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फिल्मः बॉलीवुड का बिहार

सघन सांस्कृतिक और राजनैतिक चेतना के लंबे और सजग इतिहास के बावजूद बॉलीवुड में बिहार की छवि सत्ता, हिंसा,...
फिल्मः बॉलीवुड का बिहार

सघन सांस्कृतिक और राजनैतिक चेतना के लंबे और सजग इतिहास के बावजूद बॉलीवुड में बिहार की छवि सत्ता, हिंसा, षड्यंत्र वाली ही

बिहार की दिलचस्प राजनीति समझना हो, तो हाल में हुए विधानसभा चुनावों पर नजर डालिए। वहां इतनी तरह की पार्टियां और विचारधाराएं चुनाव मैदान में होती हैं, जैसे विविध राजनैतिक सोच का मेला लगा हो। अलग-अलग रास्तों और सपनों वाली ये पार्टियां यहां की मिट्टी में जगह बनाती हैं और फलती-फूलती हैं। यही वह जमीन है जहां सत्ता की लड़ाई हर वक्त नई शक्ल लेती रहती है। बदलाव की हलचल लगातार चलती है, फिर भी कुछ बातें, मानो बरसों से वहीं थमी हुई हैं।

मुख्यधारा के हिंदी सिनेमा में बिहार की यह तस्वीर गायब रही है। पिछले कुछ दशक में, ऐतिहासिक रूप से अपनी सांस्कृतिक समृद्धि के लिए जाना जाने वाले इस क्षेत्र की छवि परदे पर अपराध, दलगत राजनीति और हिंसा में लिपटी ही दिखती है। प्रकाश झा की दामुल (1984) से लेकर, मृत्युदंड (1997), गंगाजल (2003), अपहरण (2005), जय गंगाजल (2016), अनुराग कश्यप की गैंग्स ऑफ वासेपुर भाग एक और दो (2012) के बाद हाल ही में सुशांत कपूर की सोनी लिव पर प्रसारित होने वाली सीरीज महारानी (2021 से जारी) तक और पुलकित की नेटफ्लिक्स फिल्म भक्षक (2024) तक ये सभी फिल्में और सीरीज में ऐसे ही विषय दिखाई पड़ते हैं।

इनमें कई फिल्में वास्तविक घटनाओं से प्रेरित हैं। उन घटनाओं ने पूरे देश को झकझोर दिया था और लोगों को मजबूर किया कि वे राज्य में बार-बार होने वाली अराजकता और कानून-व्यवस्था की खुली नाकामी को गंभीरता से लें। गंगाजल की कहानी 1979-1980 में बिहार के भागलपुर में हुए कुख्यात भागलपुर ब्लाइंडिंग्स की घटना पर आधारित थी। पुलिस ने विचाराधीन कैदियों की आंखों में तेजाब डालकर उन्हें अंधा करने जैसा जघन्य काम किया था। उस प्रकरण ने जेलों के भीतर कैदियों पर होने वाली गैर-न्यायिक हिंसा की ओर देश का ध्यान खींचा। फिल्म ने इस सामाजिक यथार्थ की उस जटिलता को उजागर किया, जिसमें अपराध से त्रस्त आम लोग, जिनके जीवन में अपराध लगभग रोजमर्रा के काम की तरह शामिल हो चुका था, वे लोग शुरुआत में पुलिस की इस अमानवीय कार्रवाई की ही सराहना करने लगे थे। भक्षक की कहानी 2018 में सामने आए मुजफ्फरपुर शेल्टर होम कांड पर आधारित थी। बिहार के मुजफ्फरपुर में एक शेल्टर होम में 30 से ज्यादा बच्चियों साथ यौन शोषण और उत्पीड़न हुआ था। इस मामले को सबसे पहले 2017 में टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (मुंबई) की टीम ने बिहार के विभिन्न शेल्टर होम्स के ऑडिट के दौरान उजागर किया था। फिल्म में मीडिया की भूमिका और एक छोटे शहर की निडर पत्रकार की जद्दोजहद को दिखाया गया था, जिसने सत्ता और रसूख के भारी जाल के बीच सच को सामने लाने और संबंधित राजनैतिक संरक्षण को बेनकाब करने का जोखिम उठाया।

बिहार की पृष्ठभूमि पर बनी कई फिल्में, सभी में अपराध प्रमुखता से दिखाया गया। 2. दामुल, 3. महारानी, 4. जय गंगाजल, 5. गंगाजल, 6. गैंग्स ऑफ वासेपुर, 7. अपहरण, 8. भक्षक

