अभी जगदीश जी के रिटायरमेंट में दो महीने बाकी थे और स्टाफ के लोग थे कि पहले से ही उनसे विदाई टोन में बतियाने लगे थे।
'और जगदीश भाई, अब क्या इरादा है ?’
'तो क्या सोचा आपने जगदीश भाई। जीपीएफ के पैसे कहां लगाएंगे?’
'मेरी मानिए, हाथ के हाथ दोनों बेटियों को निबटा डालिए।’
'भई जगदीश बाबू भूल मत जाना, मिलते रहिएगा।’
ऐसे ही तमाम फिकरे जगदीश बाबू को कचोट डालते। वह कुछ जवाब देने के बजाए मन ही मन उन कथित शुभचिंतकों को गरियाने लगते। 'साले इनका दम क्यों निकल रहा है, पैंतालिस साल गुजारे हैं इस कालेज में। कॉलेज का अभिन्न बन कर रहा हूं और ये ऐसे बर्ताव करते हैं, जैसे मेरा रिटायरमेंट नहीं बल्कि अर्थी उठने वाली है मेरी। लगता है जैसे यह कॉलेज इनके बाप का है।’ उन्हें बड़ी तकलीफ होती। भीतर ही भीतर चटख जाते। ज्यों-ज्यों रिटायरमेंट के दिन पास आ रहे थे, लगता था कोई उनकी मुट्ठी से समय को खींचे ले जा रहा हो। समय तब नहीं ठहरता जब उसकी तासीर कहीं भीतर तक हलचल कर रही होती है। घर मे जाते ही पत्नी अपना दुखड़ा ले कर बैठ जाती। 'क्या यहां-वहां घूमा करते हो रीमा के पापा। अब तो नौकरी से भी छुट्टी मिल रही है। अब तो चैन से बैठा करो।’ वह सकपकाए से अपने कमरे में घुस जाते। पत्नी कई बार पूछ चुकी थी, 'कुल कितना पैसा बनेगा जी, जीपीएल में। सुना इधर-उधर खर्च मत करना। सारा हमको दे देना। हम बच्चों को हिसाब से बांट देंगे।’
ये कौन जाने इन बातों का कैसा प्रभाव पड़ता था उन पर। पर वह बस इतना जानते थे, उनकी रूह तक छिल जाती थी। खना-पीना उनका जैसे बंद ही चुका था। इतना उतना कहीं खाया तो खाया नहीं तो अनमने से ही थाली से उठ जाते थे। वह अपना गम गलत करने यहां-वहां बैठते लेकिन वहां बैठा कोई फिर उनकी दुखती रग पर हाथ रख देता। उनका रोम-रोम चीत्कार कर उठता। ऐसे ही महीना सरकता रहा। ज्यों-ज्यों वक्त बीत रहा था, उनके पैर के नीचे से जमीन और सिर से आसमां सरक रहा था। जब चीजें अपनी पकड़ से छूटने लगती हैं तो आदमी उन्हें और सख्ती से पकडऩे का प्रयत्न करता है। नियति कुछ भी शेष नहीं रहने देती। वह वेदना की छटपटाहट के बीच रिसते रहते। अंतत: दो महीने पंख लगा कर उड़ गए। मई की 20 तारीख झम्म से सामने आ कर ठहर गई।
वह कॉलेज जल्दी पहुंच गए। रात भर बेचैनी बनी रही थी। नींद पल भर को नहीं आई। ऐसा लगता रहा जैसे नौकरी से नहीं, जिंदगी से रिटायर होने जा रहे हैं। पत्नी और बच्चे मौज से सो रहे थे। वह सूनी आंखों से रात भर छत ताकते रहे। आखिर सुबह हुई। नहा कर उन्होंने सबसे अच्छा सूट पहना। उन्हें शरीर में उर्जा सी महसूस हुई। जैसे ही उन्होंने कॉलेज की तरफ चलना शुरू किया लगा पैरों से प्राण निकलते जा रहे हैं। कॉलेज अभी सन्नाटा पसरा था। कुछ देर वह यूं ही खड़े रहे और कॉलेज की इमारत को तकते रहे। वह अपने कमरे में पहुंचे और बड़ी देर खड़े रहे। 'बैठ जाईए सर, आज और बैठ जाइए। फिर यह कुर्सी कहां मिलेगी।’ उन्होंने पलट कर देखा चपरासी खड़ा था। सहसा उनकी आंखें भर आईं। उन्हें लगा कुर्सी पर ढेर सारे कांटे उग आए हैं। उनसे बैठा नहीं गया। चली जाने वाली चीज से कैसा मोह? वह बोले, 'नहीं राकेश। चलता हूं। थोड़ी देर बाद आऊंगा। अभी तो कोई नहीं आया है।’ 'ठीक है साहब।’
