छत्तीसगढ़ आदिवासी बहुल राज्य है। जहां वन्य संस्कृति और आदिमता का सबसे बेजोड़ प्रतीक है बस्तर का विस्तृत भू-भाग। विकास के नेहरूवादी मॉडल की भेंट चढ़े इस देश में मूल बाशिंदों का अक्षुण्ण स्वरूप ढूंढ पाना इतना सहज नहीं है। लेकिन आदिम संस्कृति अपने निर्दोषपन और सहजता के साथ कहीं दिखती है तो वह बस्तर-कांकेर और दंतेवाड़ा का वह वन्य क्षेत्र है जहां हरी-भूरी वादियां आज शोषण और प्रतिकार के बीच फंसी पड़ी है। इतना ही नहीं जिंदगी और संस्कृति की तमाम विलक्षणताओं को अपने दामन में समेटकर जीवन जीने वाले आदिवासी लोगों ने जिंदगी की दुश्वारियों को स्वीकार करना अपनी नियति मान लिया है। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक में समाज विज्ञानी, लेखक एवं पत्रकार रामशरण जोशी ने अपने अनुभवों-स्मृतियों के माध्यम से विगत 42-43 वर्षों में बस्तर, सरगुजा, जशपुर, पलामू, चंद्रपुर, गढ़चिरौली, कालाहांडी, उदयपुर के मूल बाशिंदों की जिंदगी का पुनरावलोकन किया है।
चूंकि अराजकता वहां की राज-व्यवस्था का अलिखित घोषणा-पत्र है, जिसकी सत्ता उस इलाके में दृढ़ता से कायम है। औद्योगीकरण की भेंट चढ़ चुके बस्तर के गांव-गांव में दशकों से सूदखोरी है, पग-पग पर दमन है, घर-घर में शोषण है। जिले के हर बाबू की मेज पर फाइलों से जीभ लपलपाता भ्रष्टाचार है। लिहाजा सतत के अकाट्य दुष्चक्र ने वहां एक ऐसी पतित व्यवस्था को प्रतिस्थापित किया है जिसकी वजह से वहां आजादी के बाद विरोध और विद्रोह की चिंगारियां भले ही नहीं फूटी हो मगर लाखों की आबादी वाला बस्तर शोषण का तीर्थ जरूर बन चुका है। इन्हीं सच्चाईयों के इर्द-गिर्द घूमती यह किताब गरीबी और शोषण की जमीन पर उग आए नक्सलवाद के जहरीले कैक्टस का रोचक और सहज विवरण है, जो बेबाकी से यही कहता है कि लाल गलियारे के उदय के लिए राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों की निर्मम जमात जिम्मेदार है। लिहाजा, विकास की अवधारणा और कसौटी के संबंध में नए सिरे से सोचना होगा।
जोशीजी के मुताबिक सांस्कृतिक और आर्थिक वर्चस्ववाद को रोकना होगा। कहते हैं, ठोस विचारधारा से शुरू होकर एक जन-आंदोलन के रूप में विकसित होते हुए आतंक के पर्याय बने नक्सलवाद ने बंगाल से लेकर संपूर्ण भारत के 212 जिलों में आज अपने पैर पसार लिए हैं। पुराना बस्तर और आज के बस्तर-दांतेवाड़ा और कांकेर की तस्वीर देखने से यह बात साफ तौर से जाहिर होती है कि भ्रष्ट व्यवस्था और पतित नैतिक मूल्यों के प्रतिकार ने नक्सलवाद को मजबूती दी है, जिसे लेखक रामशरण जोशी ने बार-बार कहना चाहा है। जोशी के मुताबिक वह व्यवस्था, जिसमें हम सबकी भागीदारी है, सरकार की भी और समाज की भी, उसमें तमाम विसंगतियां हैं। इन विसंगतियों और आदिवासी आस्था में हुए परिवर्तनों को लेकर लेखक के अपने आग्रह हैं। लिहाजा लेखक बार-बार