जब से यह शहर राजधानी के रुतबे से लैस हुआ, नई आबादी चारों तरफ बेतहाशा बढ़ी है। रिहायशी इलाके बेतरतीब ढंग से पसरते जा रहे हैं। ईश्वर बाबू लगभग दस साल पहले यहां आए थे। सरकारी नौकरी के दस्तूर के मुताबिक उनका तबादला हुआ था। वह मेरे पड़ोस में किराये का घर ले कर सपरिवार रहने लगे थे। वह बातचीत में विनम्र थे। व्यवहार में सहज। कुल मिला कर सद्गृहस्थ आदमी। लेकिन सरकारी नियमों-कायदों के मामले में उन्हें बड़ा जानकार माना जाता था।
उनकी नौकरी सिर्फ चार-पांच साल और बच रही थी। उनका मन था कि प्राविडेंट फंड से अग्रिम के पैसे लेकर एकमुश्त दो काम तुरत कर लें। पहले स्थाई ठौर-ठिकाने के लिए अपना एक घर हो, फिर दोनों बेटियों को ससुराल पहुंचाने की तैयारी। बेटों के लिए ज्यादा फिक्र में वह नहीं दिखे। उनका क्या ! नौकरी नहीं मिली तो कोई दुकान कर लेंगे। सचमुच पहला काम उन्होंने यह किया कि पीएफ से पैसे निकाल कर जमीन खरीद ली और छोटा-सा घर बनवाया। उनके गृह प्रवेश के अवसर पर उनसे मेरी भावभीनी मुलाकात हुई थी। उस दिन वह बहुत खुश थे। हमेशा की तरह उन्होंने अपना मनोभाव इस नीति वाक्य में व्यक्त किया था, ‘भगवान ने उनकी सुन ली। अब तक बेदाग नौकरी में पाई टु पाई ऑनेस्ट रहे हैं।’ उनके इस कहे का मर्म आज कितने लोग समझ पाएंगे ! लेन-देन की दुनिया से ‘पाई’ की बिदाई आधी सदी पहले हो चुकी है। अब तो नया पैसा भी चलन में दिखलाई नहीं पड़ता।
मुझे अच्छी तरह याद हैं उनके वह मुश्किल भरे दिन जब वह पड़ोस में आए थे। उनकी छोटी बेटी विकलांग थी, पत्नी गठिया की मरीज, बड़ी बेटी पढ़ाई के साथ घर संभालने में कुशल और दोनों बेटे कॉलेज के विद्यार्थी। अपने दफ्तर में उनका ओहदा लेखापाल का था। वर्क औेर इस्टैबलिशमेंट दोनों तरह के भुगतान का जिम्मा उनके हवाले था। एक बार विभाग के चीफ इंजीनियर के कहे मुताबिक उन्होंने उसके चहेते ठेकेदार को तुरत भुगतान करने से इनकार कर दिया था। वह जानते थे कि उस ठेकेदार का क्लेम फर्जी था। अपने ‘पाई टु पाई ऑनेस्ट’ वाले अक्खड़पन में गलत काम करने से वह बहुत दिनों तक बचते रहे। तो वह बड़ा अफसर नाराज हो गया। उनको नियमानुसार काम करने का इनाम यह मिला कि अनुशासनहीनता के आरोप में वह सस्पेंड हो गए। तब बढ़ती महंगाई के दबाव में उनकी गृहस्थी की गाड़ी हिचकोले नहीं खाती तो और क्या होता। पहली बार वह याचक की भूमिका में मेरे पास आये थे, ‘मकान मालिक को किराया नहीं देने से बड़ी बेइज्जती होगी।’