चलते हुए उन्होंने कुर्सी को बड़े नेह से देखा जैसे कह रहे हों, '40 साल तक तूने मुझे बहुत संभाला। अब मैं मुक्त करता हूं तुझे अपनी कामनाओं से।’ एक घंटे बाद जब वह दोबारा कॉलेज पहुंचे तो इस बार कॉलेज गुलजार था। बच्चे रिजल्ट लेने आए थे सो चहचहा रहे थे। सारा स्टाफ महीने भर के लिए रिलेक्स होने जा रहा था इसलिए भी खुश था। उन्हें पता नहीं क्या कचोट रहा था। जी चाह रहा था समय ठहर जाए। कॉलेज मे छुट्टी न हो। वह वहां मौजूद हर चीज को छू कर महसूस करना चाहते थे। उन्हें एक पल को चैन नहीं था। वह अपनी पसंदीता जगह को देर तक खड़े निहारते रहे, जहां अक्सर वह फुर्सत के क्षणों में कुर्सी डाल कर बैठा करते थे। अमलतास के दरख्त के नीचे। चालीस साल तक जैसे यह दरख्त उनका सच्चा साथी था। लग रहा था जैसे आज वह दरख्त भी उन्हें आतुर बाहों से बुला रहा था। जैसे वह दरख्त भी बस अभी रो देगा। वह सम्मोहित से उधर चले गए और कुर्सी खींच कर उस दरख्त के नीचे बैठ गए। उन्हें लगा सदियों तक वह इसी तरह बैठे रह जाएं। इस जगह को छोड़ पाना उन्हें बहुत पीड़ाजनक लगा। वह सायास स्मृतियां खंगालने लगे। जब उन्होंने पहली दफा जॉइन किया था। मात्र 20 वर्ष की आयु। उसके बाद कितने ही उतार चढ़ाव आए जिनका साक्षी यह कॉलेज रहा है और इसी का संग छूटा जा रहा है। तभी चपरासी ने तंद्रा भंग की।
'साहब, बाबू जी बुला रहे हैं। साइन कर दीजिए।’ फिर हंस कर बोला, 'आज और कर लीजिए।’ उन्हें हठात धक्का लगा। शिराओं में ठंडक दौड़ गई। बड़ी मुश्किल से वह उठे और ऑफिस की तरफ बढ़ गए। क्लर्क ने रजिस्टर आगे खिसका दिया। वह धीरे से बैठ गए। पेन निकाला ही था क्लर्क ने कहा, 'करिए जगदीश बाबू। आज आपका अंतिम हस्ताक्षर है।’ उन्हें लगा हस्ताक्षर एक भ्रामक डोरी ही तो है, जिसे थामे वह कॉलेज के नाम पर इतना वक्त गुजार सके। उन्होंने बड़े इत्मीनान से लिखा, 'जगदीश चंद्र प्रसाद।’ दस्तखत करते ही उन्हें गहरा संतोष हुआ। आखिर उन्होंने अपनी ड्यूटी पूरी तरह निभा ही दी। तभी चपरासी ने आ के सूचना दी, 'सर, प्रिंसिपल साहब ने कहा है उनसे मिल लीजिएगा।’ वह कमजोर से उठे और प्रिंसिपल के कार्यालय की तरफ मुड़ गए। प्रिंसिपल ऑफिस में कदम रखते ही प्रिंसिपल ने पुलकते हुए कहा, 'आईए जगदीश बाबू पधारें। कल हम सब आपको विदाई-पार्टी देने जा रहे हैं।’
'क्या साहब पार्टी-वार्टी।’ कम उम्र होने के कारण या कुछ अच्छे संसकारों के कारण प्रिंसिपल ने हमेशा उनकी इज्जत की है। जगदीश बाबू को उनका यही बर्ताव भाता हैं। वह चुपचाप बैठे रहे। प्रिंसिपल ने फिर धीरे से उनसे पूछा, 'जगदीश बाबू, कैसा लग रहा है?’ वह एक पल को प्रिंसिपल को देखते रह गए फिर गहरी सांस लेते हुए बोले, 'लगता है सब कुछ खत्म हो गया है। मुझे तो आखिरी हस्ताक्षर करना पहाड़ सा लग रहा था।’
'नहीं जगदीश बाबू। अभी तो आपकी पारी शुरू हुई है। अभी तक तो आपने नौकरी जी है। अब आप जिंदगी जिएं।’ उनका एक छोटा सा वाक्य सुन कर जगदीश बाबू को लगा जैसे वाकई दुनिया अभी बहुत बाकी है और उनके बहुत से काम बाकी हैं।