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भीष्म साहनी के जन्म शताब्दी वर्ष में 'चीफ की दावत'

लेखक परिचय: 8 अगस्त 1915 में रावलपिंडी में जन्म। आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रमुख स्तंभों में एक। सन 1937 में लाहौर गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में एमए करने के बाद उन्होंने सन 1958 में पंजाब विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि हासिल की। विभाजन के बाद भारत आकर समाचार पत्रों में लिखा और भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) से भी जुड़े। अंबाला और अमृतसर में अध्यापक रहने के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय में भी साहित्य के प्रोफेसर रहे। भाग्य-रेखा, पहला पाठ, भटकती राख, पटरियां, वाङचू, शोभायात्रा, निशाचर, पाली नाम से कहानी संग्रह के साथ झरोखे, कड़ियां, तमस, बसंती, मय्यादास की माड़ी, कुंतो, नीलू नीलिमा नीलोफर उपन्यास बहुत चर्चित रहे। इस साल उनका जन्मशताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है। सन 1975 में तमस के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार और इसी वर्ष शिरोमणि लेखक अवार्ड (पंजाब सरकार) मिला। सन 1980 में एफ्रो एशियन राइटर्स असोसिएशन का लोटस अवार्ड, 1983 में सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड और 1998 में पद्मभूषण अलंकरण से विभूषित किया गया।
भीष्म साहनी के जन्म शताब्दी वर्ष में 'चीफ की दावत'

 

'चीफ की दावत'

आज मिस्टर शामनाथ के घर चीफ की दावत थी। 

शामनाथ और उनकी धर्मपत्नी को पसीना पोंछने की फुर्सत न थी। पत्नी ड्रेसिंग गाउन पहने, उलझे हुए बालों का जूड़ा बनाए मुंह पर फैली हुई सुर्खी और पाउड़र को मले और मिस्टर शामनाथ सिगरेट पर सिगरेट फूंकते हुए चीजों की फेहरिस्त हाथ में थामे, एक कमरे से दूसरे कमरे में आ-जा रहे थे। 

आखिर पांच बजते-बजते तैयारी मुकम्मल होने लगी। कुर्सियां, मेज, तिपाइयां, नैपकिन, फूल, सब बरामदे में पहुंच गए। ड्रिंक का इंतजाम बैठक में कर दिया गया। अब घर का फालतू सामान अलमारियों के पीछे और पलंगों के नीचे छिपाया जाने लगा। तभी शामनाथ के सामने सहसा एक अड़चन खड़ी हो गई, मां का क्या होगा?

इस बात की ओर न उनका और न उनकी कुशल गृहिणी का ध्यान गया था। मिस्टर शामनाथ, श्रीमती की ओर घूम कर अंग्रेजी में बोले - 'मां का क्या होगा?' 

श्रीमती काम करते-करते ठहर गईं और थोडी देर तक सोचने के बाद बोलीं, 'इन्हें पिछवाड़े इनकी सहेली के घर भेज दो, रात-भर बेशक वहीं रहें। कल आ जाएं।' 

शामनाथ सिगरेट मुंह में रखे, सिकुडी आंखों से श्रीमती के चेहरे की ओर देखते हुए पल-भर सोचते रहे, फिर सिर हिला कर बोले, 'नहीं, मैं नहीं चाहता कि उस बुढ़िया का आना-जाना यहां फिर से शुरू हो। पहले ही बड़ी मुश्किल से बंद किया था। मां से कहें कि जल्दी ही खाना खा के शाम को ही अपनी कोठरी में चली जाएं। मेहमान कहीं आठ बजे आएंगे इससे पहले ही अपने काम से निबट लें।' 

सुझाव ठीक था। दोनों को पसंद आया। मगर फिर सहसा श्रीमती बोल उठीं, 'जो वह सो गईं और नींद में खर्राटे लेने लगीं, तो? साथ ही तो बरामदा है, जहां लोग खाना खाएंगे।' 

'तो इन्हें कह देंगे कि अंदर से दरवाजा बंद कर लें। मैं बाहर से ताला लगा दूंगा। या मां को कह देता हूं कि अंदर जा कर सोएं नहीं, बैठी रहें और क्या?' 