यह वही दिन थे जब आधा वेतन पाने से तंग और आजिज आ कर उन्होंने शहर के एक कोआपरेटिव सोसाइटी में पार्ट टाइम जॉब शुरू किया था। वहां उनकी जिम्मेदारी एकाउंट्स असिस्टेंट की थी। फिर नए हालात के मुताबिक वह व्यस्त हो गए। छुट्टी के दिनों में भी उनको सोसाइटी ऑफिस में बुला लिया जाता था। उनकी नजर में सचिव महोदय उदार व्यक्ति थे। आने-जाने के लिए कार भिजवा दिया करते थे। समय से भुगतान मिल जाता था। लेकिन अपने सस्पेंशन के खिलाफ उन्होंने लिखा पढ़ी जारी रखी थी। इसलिए उस मामले की विभागीय जांच चल रही थी। इस दौर में उनसे मेरी मुलाकातों का सिलसिला थम गया था। कभी कहीं भेंट हो जाती तो सरकारी विभागों में अनुशासन के नाम पर होने वाले उत्पीडऩ के बारे में वह गांधीवादी तरीके से अपना आक्रोश अवश्य जताते थे। दो सूक्तियों पर उनका विश्वास अटूट था जिन्हें दुहराते हुए वह मुझसे विदा लेते, ‘भाई जी, सदा सत्य की जीत होती है। कोई मुझे ‘पाई टु पाई ऑनेस्ट’ होने के रास्ते से डिगा नहीं सकता।’
ईश्वर बाबू के आने-जाने का रूटीनी रास्ता मेरे घर के सामने से गुजरता था। सचमुच वह ठीक ठाक ढंग से व्यस्त हो गए थे। उनकी साइकिल पर कभी राशन के झोले लटके दिखते तो कभी बास्केट से सब्जियां झांक रही होती थीं। एक दफा गपशप में उन्होंने अपनी मार्केटिंग का खुलासा इस अंदाज में किया था, ‘भाई जी, हाट-बाजार का काम लड़कों को कैसे दिया जाए। वे मोल तोल करना तो जानते नहीं, बल्कि उसे अपनी तौहीन समझते हैं। उन पर खरीदारी छोड़ दूं तो दस की चीज बीस में घर आएगी। ऑफिस में सस्पेंशन का मामला निबट जाए तो सब ठीक हो जाएगा।’
देखते-देखते तीन साल कैसे निकल गए, कुछ पता नहीं चला। ईश्वर बाबू विभागीय जांच से उबर नहीं पाए। इधर सोसाइटी का कामकाज बढ़ता रहा। सेक्रेटरी साहब ने, हां, अब वह साहब कहे जाते थे, एक एनजीओ शुरू कर लिया था। ईश्वर बाबू पर उनको इतना भरोसा था कि फाइलें इनके घर भिजवा देते थे। जब भी घर की कोई परेशानी उन्हें बताते तो वह तत्काल कुछ न कुछ उपाय कर ही देते। एक बार मैंने ईश्वर बाबू को सावधान रहने की सलाह दी थी कि वह सेक्रेटरी साहब की कारोबारी साख की छानबीन जरूर कर लें। लेकिन देखा कि वह अपनी राय पर कायम रहना चाहते हैं। उनके इस रुख से मैं पहली बार क्षुब्ध हुआ था। तय किया कि इस मामले में दखल नहीं दूंगा। इस तरह मेरे लिए वह बात आई-गई हो गई। हम दोनों अपनी-अपनी दुनिया में सिमटे रहे।
उस घटना के कोई साल भर बाद एक दिन ईश्वर बाबू मेरे घर आए तो बेहद खुश दिखे। उन्होंने मिठाई का एक डब्बा मुझे थमाया। मैंने विनोद भाव से पूछ लिया, ‘कोई लॉटरी निकली है क्या।’ वह मुस्कराए। ‘यही समझ लीजिए।’ मालूम हुआ कि उनके सस्पेंशन का आदेश खारिज हो चुका है और वह ऑफिस जॉइन कर चुके हैं। यह एरियर समेत बकाया मिल जाने की खुशी थी। चलो, अच्छा हुआ। एक भले आदमी को सत्यनिष्ठा की लड़ाई में जीत मिल गई।
