“बाग-बगीचों के बीच बना झक्क सफेद महल, राज पैलेस वाला शहर”
एक बड़ा रजवाड़ा
छोटे-छोटे कस्बों के बड़े-बड़े किस्से होते हैं और ये किस्से ही उनका इतिहास होते हैं, जैसे ‘हथुआ’ के हैं। बिहार के जिला गोपालगंज का एक कस्बा है हथुआ। अंग्रेजी हुकूमत तक हथुआ स्टेट हुआ करता था। इतिहास है कि सारण प्रमंडल में कल्याणपुर के जमींदार राजा जयमल ने चौसा की लड़ाई में हुमायूं की मदद की थी। बख्शीश में हुमायूं ने राजा जयमल के पोते जुबराज शाही को हुस्सेपुर, कल्याणपुर, बलचैरा सहित हथुआ परगना की जागीरें दे दीं। किसी बात पर अफगान शासक काबुल मोहम्मद की जुबराज शाही से ठन गई और उसने उनकी हत्या कर दी, फिर भी काबुल मोहम्मद हथुआ को हथिया न सका। महाराज गोपेश्वर शाही के राज में हथुआ को खूब ख्याति मिली। किस्सा है कि अवध नवाब के दरबार की दो ईरानी नर्तकियों, सुंदरी बाई और दुनिया बाई ने हथुआ राज में शरण ली और बिदेसिया नाटक करने लगीं। बनारस से लेकर पटना तक हथुआ राज के डंके बजे।
राज पैलेस का आकर्षण
हथुआ का सबसे बड़ा आकर्षण है बाग-बगीचों के बीच बना झक्क सफेद महल, राज पैलेस। पुराना किला दक्षिणी छोर पर था। किस्सा है कि किले की खुदाई में महारानी को सोने और अशरफी से भरे चांदी के 52 हंडे मिले थे, जिससे हथुआ राज मालामाल हो गया था। हालांकि अब उस वीरान खंडहर का सौंदर्यीकरण कर दिया गया है। हथुआ का दूसरा आकर्षण है बड़े दरवाजे और भव्य इमारत वाली कचहरी। इसमें लगी लोहे की घुमावदार विलायती सीढ़ी तो गजब की है। हथुआ के पूर्वी छोर का आकर्षण है 1881 में स्थापित हमारा ईडेन हाइस्कूल। देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद जी के पिताजी महादेव सहाय हथुआ राज में मुंशी थे, तब राजेंद्र बाबू कुछ दिन ईडेन स्कूल में पढ़े, बाद में छपरा चले गए। हथुआवासियों की लंबी चली मांग पर स्थापना के लगभग सवा सौ साल बाद स्कूल का नाम ‘राजेंद्र प्रसाद उच्च विद्यालय’ कर दिया गया। स्कूल से कुछ दूर आगे चलते ही गोपेश्वर महाविद्यालय है। आज इलाके में हथुआ का महत्व यह है कि रेलवे स्टेशन मीरगंज में है, पर नाम है हथुआ रेलवे स्टेशन। यही नहीं, वाजपेयी सरकार में रक्षा मंत्री रहे स्वर्गीय जॉर्ज फर्नांडिस की अनुशंसा पर सैनिक स्कूल हासिल हुआ गोपालगंज को, स्थापित हुआ हथुआ में। हथुआ कभी जिला मुख्यालय बना तो बेशक बिहार के सबसे खूबसूरत जिलों में से एक होगा।
किस्सागोई का डेरा
हथुआ कस्बा नहीं, किस्सागोई का डेरा है। यहां के गोपाल मंदिर का सौ एकड़ में तो अहाता है। अहाते में बड़ा सुंदर तालाब है। मंदिर के 48 गुबंदों पर सोने की कलश होती थीं, जो चोरी हो गईं। मंदिर का प्रवेश द्वार और उसके दोनों तरफ स्थापित सफेद संगमरमर की शेरों की दो मूर्तियां देखने लायक हैं। वर्षों पहले एक फिरंगी घुमक्कड़ इन मूर्तियों पर मोहित हो गया और खरीदने की पेशकश कर डाली। हथुआ वालों ने फिरंगी का भारी विरोध किया। दोनों मूर्तियां सलामत, हथुआ की शोभा बनी हुई हैं। ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया की आदमकद मूर्ति भी हथुआ में स्थापित थी, जिसे हथुआवासियों के लाख विरोध के बावजूद हथुआ महारानी अपने पटना निवास पर लेकर चली गईं।
मरीजों के भगवान ‘छोटा बाबू’
हथुआ की चर्चा सीता हलवाई के बिना स्वादहीन है। सीता हलवाई छोटे से ठेले पर गुपचुप यानी गोलगप्पे बेचा करते थे। खाने वालों की जुबान पर उनके गुचपुच का स्वाद आज भी ठहरा हुआ है। सीता हलवाई नहीं रहे, पर स्वाद की वह धरोहर ‘संध्या स्वीट्स’ के नाम से आज हथुआ का नया लैंडमार्क बन गई है। अब यहां का समोसा-चाट शोहरत बटोर रहा है। स्वाद और सेहत का एक और मिलाजुला मजेदार वाकया है। हथुआ में एक डॉक्टर साहब होते थे ‘छोटा बाबू’ जो इलाके के मरीजों के भगवान थे। उनके पास हर मर्ज की एक ही दवा, ‘मिक्सचर सीरप’ थी। रोग के हिसाब से मिक्सचर वे खुद बनाते थे, जो संजीवनी का काम करता था। ‘छोटा बाबू’ की लोकप्रियता इसी बात से आंकी जा सकती है कि उनकी शवयात्रा में जन सैलाब उमड़ पड़ा था। उन्हीं छोटा बाबू के कंपाउंडर थे राजेंदर। छोटा बाबू के गुजरने के बाद राजेंदर ने जलेबी की दुकान खोल ली अरबिया मोड़ पर। उनकी जलेबी को ऐसी प्रसिद्धि मिली कि जिस मोड़ पर दुकान है, वह अब जलेबिया मोड़ के नाम से मशहूर है।
गली के मुहाने पर ठहरा बचपन
हथुआ जीवन-गली के मुहाने पर ठहरा हुआ हमारा वह बचपन है, जहां से गुजरते हुए मन हर बार जलेबी की मिठास से महक उठता है और श्रीकृष्ण मिष्ठान भंडार में कुछ पल सुकून से ठहर जाना चाहता है। साल भर की बेसब्र प्रतीक्षा के बाद आता था हथुआ का दशहरा का मेला। नए कपड़े पहन, हम बच्चों की पूरी फौज निकल पड़ती थी मेला देखने। ज्यादा से ज्यादा पांच रुपये मिल गए तो समझिए पूरा मेला खरीदने का रौब आ जाता था चेहरे पर। दो चीजें हर हाल में खरीदनी होती थीं- पानी वाला फुलौना और श्रीकिशुन की जलेबी। पत्ते के दोने में रसीली गरम जलेबी मुंहमांगी मुराद से कम नहीं लगती थी। जलेबी से तृप्त मन निकल पड़ता था मेला देखने। कचहरी की तरफ, तरह-तरह के करतब दिखाने वाले होते थे। गोपालमंदिर रोड पर मनिहार, चुड़ीहार और हर-हथियार बेचने वाले होते थे। पश्चिमी छोर पर विशाल पशु मेला लगता था। दशहरा से पहले का एक और आकर्षण होता था पश्चिम मठिया का श्रावणी कृष्ण-झूला। यहां प्रसाद में बड़ी स्वादिष्ट पंजीरी मिलती थी।
(राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्मकार)