दूर किया था। हालांकि शैलेंद्र, साहिर, जां निसार अख्तर, कैफी आजमी, मजरूह सुल्तानपुरी जैसे कई गीतकारों पर छिटपुट किताबें आई थीं। लेकिन सभी गीतकारो को शामिल कर उनके गीतों और संगीत पर प्रकाश डालते हुए कोई मुक्कमल किताब नहीं थी।
वरिष्ठ पत्रकार राजीव श्रीवास्तव ने हाल ही में सात सुरों का मेला पुस्तक में हिंदी फिल्मों के गीतों और संगीत के इतिहास को आपस में समन्वित कर उसका विश्लेषण करने की कोशिश की है। यह हिंदी फिल्मी गीतों और संगीत का इतिहास नहीं है पर इसमें एक ऐतिहासिक दृष्टि, दुर्लभ विवरण तथा आधारभूत सामग्री जरूर है, जिससे हिंदी फिल्मों के बदलते गीतों तथा संगीत की झलक मिलती है। इस रूप में इसे हिंदी फिल्मों का संक्षिप्त इतिहास कहा जा है।
प्रदीप, नरेंद्र शर्मा, भरत व्यास, गोपाल सिंह नेपाली से लेकर शकील बदायूं, साहिर लुधियानवी, शैलेन्द्र, मजरूह सुल्तानपुरी, जां निसार अख्तर, हसरत जयपुरी, कैफी आजमी, राजेन्द्र कृष्ण और नीरज जैसे गीतकारो को तो आज हर कोई जानता है लेकिन तीस और चालीस के आरंभिक दशक में कई ऐसे गीतकार थे जो आज भुला दिए गए हैं। कम लोगों को पता होगा कि हिंदी फिल्मों में पार्श्व गायन की शुरुआत 1935 में बनी फिल्म धूप छांव से हुई थी और इसके गीतकार पंडित सुदर्शन थे। उन दिनों बनी सवाक हिंदी फिल्म कर्मा में एक गाना अंग्रेजी में भी था। इस फिल्म के निर्माता हिमांशु राय थे और नायिका उनकी पत्नी देविका रानी थी, जिन्होंने अपनी आवाज में एक गाना भी गाया था। हिंदी फिल्मों के पहले स्वतंत्र गीतकार दीनानाथ मधोक थे, जबकि अन्य चर्चित गीतकारों में संपत लाल श्रीवास्तव उर्फ अनुज, प्यारे संतोषी लाल, रमेश गुप्ता, पंडित इंद्र सरस्वती कुमार ‘दीपक’, मुंशी अब्बास अली, आरजू लखनवी, तनवीर नकवी, पंडित मधुर गजानन जागीदार जैसे कई लोग थे, जिन्हें नई पीढ़ी भूल गई है। गीतकार प्रदीप ने भी फिल्मों में गाने गाए थे। प्रेमचंद ने शेरदिल औरत और नौजवान फिल्म के लिए संवाद लिखे थे। नौजवान पहली फिल्म थी, जिसमे गाने नहीं थे।
सात अध्यायों में बंटी यह पुस्तक, भारतीय सिने गीतों की विकास यात्रा और संप्रेषणीयता, फिल्मों में गीतों की परंपरा और स्वरूप, छठे दशक के कालजयी गीतों में लोक तत्व, सातवें दशक में गीतों के स्वर्णिम दौर की बात करती है। पुस्तक से पता चलता है कि हिंदी सिनेमा के आरंभिक दौर में तुलसीदास, कबीर, सूरदास, मीरा और रैदास के पदों को गीत के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। महाकवि जयशंकर प्रसाद और सुमित्रानंदन पंत के गीतों का भी इस्तेमाल फिल्मों में हुआ था और प्रख्यात लेखक अमृतलाल नागर ने भी फिल्मों के लिए गीत लिखे थे। पुस्तक के अनुसार 14 मॉर्च 1931 को मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमाघर में पहली बोलती फिल्म आलम आरा प्रदर्शित हुई थी, जिसके संवाद लेखक जोसेफ डेविड थे। उन्होंने ही फिल्म के गीत भी लिखे थे। 1932 में पहले गीतकार दीनानाथ मधोक बने जब उन्होंने फिल्म राधेश्याम में पहली बार बतौर गीतकार गाने लिखे थे। यह फिल्म लाहौर की कंपनी कमल मूवी टोन ने बनाई थी। इसके तीन साल बाद फिल्मों में पार्श्वगायन की शुरुआत धूप-छांव से हुई, जो बांग्ला में भाग्य चक्र नाम से बनी थी। पुस्तक के अनुसार प्रेमचंद द्वारा लिखित फिल्म मिल 1934 में बनी थी, जो जब्त कर ली गई थी। बाद में 1936 में यह दया की देवी उर्फ गरीब परवर नाम से बनी और इसमे सूरदास के पद गीत के रूप में गाए गए। 1934 में ही प्रेमचंद के उपन्यास सेवासदन पर फिल्म बनी जिसके गीतकार संभवतः संपत लाल श्रीवास्तव ‘अनुज’ थे। 1941 में संगम फिल्म के लिए प्रख्यात हिंदी लेखक अमृतलाल नागर ने गीत लिखे थे। इस फिल्म में जयशंकर प्रसाद के एक गीत, ‘अरे कहीं देखा है तुमने’ का इस्तेमाल किया गया था। 1942 में अमृतलाल नागर ने कुंवारा बाप फिल्म के लिए भी गीत लिखे थे। 1944 में बनी दिलीप कुमार की पहली फिल्म ज्वार भाटा के सभी गीत पंडित नरेंद्र शर्मा ने लिखे थे। उदय शंकर की फिल्म कल्पना में सुमित्रानंदन पंत के गीतों का इस्तेमाल हुआ था।
इसके बाद मजरूह सुल्तानपुरी, हसरत जयपुरी, शैलेंद्र, साहिर, जां निसार अख्तर, शकील बदायूं, कैफी आजमी, राजेंद्र कृष्ण का दौर शुरू होता है, जिन्होंने हिंदी सिनेमा के सदाबहार गीत दिए। पुस्तक में दिए गए रोचक से पता चलता है कि बंदिनी फिल्म का गीत ‘मोरा गोरा रंग लई ले’ गीत गुलजार ने नहीं बल्कि शैलेंद्र ने लिखा था। राजीव श्रीवास्तव ने पंकज मालिक के जमाने से लेकर विशाल शेखर जैसे संगीतकारों तथा सहगल से लेकर मोहित चौहान जैसे गायकों तथा दीनानाथ मधोक से लेकर वरुण ग्रोवर जैसे गीतकारों के जरिये हिंदी सिनेमा में आए बदलावों को दर्ज किया है। पुस्तक के अंत में 1931 से लेकर 2020 के दशक के दस सर्वश्रेष्ठ फिल्मों के गीतकारों-संगीतकारों और गायक-गायिकाओं की एक सूची भी है। पुस्तक काफी शोध कार्य से लिखी गई है जिसके कारण यह संग्रहणीय बन गई है। ऐसी पुस्तकों से हिंदी फिल्मों का इतिहास समृद्ध होता हैं क्योंकि 90 साल के इतिहास को समेटना आसान काम नहीं है।
सात सुरों का मेला
राजीव श्रीवास्तव
प्रकाशक | प्रकाशन विभाग
पृष्ठः 310 | मूल्यः 630 रुपये