मैंने पूछ लिया, ‘अब क्या इरादा है? ऑफिस और सेक्रेटरी साहब का एनजीओ क्या आप दोनों मोर्चे संभालेंगे?’ उन्होंने इत्मीनान से जवाब दिया, ‘नहीं भाई जी, अब सिर्फ ऑफिस करना है। जब विभाग से बुलावे की चिट्ठी मिली तो मैं सेक्रेटरी साहब से मिला था। गाढ़े वक्त में ठौर देने के लिए उनका शुक्रिया अदा किया। उन्होंने खुशी जताई और एक अनुभवी आदमी खोजने का जिम्मा दिया बस।’ घर-परिवार की चर्चा होने लगी तो उन्होंने बताया, ‘बड़ी बेटी का रिश्ता लगभग तय हो गया है। चार महीने बाद पेंशन होने वाली है। उससे पहले यह काम इसी लगन में निबट जाए तो अच्छा।’
आज के अखबार में एक समाचार पढ़ कर लग रहा है कि ईश्वर बाबू बड़े चक्कर में फंस सकते हैं। खबर छपी है कि सोसाइटी और एनजीओ चलाने वाले सेक्रेटरी साहब को सूबे के एक बहुचर्चित घोटाले में सीबीआई ने गिरफ्तार कर लिया है। कई तरह की दुश्चिंताएं मुझे घेरने लगी हैं। किसी दिन ईश्वर बाबू के घर जाकर उनसे मिलना चाहिए। अगले दिन सुबह उनका बड़ा बेटा महेश आ गया। उसकी घबराई मुखमुद्रा देख मैंने पूछा, ‘क्या बात है? तुम परेशान लग रहे हो।’ उसने कहा, ‘हां अंकल जी। बात ही कुछ ऐसी है। कल रात पिता जी को पुलिस अपने साथ ले गई। वह लोग किसी एनजीओ का मामला बता रहे थे। कुछ समझ में नहीं आ रहा कि कैसे क्या किया जाए।’
मेरी आशंका सच निकली। ‘पाई टू पाई ऑनेस्ट’ की दावेदारी खतरे में पड़ गई लगती है। मैंने एक दफा उन्हें चौकस रहने की सलाह दी थी। उस वक्त वह नहीं चेते। अब अपनी बेपरवाही को जरूर कोस रहे होंगे कि कैसे इतने दिनों तक आंख मूंद कर चलते रहे। क्यों उस दरियादिल आदमी के फरेब को नहीं समझ पाए।
दस-बारह दिनों की दौड़ धूप के बाद कानूनी दस्तूर के मुताबिक ईश्वर बाबू को जमानत मिल गई। हिरासत से बाहर निकले तो उनका चेहरा उतरा हुआ था। मुझसे नजरें मिलीं तो भर्राई अवाज में उनका कंठ खुला, ‘भाई जी, ठग के साथ उठने-बैठने से कोई ठग नहीं हो जाता। मैंने मजदूरी की, जो काम मिला उसे किया, कोई जालसाजी नहीं की।’ यह तो लोग मानते रहे हैं कि ईश्वर बाबू ईमानदार आदमी हैं। सेक्रेटरी साहब के गोरखधंधे में उनकी मिली भगत बेशक नहीं होगी। लेकिन जब वह कानूनी शक के दायरे में आ चुके तो उन्हें अग्नि परीक्षा की प्रक्रिया से तो गुजरना ही पड़ेगा। कड़ी चुनौती यह है कि वह सप्रमाण बताएं कि कथित घोटाले में उनकी कोई भागीदारी नहीं थी।
आज उसी अखबार में एक दूसरी खबर छपी है। पड़ोसी सूबे के मुख्यमंत्री जी ने कहा है कि छोटी-मोटी रिश्वतखोरी तो कर्मचारी-अधिकारी की मजबूरी होती है, इसलिए उसे अपराध के दायरे में नहीं रखा जा सकता। लगता है, परिभाषाएं भी प्रदूषण की चपेट में आ रही हैं। भाषाविद इसे अर्थान्तर का दृष्टांत मान सकते हैं। पता नहीं, सोशल मीडिया के लोग इस पर क्या कहेंगे। आपका क्या खयाल है?