'और जो सो गई तो? डिनर का क्या मालूम कब तक चले। ग्यारह-ग्यारह बजे तक तो तुम ड्रिंक ही करते रहते हो।' 

शामनाथ कुछ खीज उठे, हाथ झटकते हुए बोले, 'अच्छी-भली यह भाई के पास जा रही थीं। तुमने यूं ही खुद अच्छा बनने के लिए बीच में टांग अड़ा दी!' 

'वाह! तुम मां और बेटे की बातों में मैं क्यों बुरी बनूं? तुम जानो और वह जानें।' 

मिस्टर शामनाथ चुप रहे। यह मौका बहस का न था, समस्या का हल ढूंढ़ने का था। उन्होंने घूम कर मां की कोठरी की ओर देखा। कोठरी का दरवाजा बरामदे में खुलता था। बरामदे की ओर देखते हुए झट से बोले, मैंने सोच लिया है और उन्हीं कदमों मां की कोठरी के बाहर जा खड़े हुए। मां दीवार के साथ एक चौकी पर बैठी, दुपट्टे में मुंह-सिर लपेटे, माला जप रही थीं। सुबह से तैयारी होती देखते हुए मां का भी दिल धड़क रहा था। बेटे के दफ्तर का बड़ा साहब घर पर आ रहा है, सारा काम सुभीते से चल जाय। 

मां, आज तुम खाना जल्दी खा लेना। मेहमान लोग साढ़े सात बजे आ जाएंगे। 

मां ने धीरे से मुंह पर से दुपट्टा हटाया और बेटे को देखते हुए कहा, ‘आज मुझे खाना नहीं खाना है बेटा। तुम जो जानते हो, मांस-मछली बने तो मैं कुछ नहीं खाती।’ 

जैसे भी हो अपने काम से जल्दी निबट लेना। 

‘अच्छा बेटा।’ 

और मां, हम लोग पहले बैठक में बैठेंगे। उतनी देर तुम यहां बरामदे में बैठना। फिर जब हम यहां आ जाएं तो तुम गुसलखाने के रास्ते बैठक में चली जाना। 

मां अवाक बेटे का चेहरा देखने लगीं। फिर धीरे से बोलीं, ‘अच्छा बेटा।’ 

और मां आज जल्दी सो नहीं जाना। तुम्हारे खर्राटों की आवाज दूर तक जाती है। 

मां लज्जित-सी आवाज में बोली, ‘क्या करूं बेटा, मेरे बस की बात नहीं है। जब से बीमारी से उठी हूं, नाक से सांस नहीं ले सकती।’ 

मिस्टर शामनाथ ने इंतजाम तो कर दिया, फिर भी उनकी उधेड़-बुन खत्म नहीं हुई। जो चीफ अचानक उधर आ निकला तो? आठ-दस मेहमान होंगे, देसी अफसर, उनकी स्त्रियां होंगी। कोई भी गुसलखाने की तरफ जा सकता है। क्षोभ और क्रोध में वह झुंझलाने लगे। एक कुर्सी को उठा कर बरामदे में कोठरी के बाहर रखते हुए बोले, ‘आओ मां इस पर जरा बैठो तो।’ 

मां माला संभालतीं, पल्ला ठीक करती उठीं और धीरे से कुर्सी पर आ कर बैठ गईं। 

यूं नहीं मां, टांगें ऊपर चढ़ा कर नहीं बैठते। यह खाट नहीं है। 

मां ने टांगें नीचे उतार लीं। 

और खुदा के वास्ते नंगे पांव नहीं घूमना। न ही वह खड़ाऊ पहन कर सामने आना। किसी दिन तुम्हारी यह खड़ाऊ उठा कर मैं बाहर फेंक दूंगा।

मां चुप रहीं।  

कपड़े कौन से पहनोगी मां? 