सत्ता की उस उदासी और लापरवाही की ओर झांकते हैं जहां आदिवासी समाज को इंसान मानने और समझने की कोशिश किसी ने नहीं की। यहां तक कि हस्तक्षेप और अतिक्रमण जैसे मंसूबे लेकर उतरी ईसाई मिशनरियां और हिंदूवादी ताकतों ने जमकर अपने-अपने धर्म के वजूद को स्थापित करने का जो खतरनाक खेल शुरू किया तब भी धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देकर सरकारें चुप बैठी रहीं।
बस्तर-दांतेवाड़ा की गलियों और चौराहों पर गैर-आदिवासियों के महानायक सजते चले गए। भोपाल में हंगामा मचा, मिशनरियों के कारण आदिवासियों की मरती लोक-संस्कृति पर विधानसभा में रुदाली से विचलित सरकार ने नियोगी कमेटी बनाकर अपना हाथ झाड़ लिया। नतीजतन दो धर्मों के बीच आर-पार की लड़ाई दंडकारण्य में देखने को मिली। सूदखोरों के खिलाफ आदिवासियों को मिशनरियों ने उकसाया तो धर्म का भगवा पाठ संघ के शाखामृगों ने आदिवासियों को पढ़ाया। लेकिन आजीविका की जनवादी पहल किसी ने नहीं की। समाजविज्ञानी जोशी का यह दो टूक निचोड़ है।
लेखक की बातों से ऐसा लगता है कि हमारी व्यवस्था की रुचि नक्सलवाद को समाप्त करने के स्थान पर उसे बनाए रखने में ही अधिक है। कहना सही होगा कि किसी भी स्तर पर जन असंतोष और बढ़ती विषमताओं पर अंकुश लगाने के लिए कोई सार्थक प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। सच है कि व्यवस्थाएं आंकड़ों से चल रही हैं और आंकड़े कागज पर होते हैं, जाहिर है कि हकीकत भी जमीन पर नहीं कागज पर है। रामशरण जोशी की इस कृति से तो ऐसा लगता है कि लूटमार के निर्लज्ज आखेट में समाज के हर तबके ने अपना-अपना नक्सलवाद विकसित कर लिया है। लिहाजा, पूरे राष्ट्र की व्यवस्था में भ्रष्टाचार का जहर पसर चुका है । कमाल की निर्लज्जता है कि भ्रष्टाचार गौरवशाली संस्कृति का रूप ले चुका है जिसमें हमारा संपूर्ण नीतिनिर्धारक तंत्र और विधानसभा एवं संसद के माननीय महोदय तक सभी अपनी-अपनी सक्रिय भागीदारी पूरी ईमानदारी से निभा रहे हैं। बात मध्यप्रदेश के व्यापमं की हो या महाराष्ट्र में महिलाओं और बच्चों के पौष्टिक भोजन में की गई अनियमितता की यह भी दूसरे प्रकार का नक्सलवाद ही है, जो अराजकता की पहली सीढ़ी है। केवल हथियार पकड़कर जंगलों में जाना नक्सलवाद नहीं है, दिल्ली की सड़कों पर धरने आयोजित कर जन-जीवन को अस्त-व्यस्त करना भी कुछ ऐसी ही अराजकता है, जैसी लाल गलियारों में अतिवादी ताकतें खूनी खेल का ऊधम मचातीं हैं।
सड़कें दिल्ली-बिहार या बस्तर में बनती हैं तो पहली वर्षा में बह जाती हैं, भवन बनते हैं तो अधिग्रहण के पहले ही खंडहर होने की सूचना देने लगते हैं। खनिज और वनसंपदा से भरपूर बस्तर जैसे क्षेत्र सरकारी अधिकारियों और व्यापारियों की चारागाह बन चुके हैं। ये तमाम सच्चाईयां जोशी जी की इस किताब में चस्पां हैं। लेखक के कहने का आशय है कि बस्तर में नक्सलियों की समानांतर सरकार चल रही है, कश्मीर में उग्रवादियों की। जैसे प्रदेशों में बाहुबलियों की और देश में अंतर्राष्ट्रीय माफीयाओं की समानांतर अंतर्सरकारें चल रही हैं। ये अंतर्सरकारें कबीलाई व्यवस्था का रूपांतरण हैं।
