अभी मैं मुड़कर देखता हूं, तो मुझे भी हैरत होती है कि मैंने और सलीम खान साहब ने किस तरह की कल्पना की और किरदार गढ़े। यह वह जमाना था जब राजेश खन्ना बादशाह थे और हर तरफ लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, आर.डी. बर्मन के संगीत की गूंज सुनाई देती थी। म्यूजिक और रोमांस के दौर में एंग्री यंग मैन की रचना करना हैरत तो पैदा करती है।
जंजीर की कहानी समझने के लिए उसके इतिहास को समझना होगा। बात तब शुरू होती है, जब मैं और सलीम खान साहब दोस्त तो थे मगर राइटिंग पार्टनर नहीं थे। उस समय सलीम साहब ने एंग्री यंग मैन का किरदार सोचा। सलीम साहब के पास एक स्टोरी का आइडिया था, जिसकी प्रेरणा उन्हें इंदौर के एक पुलिसवाले से मिली थी। जब उन्होंने स्टोरी आइडिया अभिनेता धर्मेंद्र को सुनाया तो उन्हें बहुत पसंद आया।
गुस्सा तेरा वल्लाहः जंजीर में बिंदु के साथ, अमिताभ का जरा भी न मुस्कराना हिट हुआ
मेरी याददाश्त के अनुसार धर्मेंद्र ने सलीम साहब को नौ या दस हजार रुपये देकर आइडिया खरीद लिया। उस घटना के कुछ समय बाद मैं और सलीम साहब राइटिंग पार्टनर बन गए। तब धर्मेंद्र ने कहा कि स्टोरी आइडिया पर काम करके पूरी फिल्म की स्क्रिप्ट बनानी चाहिए। मगर धर्मेंद्र तो अभिनेता थे इसलिए उन्होंने यह बात रखी कि फिल्म उनके भाई अजीत देओल और फिल्मकार प्रकाश मेहरा मिलकर बनाएंगे। हमें यह प्रस्ताव पसंद आया और हमने शायद 51 हजार रुपये में जंजीर का कॉन्ट्रैक्ट साइन किया। जब मैंने और सलीम साहब ने जंजीर की स्टोरी, स्क्रीनप्ले और डायलॉग लिखा, तो एक और रोचक घटना हुई। किसी बात पर अजीत देओल और प्रकाश मेहरा की नहीं बनी तो दोनों ने अपने रास्ते अलग कर लिए। अब स्क्रिप्ट पर फिल्म बनाने की जिम्मेदारी प्रकाश मेहरा की थी।
प्रकाश मेहरा ने अपनी निर्माण कंपनी पीएमपी यानी प्रकाश मेहरा प्रोडक्शंस की स्थापना की, जिसकी पहली फिल्म जंजीर होने वाली थी। जब मैं, सलीम साहब और प्रकाश मेहरा जंजीर के लिए मुख्य अभिनेता की तलाश करने निकले, तो उस दौर के सभी बड़े कलाकारों ने फिल्म में काम करने से मना कर दिया। आज जब मैं पलट कर देखता हूं तो मुझे इसकी वजह समझ आती है। उस दौर में आराधना (1969), कटी पतंग (1971) जैसी रोमांटिक म्यूजिकल फिल्में सुपरहिट हो रही थीं। तब मैं और सलीम साहब हिंदी फिल्मों के लिए बिल्कुल नए थे। जंजीर का कॉन्ट्रैक्ट साइन करते हुए, हमारी फिल्म सीता और गीता, हाथी मेरे साथी निर्माणाधीन थीं। यानी फिल्म जगत में लोग हमें नौसिखिए लेखक की श्रेणी में रखते थे। ऐसे में एक ऐसी कहानी पर यकीन करना, जिसमें न हीरो मुस्कराता है, न रोमांस करता है और न गाने गाता है, बड़ा कठिन था। इसलिए सभी बड़े कलाकारों ने जंजीर की कहानी सुनकर, खुद को किनारे कर लिया।
यहां मैं प्रकाश मेहरा को याद करते हुए, उन्हें सलाम करना चाहूंगा कि यह प्रकाश मेहरा का जज्बा था कि जंजीर बनी। वरना हिंदी सिनेमा में यह चलन था कि जिस कहानी को दो अभिनेता मना कर दें, निर्माता को उस कहानी से नफरत हो जाती थी। मगर प्रकाश मेहरा ने सभी बड़े कलाकारों के मना करने के बावजूद जंजीर की कहानी पर भरोसा कायम रखा।