इन फिल्मों में कुछ ने पृष्ठभूमि में कहानियां गढ़ते समय उस क्षेत्र के असली चरित्रों और उनसे जुड़ी प्रचलित कहानियों को आधार बनाया। जैसे, प्रतिघात के मुख्य खलनायक का किरदार कथित रूप से 80 और 90 के दशक में बिहार की राजनीति और अपराध जगत का बड़ा नाम रहे काली प्रसाद पांडे से लिया गया था, जो विधानसभा और लोकसभा दोनों का प्रतिनिधित्व कर चुके थे। उनकी छवि एक तरह से ‘रॉबिन हुड’ जैसी थी। महारानी शृंखला में मुख्य पात्र को लेकर माना जाता है कि वे लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी से प्रेरित हैं और कहानी में उनके शासनकाल की कई वास्तविक घटनाएं भी बुनी गई हैं। गैंग्स ऑफ वासेपुर का एक किरदार, रामाधीर सिंह अपराधी नेता सूर्यदेव सिंह से प्रेरित था। वहीं सरदार खान का चरित्र शफीक खान और फहीम खान की भूमिका में फैजल खान थे।

हालांकि, जो बात ध्यान देने योग्य है, वह यह कि बॉलीवुड के फिल्म निर्माताओं का अपराध और ताकत के गठजोड़ के प्रति आकर्षण हमेशा रहा और यह इस हद तक बढ़ा कि इस इच्छा ने दूसरी सभी बातों को ढक लिया, जिससे बिहार की दूसरी अच्छी बातें अनदेखी ही रह गईं। फिर भी, कुछ फिल्में ऐसी रहीं, जिसने अपनी कहानियों के माध्यम से सामाजिक मुद्दों की ओर ध्यान दिलाया। मृत्युदंड ऐसी ही फिल्म थी, जिसने सामंती समाज में पितृसत्तात्मक प्रभुत्व को बखूबी दर्शाया। फिल्म में महिलाओं का मुखर प्रतिरोध दिखाया गया है। दामुल में गहराई से जड़ें जमाई हुई जाति व्यवस्था की कहानी थी, जिसमें गरीबों और वंचितों पर होने वाले क्रूर दमन को दिखाया गया था।

केतन मेहता की मांझी-द माउंटेन मैन (2015) बिहार की पृष्ठभूमि की अनमोल फिल्म थी। यह फिल्म दशरथ मांझी की वास्तविक जिंदगी की एक घटना पर आधारित बायोपिक थी। मांझी की पत्नी पानी लाते वक्त पहाड़ की चोटी से गिर गई थीं। उसके बाद मांझी ने 22 साल की अथक मेहनत से एक पथरीले पहाड़ को काटकर सड़क बना दी थी। यह फिल्म न सिर्फ एक दलित मजदूर के अदम्य दृढ़ संकल्प की कहानी थी, बल्कि आजादी के कई दशक बाद भी लोगों को बुनियादी सुविधाएं मुहैया न करा पाने की राज्य की घोर विफलता भी बताती है।

बॉलीवुड ने जहां अपनी राह छोड़ दी, स्थानीय फिल्मकारों ने वहां उस कमी को पूरा किया। फिल्म निर्माता अचल मिश्रा ने 2019 में गामक घर फिल्म बनाई। मैथिली भाषा को आगे लाने का यह उनका प्रयास था। उत्तरी बिहार और नेपाल के कुछ हिस्सों में बोली जाने वाली मैथिली को और लोगों तक पहुंचाने की उनकी कोशिश थी। इस फिल्म में उन्होंने बचपन की यादें, खाली पड़े घरों की कहानी को बहुत काव्यात्मक तरीके से कहा था। उसके बाद एक और फिल्म आई थी, धुंई (2022)। यह एक युवा थिएटर कलाकार की अपने सपनों और अपनी जिम्मेदारियों के बीच चयन करने की दुविधा पर आधारित थी। एक लड़का है, जो अभिनेता बनने के लिए मुंबई जाना चाहता है, लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों की वजह से ऐसा नहीं कर पाता है। गरीबी के कारण उसका परिवार चाहता है कि वह बाहर जाने के बजाय अपने शहर में ही रहे।

मिश्रा भारतीय सिनेमा में हाशिये पर रहने वाले लोगों के जीवन को बताने का प्रयास करते हैं। पार्थ सौरभ निर्देशित पोखर के दुनु पार (2022) एक छोटे से शहर में दो प्रेमियों की कहानी है, जो भागने का फैसला करते हैं, लेकिन बाद में फैसला बदल देते हैं। इसका निर्माण भी मिश्रा ने ही किया था।

स्वतंत्र फिल्म निर्माता उम्मीद जगा रहे हैं कि बड़े परदे पर बिहार को दिखाने के लिए खून-खराबा और अपराध दिखाने के अलावा दूसरी बातें भी दिखाई जाएं। लेकिन यह देखना अभी बाकी है कि क्या बॉलीवुड सत्ता के दांव-पेंच से आगे बढ़कर राज्य की जीवंतता को तलाश पाएगा।

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