जो है, वही पहनूंगी बेटा। जो कहो, पहन लूं। 

मिस्टर शामनाथ सिगरेट मुंह में रखे, फिर अधखुली आंखों से मां की ओर देखने लगे और मां के कपड़ों की सोचने लगे। शामनाथ हर बात में तरतीब चाहते थे। घर का सब संचालन उनके अपने हाथ में था। खूंटियां  कमरों में कहां लगाई जाएं, बिस्तर कहां पर बिछे, किस रंग के पर्दे लगाएं जाएं, श्रीमती कौन-सी साड़ी पहनें, मेज किस साइज की हो... शामनाथ को चिंता थी कि अगर चीफ का साक्षातकार मां से हो गया तो कहीं लज्जित न होना पडे। मां को सिर से पांव तक देखते हुए बोले, ‘तुम सफेद कमीज और सफेद सलवार पहन लो मां। पहन के आओ तो, जरा देखूं।’ 

मां धीरे से उठीं और अपनी कोठरी में कपड़े पहनने चली गईं। 

‘यह मां का झमेला ही रहेगा।’ उन्होंने फिर अंग्रेजी में अपनी स्त्री से कहा। ‘कोई ढंग की बात हो, तो भी कोई कहे। अगर कहीं कोई उल्टी-सीधी बात हो गई, चीफ को बुरा लगा तो सारा मजा जाता रहेगा।’

मां सफेद कमीज और सफेद सलवार पहन कर बाहर निकलीं। छोटा-सा कद, सफेद कपड़ों में लिपटा, छोटा-सा सूखा हुआ शरीर, धुंधली आंखें, केवल सिर के आधे झड़े हुए बाल पल्ले की ओट में छिप पाए थे। पहले से कुछ ही कम कुरूप नजर आ रही थीं।

‘चलो, ठीक है। कोई चूड़ियां-वूड़ियां हों, तो वह भी पहन लो। कोई हर्ज नहीं।’ 

‘चूड़ियां कहां से लाऊं बेटा? तुम तो जानते हो, सब जेवर तुम्हारी पढ़ाई में बिक गए।’ 

यह वाक्य शामनाथ को तीर की तरह लगा। तिनक कर बोले, ‘यह कौन-सा राग छेड़ दिया मां। सीधा कह दो नहीं हैं जेवर बस। इससे पढ़ाई-वढ़ाई का क्या तअल्लुक है। जो जेवर बिका तो कुछ बन कर ही आया हूं। निरा लंडूरा तो नहीं लौट आया। जितना दिया था, उससे दोगुना ले लेना।’ 

‘मेरी जीभ जल जाए बेटा। तुमसे जेवर लूंगी? मेरे मुंह से यूं ही निकल गया। जो होते तो लाख बार पहनती।’ 

साढ़े पांच बज चुके थे। अभी मिस्टर शामनाथ को खुद भी नहा-धो कर तैयार होना था। श्रीमती कब की अपने कमरे में जा चुकी थीं। शामनाथ जाते हुए एक बार फिर मां को हिदायत करते गए, ‘मां रोज की तरह गुमसुम बन के नहीं बैठी रहना। अगर साहब इधर आ निकलें और कोई बात पूछें तो ठीक तरह से बात का जवाब देना।’ 

‘मैं न पढ़ी न लिखी बेटा, मैं क्या बात करूंगी। तुम कह देना मां अनपढ़ है, कुछ जानती-समझती नहीं। वह नहीं पूछेगा।’ 

सात बजते-बजते मां का दिल धक-धक करने लगा। अगर चीफ सामने आ गया और उसने कुछ पूछा तो वह क्या जवाब देंगी। अंग्रेज को तो दूर से ही देख कर घबरा उठती थीं यह तो अमरीकी है। न मालूम क्या पूछे। मैं क्या कहूंगी। मां का जी चाहा चुपचाप पिछवाड़े विधवा सहेली के घर चली जाएं। मगर बेटे के हुक्म को कैसे टाल सकती थीं। चुपचाप कुर्सी पर से टांगें लटकाए वहीं बैठी रही। 