उधर, मैंने अमिताभ बच्चन की फिल्म आनंद (1971), परवाना (1971) और बॉम्बे टु गोवा (1972) देख ली थी और मैं उनके काम से बहुत प्रभावित हुआ था। मैं अक्सर प्रकाश मेहरा से कहता था कि यह लड़का जंजीर का किरदार कर सकता है। तब प्रकाश मेहरा यही कहते कि लगातार फ्लॉप फिल्में देने वाले अभिनेता पर किस तरह भरोसा जताया जा सकता है। लेकिन जब सभी बड़े कलाकारों ने जंजीर से किनारा कर लिया तो आखिरकार प्रकाश मेहरा जंजीर में अमिताभ बच्चन को कास्ट करने के लिए तैयार हो गए। मैं और प्रकाश मेहरा राजकमल स्टूडियो पहुंचे, जहां अमिताभ बच्चन फिल्म गहरी चाल (1973) की शूटिंग कर रहे थे। वहीं प्रकाश मेहरा और अमिताभ बच्चन की मुलाकात हुई और अमिताभ फिल्म जंजीर में शामिल हुए।
इस मुलाकात से कुछ समय पहले मैंने अमिताभ बच्चन को फोन किया था और जंजीर की कहानी सुनाने के लिए समय मांगा था। उन्होंने तब मुझे तुरंत अपने घर बुलाया था और कहानी सुनी थी। कहानी सुनकर अमिताभ बच्चन ने मुझसे हैरत से प्रश्न किया था, क्या मुझे लगता है कि वह जंजीर का किरदार निभा सकेंगे। तब मैंने कहा था कि वह एक दमदार अभिनेता हैं और जब प्रकाश मेहरा मिलने आएं तो बिना ज्यादा तर्क-वितर्क के फिल्म साइन कर लें। अमिताभ बच्चन ने आखिरकार फिल्म साइन की, फिल्म का मुहूर्त हुआ और अगले छह सात महीने में जंजीर बनकर तैयार हो गई।
शूटिंग के दौरान कई बार प्रकाश मेहरा अमिताभ बच्चन की प्रतिभा पर संदेह जताया करते थे। लेकिन जिस रोज जंजीर का क्लाइमैक्स शूट हुआ, उस रोज प्रकाश मेहरा ने मुझसे कहा कि अब मैं अमिताभ बच्चन के बिना अपनी कोई फिल्म नहीं बनाऊंगा। प्रकाश मेहरा जब तक जीवित रहे, अपनी इस बात पर कायम रहे।
मैं जब इन बातों को याद करता हूं, तो लगता है कि जैसे यह कल की ही बात है। मुझे याद आता है कि मैं अलवीडा पार्क इलाके में एक छोटे से घर में रहता था, जिसमें बालकनी थी। सलीम साहब के घर इंदौर से मेहमान आए थे। तब सलीम साहब और मैंने मेरे घर की बालकनी में बैठकर जंजीर का स्क्रीनप्ले, डायलॉग लिखे थे। जंजीर में हम दोनों का काम इतना गुंथा हुआ है कि कोई कह नहीं सकता कि कौन-सा सीन मैंने लिखा है और कौन-सा सलीम साहब ने।
यहां एक बात ध्यान देने की है कि हमारे रचे ‘एंग्री यंग मैन’ के पहले भी हिंदी सिनेमा में एंग्री यंग मैन रहे थे। गंगा जमुना (1961) में दिलीप कुमार और मदर इंडिया (1957) में सुनील दत्त ने जो किरदार निभाया, वह एंग्री यंग मैन किरदार ही था। हमारे और उन फिल्मों के एंग्री यंग मैन में बुनियादी फर्क यह था कि दूसरी फिल्मों का एंग्री यंग मैन बीच-बीच में कॉमेडी करता था या गाना गा लेता था। जबकि हमारा एंग्री यंग मैन पूरी फिल्म में गंभीर और गुस्से में रहता था। गुस्सा जो पैदा हुआ था अन्याय और शोषण से।
मदर इंडिया में सुनील दत्त एंग्रीयंग मैन का किरदार निभा चुके थे
जंजीर की जबरदस्त सफलता ने हिंदी सिनेमा में हीरो की छवि बदल दी। जंजीर के बाद लोगों को लगा कि हीरो तो ऐसा होना चाहिए, जो संघर्ष करे, परिस्थितियों का सामना करे। लोगों ने रोने-धोने वाले हीरो को अपना नायक मानने से इनकार कर दिया। यह बड़ा बदलाव आया जंजीर के बाद। जंजीर की सफलता के बाद देश और विदेश में फिल्म के बारे में काफी कुछ लिखा गया। लिखनेवालों ने कहा कि जंजीर, दीवार (1975), त्रिशूल (1977) जैसी फिल्मों पर उस दौर के राजनीतिक और सामाजिक माहौल का असर था। मगर मैं और सलीम साहब ऐसा सुनियोजित ढंग से नहीं सोच रहे थे कि हमें एंग्री यंग मैन छवि को राजनीतिक और सामाजिक माहौल के अनुसार ढालना है। हम तो केवल कहानी की रचना कर रहे थे। दरअसल हम उसी समाज से निकले थे, उसी समाज में सांस ले रहे थे, उसी समाज के अनुभवों से हमारी विचारधारा तैयार हुई थी, इसलिए हमारी रचना में राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव दिखना सामान्य-सी बात है। यह हमारी किस्मत है कि हमारी सोच जनता को पसंद आई और एंग्री यंग मैन वाली फिल्मों ने इतिहास रचा।