किताब में आदिवासी समाज पर औद्योगीकरण के दुष्प्रभावों का जो शब्दचित्र है वह उस निर्मम सच्चाई को परोसने में समर्थ है जहां नक्सलियों से भी अधिक हिंसक और निर्मम तो हमारा तंत्र है जिसमें बैठा हर व्यक्ति जनता को जीने न देने की कसम खाए बैठा है। इस तंत्र द्वारा की गई हिंसा बहुआयामी होती हैं, प्राण भर नहीं जाते इसलिए दिखाई नहीं पड़तीं। निर्मम और अमानवीय शोषण की अनवरत श्रृंखला पर चढ़कर वैभव एवं सत्ता पाने वाले भी तो हिंसा ही करते हैं। जिन आदिवासियों के समाज में लाल चींटे के अंडे खाने की परंपरा है वहीं उन्हें मुख्यधारा में लाने के नाम पर अरबों रुपयों की राशि डकार कर रेड वाईन बहाना लोकाचार बन चुका है। क्या यह लोकाचार लाल गलियारे में चहलकदमी करते आततायियों को हिंसा भड़काने के लिए नहीं उकसाते ?
आदिवासी अस्मिता की लड़ाई या उस अस्मिता के नाम पर लड़ी जा रही लड़ाई अपनी निर्लज्जता की सारी सीमाएं तो तब तोड़ देतीं है जब लाल चींटे के अंडे खाने वाला शख्स करोड़पति-अरबपति बनने के बाद भी खुद को गरीब, दलित और आदिवासी ही घोषित करता रहता है। लेखक स्वीकार करते हैं कि 'इस पुस्तक में गलियारे के उन चंद पड़ावों की यादों को समेटा गया है, जिनसे मेरा सरोकार रहा है। पिछले चार दशकों में इस गलियारे के समय-समय पर गुजरते हुए पड़ाव डालता रहा हूं। मुकम्मल तस्वीर इन यादों से बनती हैं, यह कहना गलत होगा।'
लेखक की यह बात दीगर है कि 'मेरी यादों की यात्रा इस गलियारे को स्पर्श भर करती है। यह इतना विशाल और लंबा गलियारा है, जिसे नापने के लिए एक नहीं, कई जीवन चाहिए। अनगिनत बांहें चाहिए इसकी समग्रता को भरने के लिए। इसके अहसास के लिए असंख्य जन चाहिए।' इस किताब के हर पृष्ठ से गुजरते हुए उन दुखों की दुनिया की यात्रा है जिसकी मूल आवाज है, बस्तर-दंतेवाड़ा में एक ऐसा नक्सलवाद जिससे होने वाली हिंसा से मृत्यु एक बारगी न होकर तिल-तिल कर अंतहीन दुःखों को सहते हुए होती है। पूरे देश में व्याप्त इन अत्याचारों का समुचित निदान किए बिना नक्सलवाद के उन्मूलन की कल्पना भी बेमानी है। यह किताब आज इस वजह से बेहद खास हो चुकी है, क्योंकि आदिवासी समाज के दुखों को दिल से महसूस कर उनकी आवाज राष्ट्रीय पटल पर लाने वाले दुस्साहसी योद्धा ब्रह्मदेव शर्मा के प्रतिबद्ध व्यक्तित्त्व की चर्चा और उनके साथ लेखक के अंतरंग संबंधों के विवरण से किताब बेहद प्रामाणिक हो गई है।
पुस्तक - यादों का लाल गलियारा दंतेवाड़ा
लेखक - श्री रामशरण जोशी
प्रकाशक - राजकमल, नई दिल्ली
पृष्ठ संख्या - 202
मूल्य – 500 रुपये