एक कामयाब पार्टी वह है, जिसमें ड्रिंक कामयाबी से चल जाएं। शामनाथ की पार्टी सफलता के शिखर चूमने लगी। वार्तालाप उसी रौ में बह रहा था, जिस रौ में गिलास भरे जा रहे थे। कहीं कोई रूकावट न थी, कोई अड़चन न थी। साहब को व्हिस्की पसंद आई थी। मेमसाहब को पर्दे पसंद आए थे, सोफा-कवर का डिजाइन पसंद आया था, कमरे की सजावट पसंद आई थी। इससे बढ़ कर क्या चाहिए। साहब तो ड्रिंक के दूसरे दौर में ही चुटकुले और कहानियां कहने लग गए थे। दफ्तर में जितना रोब रखते थे, यहां पर उतने ही दोस्त-परवर हो रहे थे और उनकी स्त्री, काला गाउन पहने, गले में सफेद मोतियों का हार, सेंट और पाउड़र की महक से ओत-प्रोत, कमरे में बैठी सभी देसी स्त्रियों की आराधना का केंद्र बनी हुई थीं। बात-बात पर हंसतीं, बात-बात पर सिर हिलातीं और शामनाथ की स्त्री से तो ऐसे बातें कर रही थीं, जैसे उनकी पुरानी सहेली हों। 

और इसी रो में पीते-पिलाते साढ़े दस बज गए। वक्त गुजरते पता ही न चला। 

आखिर सब लोग अपने-अपने गिलासों में से आखिरी घूंट पी कर खाना खाने के लिए उठे और बैठक से बाहर निकले। आगे-आगे शामनाथ रास्ता दिखाते हुए पीछे चीफ और दूसरे मेहमान। 

बरामदे में पहुंचते ही शामनाथ सहसा ठिठक गए। जो दृश्य उन्होंने देखा, उससे उनकी टांगें लड़खड़ा गई। क्षण-भर में सारा नशा हिरन होने लगा। बरामदे में ऐन कोठरी के बाहर मां अपनी कुर्सी पर ज्यों-की-त्यों बैठी थीं। मगर दोनों पांव कुर्सी की सीट पर रखे हुए और सिर दाएं से बाएं और बाएं से दाएं झूल रहा था। मुंह से लगातार गहरे खर्राटों की आवाजें आ रही थीं। जब सिर कुछ देर के लिए टेढ़ा हो कर एक तरफ को थम जाता तो खर्राटें और भी गहरे हो उठते। फिर जब झटके-से नींद टूटती तो सिर फिर दाएं से बाएं झूलने लगता। पल्ला सिर पर से खिसक आया था और मां के झड़े हुए बाल, आधे गंजे सिर पर अस्त-व्यस्त बिखर रहे थे। 

देखते ही शामनाथ क्रुद्ध हो उठे। जी चाहा कि मां को धक्का दे कर उठा दें और उन्हें कोठरी में धकेल दें। मगर ऐसा करना संभव न था। चीफ और बाकी मेहमान पास खड़े थे। 

मां को देखते ही देसी अफसरों की कुछ स्त्रियां हंस दीं कि इतने में चीफ ने धीरे से कहा, ‘पुअर डियर’ 

मां हड़बड़ा के उठ बैठीं। सामने खड़े इतने लोगों को देख कर ऐसी घबराई कि कुछ कहते न बना। झट से पल्ला सिर पर रखती हुई खड़ी हो गईं और जमीन देखने लगीं। उनके पांव लड़खड़ाने लगे और हाथों की ऊंगलियां थर-थर कांपने लगीं। 

मां, तुम सो जाओ। तुम क्यों इतनी देर तक जाग रही थीं। खिसियाई हुई नजरों से शामनाथ चीफ के मुंह की ओर देखने लगे।

