शास्त्रीय हिन्दुस्तानी संगीत की अनूठी गायिका और गुरु के रूप में विदुषी एक बड़ी शख्सियत थीं। किराना घराने की गायन परम्परा को समृद्ध करने और नया विस्तार देने में उनका बहुमूल्य योगदान था। उनकी अनेक शिष्यों में एक प्रमुख नाम नलिनी जोशी का है। विशुद्ध रागदारी में खनकती आवाज उनके गाने को गहनता देती है। बंदिश को गाने और उसमें रंग भरने में बहलावां, गमक, खटका, मींड, तानें, और तीनों सप्तकों में स्वर संचार तथा लयकारी में सघन तैयारी दिखती है। नलिनी जोशी उन चुनिंदा कलाकारो में हैं, जो भक्तिकाल के भजनों को बहुत महत्व देती हैं। अपनी मधुर आवाज और मध्ययुग की भक्ति संगीत परंपरा को गायन के जरिये लोकप्रियता प्रदान करने में उनकी अहम भूमिका रही है।
हाल में रवींद्र भवन के खुले मंच मेघदूत में आयोजित साहित्योत्सव के अवसर में नलिनी जोशी के गायन की प्रस्तुति हुई। साहित्योत्सव के लिए उन्होंने संस्कृत, हिन्दी, मैथली, मराठी, कन्नड और कुछ अन्य भाषाओं में गायन प्रस्तुत किया। उनमें मुत्थुस्वामी दीक्षांतर, पुरंदर दास, अमीर खुसरो, विद्यापति आदि कवियों की अमर रचनाओं को गायन के जरिए प्रस्तुत किया।
समापन होली गीत से किया। मंगला चरण के रूप में उन्होंने गायन का आरंभ मुत्थुस्वामी द्वारा संस्कृत भाषा में रचित गुरु वंदना से किया। कन्नड़ भाषा में कवि पुरन्दर दास की कृति में देवी लक्ष्मी का आवाहन स्वरों के माध्यम से सरसता से प्रगट हुआ। संत कबीर का निर्गुण भजन ‘मन लागो यार फकीरी में’ की प्रस्तुति बहुत प्रभावशाली और रोमांचक थी। मराठी भाषा में जी.डी. मालगुडकर की भक्तिपूर्ण रचना के गायन में विटठल भजन गायन परंपरा का सूत्र जुडा था।
अमीर खुसरो की लोकप्रिय संगीतमय रचना ‘ए री सखि मेरो पिया घर आए’ में एक अलग ही रूहानियत और रोमांच एक बडी सीमा तक नलिनी के स्वरों से टपक रहा था। इस सरस प्रस्तुति ने श्रोताओं को मोह लिया। कार्यक्रम के आखिर में मैथली भाषा में कवि विद्यापति द्वारा रचित होली गीत ‘गोरा तोर अंगना होली खेलो जी’ के गायन में में उल्लास और उमंग का जो भाव उमड़ा, वह बहुत ही रंजक और उत्प्रेरक था। गायन को गरिमा प्रदान करने में तबला पर अख्तर हसन और हरमोनियम वादन में जाकिर धौलपुरी ने लाजवाब संगत की।