‘कैनवास पर प्रेम’ कहानी अपने आप में ढेर सारी त्रासदियों घटनाओं दुविधाओं और दुश्चिंताओं को समेटे एक सम्मोहक माया जाल सा बुनती है जिसमें पाठक कभी खो जाते हैं तो कभी ठिठक कर उसे महसूस करते रह जाते हैं। कभी एक बच्चे के दुःख से उपजते कलाकार को धीरे धीरे बड़ा होते देखते हैं तो कभी उस कलाकार को मौत की ओर कदम बढ़ाते देख कांप जाते हैं। इस आशंका में कि यह कहानी पूरी होगी भी या नहीं। कई बार कहानी के अधूरा रह जाने की आशंका जल्दी-जल्दी पढ़ कर तसल्ली कर लेना चाहती है लेकिन यकीन मानिए उस पल की कशिश पाठकों को एक साथ कई पन्ने पलटने से रोक भी लेती है।
इसमें एक मासूम प्यार की दास्तां है, तो एक ऐसे दोस्त की कहानी जो बिना कहे सब समझ जाता है और बिना पूछे सब कर भी जाता है। दोस्ती का ऐसा विश्वास है कि पढ़ते-पढ़ते रुक कर आप अपने दोस्तों की फेहरिस्त पर एक नजर डाल कर उनमें एक ऐसा दोस्त जरूर ढूंढेंगे।
वैसे जिंदगी में कई लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हें हम अपना दोस्त नहीं कहते हैं लेकिन वे हमारे दोस्त से ज्यादा शुभचिंतक होते हैं। ऐसे लोगों की मौजूदगी ने इस कहानी को सशक्त बनाती है।
प्यार की कशिश तो शायद इसके अधूरे रह जाने में ही है लेकिन अधूरे प्यार के बीते लम्हों के साथ एक पूरी जिंदगी जी जा सकती है। कहानी उलझे पारिवारिक ताने-बाने के साथ घरेलू क्रूरता असहाय और निस्पृहता के साथ एक आक्रोश, दया और लगाव पैदा करती है। सुदूर गांव के खेतों में दौड़ते, गांव के बाहर किसी बूढ़े पेड़ के तले अचंभित कर देने वाले पलों को पीछे छोड़ कहानी अचानक कोलकाता जैसे बड़े शहर में आ जाती है और पाठक खेतों की मेढ़ पर ठिठके उसके वापस लौट आने की प्रतीक्षा ही करते रह जाते हैं।
कहानी में लेखक और उसके कथाकार की कशमकश कहानी की गति धीमी कर देता है जिसमें कभी-कभी कहानी खो जाती है और उसके सिरे पकड़ने के लिए पाठक को संघर्ष करना पड़ता है। लेखक का घरेलू व्यक्तित्व और अपने लेखन को जिंदा रखने के लिए उसकी सतत जिजीविषा भी कहीं-कहीं कहानी पर हावी हुई है।
कहीं-कहीं भाषायी त्रुटियां खटकती हैं लेकिन बीच-बीच में भावार्थ सहित सुंदर बंगाली कविताओं की खनक इसे नगण्य कर देती है। कुल मिला कर ‘कैनवास पर प्रेम’ शब्दों के साथ धीमे-धीमे आपके अंदर उतरता है और अपने गहरे रंगों के साथ आपके दिलो-दिमाग पर चित्रित हो जाता है।
कैनवास पर प्रेम (उपन्यास),
भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली
मूल्य 200 रुपये