चीफ के चेहरे पर मुस्कराहट थी। वह वहीं खड़े-खड़े बोले, ‘नमस्ते।’ 

मां ने झिझकते हुए अपने में सिमटते हुए दोनों हाथ जोड़े मगर एक हाथ दुपट्टे के अंदर माला को पकड़े हुए था दूसरा बाहर। ठीक तरह से नमस्ते भी न कर पाईं। शामनाथ इस पर भी खिन्न हो उठे। 

इतने में चीफ ने अपना दायां हाथ, हाथ मिलाने के लिए मां के आगे किया। मां और भी घबरा उठीं। 

‘मां, हाथ मिलाओ।’ 

पर हाथ कैसे मिलातीं? दाएं हाथ में तो माला थी। घबराहट में मां ने बायां हाथ ही साहब के दाएं हाथ में रख दिया। शामनाथ दिल ही दिल में जल उठे। देसी अफसरों की स्त्रियां खिलखिला कर हंस पडीं। 

‘यूं नहीं मां। तुम तो जानती हो दायां हाथ मिलाया जाता है। दायां हाथ मिलाओ।’

मगर तब तक चीफ मां का बायां हाथ ही बार-बार हिला कर कह रहे थे, ‘हाउ डू यू डू?’ 

‘कहो मां, मैं ठीक हूं, खैरियत से हूं।’ 

मां कुछ बड़बड़ाईं। 

मांकहती हैं, ‘मैं ठीक हूं। कहो मां, हाउ डू यू डू।’ 

मां धीरे से सकुचाते हुए बोलीं, ‘हौ डू डू...’ 

एक बार फिर कहकहा उठा। 

वातावरण हल्का होने लगा। साहब ने स्थिति संभाल ली थी। लोग हंसने-चहकने लगे थे। शामनाथ के मन का क्षोभ भी कुछ-कुछ कम होने लगा था।

साहब अपने हाथ में मां का हाथ अब भी पकड़े हुए थे। और मां सिकुड़ी जा रही थीं। साहब के मुंह से शराब की बू आ रही थी। 

शामनाथ अंग्रेजी में बोले, ‘मेरी मां गांव की रहने वाली हैं। उमर भर गांव में रही हैं। इसलिए आपसे लजाती है।’ 

साहब इस पर खुश नजर आए। बोले, ‘सच? मुझे गांव के लोग बहुत पसंद हैं, तब तो तुम्हारी मां गांव के गीत और नाच भी जानती होंगी?’ चीफ खुशी से सिर हिलाते हुए मां को टकटकी बांधे देखने लगे। 

‘मां, साहब कहते हैं, कोई गाना सुनाओ। कोई पुराना गीत तुम्हें तो कितने ही याद होंगे।’ 

मां धीरे से बोलीं, ‘मैं क्या गाऊंगी बेटा। मैंने कब गाया है?’ 

‘वाह, मां। मेहमान का कहा भी कोई टालता है? साहब ने इतना रीझ से कहा है, नहीं गाओगी तो साहब बुरा मानेंगे।’ 

‘मैं क्या गाऊं बेटा। मुझे क्या आता है?’ 

‘वाह। कोई बढ़िया टप्पे सुना दो। दो पत्तर अनारां दे...’ 

देसी अफसर और उनकी स्त्रियों ने इस सुझाव पर तालियां पीटीं। मां कभी दीन दृष्टि से बेटे के चेहरे को देखतीं, कभी पास खड़ी बहू के चेहरे को। 

इतने में बेटे ने गंभीर आदेश-भरे लिहाज में कहा, ‘मां।’ 

इसके बाद हां या न सवाल ही न उठता था। मां बैठ गईं और क्षीण, दुर्बल, लरजती आवाज में एक पुराना विवाह का गीत गाने लगीं, ‘हरिया नी माए, हरिया नी भैणे, हरिया ते भागी भरिया है।’ 

देसी स्त्रियां खिलखिला कर हंस उठीं। तीन पंक्तियां गा कर मां चुप हो गईं।

बरामदा तालियों से गूंज उठा। साहब तालियां पीटना बंद ही न करते थे। शामनाथ की खीज प्रसन्नता और गर्व में बदल उठी थी। मां ने पार्टी में नया रंग भर दिया था। 

तालियां थमने पर साहब बोले, ‘पंजाब के गांवों की दस्तकारी क्या है?’  

शामनाथ खुशी में झूम रहे थे। बोले, ‘ओ, बहुत कुछ साहब। मैं आपको एक सेट उन चीजों का भेंट करूंगा। आप उन्हें देख कर खुश होंगे।’ 

मगर साहब ने सिर हिला कर अंग्रेजी में फिर पूछा, ‘नहीं, मैं दुकानों की चीज नहीं मांगता। पंजाबियों के घरों में क्या बनता है औरतें खुद क्या बनाती हैं?’ 

शामनाथ कुछ सोचते हुए बोले, ‘लड़कियां गुड़ियां बनाती हैं और फुलकारियां बनाती हैं।’ 

‘फुलकारी क्या?’

शामनाथ फुलकारी का मतलब समझाने की असफल चेष्टा करने के बाद मां को बोले, ‘क्यों मां कोई पुरानी फुलकारी घर में है?’ 

मां चुपचाप अंदर गईं और अपनी पुरानी फुलकारी उठा लाईं। 

साहब बड़ी रुचि से फुलकारी देखने लगे। पुरानी फुलकारी थी, जगह-जगह से उसके तागे टूट रहे थे और कपड़ा फटने लगा था। साहब की रुचि को देख कर शामनाथ बोले, ‘यह फटी हुई है साहब। मैं आपको नई बनवा दूंगा। मां बना देंगी। क्यों मां। साहब को फुलकारी बहुत पसंद हैं, इन्हें ऐसी ही एक फुलकारी बना दोगी न?’ 

मां चुप रहीं। फिर डरते-डरते धीरे से बोलीं, ‘अब मेरी नजर कहां है बेटा। बूढ़ी आंखें क्या देखेंगी?’ 

मां का वाक्य बीच में ही तोड़ते हुए शामनाथ साहब को बोले, ‘वह जरूर बना देंगी। आप उसे देख कर खुश होंगे।’ 

साहब ने सिर हिलाया। धन्यवाद किया और हल्के-हल्के झूमते हुए खाने की मेज की ओर बढ़ गए। बाकी मेहमान भी उनके पीछे-पीछे हो लिए। 

जब मेहमान बैठ गए और मां पर से सबकी आंखें हट गईं तो मां धीरे से कुर्सी पर से उठीं और सबसे नजरें बचाती हुई अपनी कोठरी में चली गईं। कोठरी में बैठने की देर थी कि आंखों में छल-छल आंसू बहने लगे। वह दुपट्टे से बार-बार उन्हें पोंछतीं। पर वह बार-बार उमड़ आते। जैसे बरसों का बांध तोड़ कर उमड़ आए हों। मां ने बहुतेरा दिल को समझाया। हाथ जोड़े, भगवान का नाम लिया, बेटे के चिरायु होने की प्रार्थना की, बार-बार आँखें बंद कीं, मगर आंसू बरसात के पानी की तरह जैसे थमने में ही न आते थे। 

आधी रात का वक्त होगा। मेहमान खाना खा कर एक-एक करके जा चुके थे। मां दीवार से सट कर बैठी आंखें फाड़े दीवार को देखे जा रही थीं। घर के वातावरण में तनाव ढीला पड़ चुका था। मुहल्ले की निस्तब्धता शामनाथ के घर भी छा चुकी थी। केवल रसोई में प्लेटों के खनकने की आवाज आ रही थी। तभी सहसा मां की कोठरी का दरवाजा जोर से खटकने लगा। 

‘मां, दरवाजा खोलो।’

मां का दिल बैठ गया। हड़बड़ा कर उठ बैठीं। क्या मुझसे फिर कोई भूल हो गई? मां कितनी देर से अपने आपको कोस रही थीं कि क्यों उन्हें नींद आ गई, क्यों वह ऊंघने लगीं। क्या बेटे ने अभी तक क्षमा नहीं किया? मां उठीं और कांपते हाथों से दरवाजा खोल दिया। 

दरवाजे खुलते ही शामनाथ झूमते हुए आगे बढ़ आए और मां को आलिंगन में भर लिया। 

‘ओ अम्मी। तुमने तो आज रंग ला दिया। साहब तुमसे इतना खुश हुआ कि क्या कहूं। ओ अम्मी। अम्मी।’ मां की छोटी-सी काया सिमट कर बेटे के आलिंगन में छिप गई। मां की आंखों में फिर आंसू आ गए। उन्हें पोंछती हुई धीरे से बोली, ‘बेटा, तुम मुझे हरिद्वार भेज दो। मैं कब से कह रही हूं।’ 

शामनाथ का झूमना सहसा बंद हो गया और उनकी पेशानी पर फिर तनाव के बल पड़ने लगे। उनकी बांहें मां के शरीर पर से हट आईं। 

‘क्या कहा, मां? यह कौन-सा राग तुमने फिर छेड़ दिया?’

शामनाथ का क्रोध बढ़ने लगा था, ‘तुम मुझे बदनाम करना चाहती हो, ताकि दुनिया कहे कि बेटा मां को अपने पास नहीं रख सकता।’ 

‘नहीं बेटा, अब तुम अपनी बहू के साथ जैसा मन चाहे रहो। मैंने अपना खा-पहन लिया। अब यहां क्या करूंगी। जो थोड़े दिन जिंदगानी के बाकी हैं, भगवान का नाम लूंगी। तुम मुझे हरिद्वार भेज दो।’ 

‘तुम चली जाओगी तो फुलकारी कौन बनाएगा? साहब से तुम्हारे सामने ही फुलकारी देने का इकरार किया है।’ 

मेरी आंखें अब नहीं हैं बेटा, जो फुलकारी बना सकूं। तुम कहीं और से बनवा लो। बनी-बनाई ले लो।’ 

‘मां, तुम मुझे धोखा देके यूं चली जाओगी? मेरा बनता काम बिगाड़ोगी? जानती नही, साहब खुश होगा, तो मुझे तरक्की मिलेगी।’ 

मां चुप हो गईं। फिर बेटे के मुंह की ओर देखती हुई बोली, ‘क्या तेरी तरक्की होगी? क्या साहब तेरी तरक्की कर देगा? क्या उसने कुछ कहा है?’ 

‘कहा नहीं, मगर देखती नहीं, कितना खुश गया है। कहता था, जब तेरी मां फुलकारी बनाना शुरू करेंगी तो मैं देखने आऊंगा कि कैसे बनाती हैं। जो साहब खुश हो गया, तो मुझे इससे बड़ी नौकरी भी मिल सकती है, मैं बड़ा अफसर बन सकता हूं।’ 

मां के चेहरे का रंग बदलने लगा। धीरे-धीरे उनका झुर्रियों-भरा मुंह खिलने लगा, आंखों में हल्की-हल्की चमक आने लगी। 

‘तो तेरी तरक्की होगी बेटा?’ 

तरक्की यूं ही हो जाएगी? साहब को खुश रखूंगा तो कुछ करेगा वरना उसकी खिदमत करने वाले और थोड़े हैं?’ 

‘तो मैं बना दूंगी बेटा। जैसे बन पड़ेगा, बना दूंगी।’ 

और मां दिल ही दिल में फिर बेटे के उज्ज्वल भविष्य की कामनाएं करने लगीं। और मिस्टर शामनाथ, ‘अब सो जाओ मां’, कहते हुए तनिक लड़खड़ाते हुए अपने कमरे की ओर घूम गए।

 

 

 

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