आप विश्वास कीजिए कि हमने किसी प्लान के तहत एंग्री यंग मैन वाली फिल्मों की रचना नहीं की। हमें एंग्री यंग मैन का किरदार पसंद था इसलिए हम बार-बार उसे रचते गए। मैं और सलीम साहब दिल से एंग्री यंग मैन से मुतासिर थे। वह हमारे काम में दिखा और लोगों ने उसे प्यार दिया। इसे आप एंग्री यंग मैन का व्यापक प्रभाव ही कहेंगे कि आने वाले समय में कई लोगों ने एंग्री यंग मैन से प्रेरित किरदार बनाने की कोशिश की। मगर यह कोशिशें कामयाब नहीं हुईं। इसका एक कारण तो यह भी था कि फिर जिन्होंने एंग्री यंग मैन का किरदार गढ़ा, उनमें अमिताभ बच्चन जैसी अभिनय प्रतिभा और सलीम-जावेद जैसी लेखन प्रतिभा नहीं थी। दूसरा कारण यह था कि बाद में जो एंग्री यंग मैन किरदार गढ़े गए, उन्हें बेवजह गुस्सैल दिखाया गया।
हमारे रचे गए एंग्री यंग मैन के गुस्से के पीछे एक कारण था। उसका दिल दुखा हुआ था, उसके परिवार के साथ जुल्म हुआ था। इसी से एंग्री यंग मैन का गुस्सा उपजा था। बाद में जो एंग्री यंग मैन किरदार गढ़े गए, वह बदतमीज और घमंडी थे। इसलिए पब्लिक उनसे अपनत्व नहीं महसूस कर पाई और वह प्रभाव छोड़ने में नाकाम रहे। जंजीर की कामयाबी के बाद, जो एंग्री यंग मैन किरदार स्थापित हुआ, उसने हिंदी सिनेमा जगत में लेखकों की स्थिति में बड़ा बदलाव किया।
जिस समय मैंने और सलीम साहब ने हिंदी सिनेमा में शुरुआत की, लेखकों को मुंशी से अधिक तवज्जो नहीं दी जाती थी। न ही अच्छा पैसा मिलता था, न ही फिल्म के पोस्टर पर लेखक का नाम दिया जाता था। लेखक, जो कहानी का असल हीरो होता था, उसे ही कोई अहमियत नहीं दी जाती थी। हमारे आने से पहले लेखक पंडित मुखराम शर्मा हिंदी सिनेमा में कद्दावर नाम थे। उन्होंने यश चोपड़ा की बतौर निर्देशक पहली फिल्म धूल का फूल लिखी थी और उनका नाम पोस्टरों पर आता था। उन्हें जो इज्जत मिलती थी, वह लेखक को कम ही नसीब हुई है। जब जंजीर हिट हुई तो मैंने और सलीम साहब ने तय किया कि हम अपनी शर्तों पर काम करेंगे। पैसा, माहौल हम तय करेंगे। मैंने और सलीम साहब ने कई ऐसी फिल्मों के ऑफर सिर्फ इसलिए छोड़ दिए क्योंकि चीजें हमारे सिद्धांतों के खिलाफ थीं। इसका हमको आर्थिक नुकसान हुआ मगर आत्मसंतुष्टि भी हुई।
एंग्री यंग मैन किरदार को लेकर एक बात और महत्वपूर्ण है। एंग्री यंग मैन किरदार अमिताभ बच्चन ने भी निभाया और मशाल (1984), अर्जुन (1985) जैसी फिल्मों में दिलीप कुमार और सनी देओल ने भी निभाया। दोनों ही एंग्री यंग मैन किरदार मैंने ही गढ़े थे। मगर मैंने जो एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्चन की फिल्मों के लिए रचा था, वह दिलीप कुमार, सनी देओल वाली एंग्री यंग मैन फिल्मों से अलग था। दोनों में बुनियादी फर्क यह था कि अमिताभ बच्चन की एंग्री यंग मैन फिल्मों में जब अमिताभ बच्चन दर्शकों को नजर आते थे तो, वह पहले सीन से एक दमदार गुस्सैल शख्सियत के मालिक होते थे। जबकि मशाल और अर्जुन जैसी फिल्मों में एक साधारण आदमी आहिस्ता-आहिस्ता समय चक्र के उतार चढ़ाव के कारण, परिस्थितिवश एंग्री यंग मैन बनता था।
अभी कुछ साल पहले एक व्यक्ति ने हमारी इजाजत के बिना तेलुगु भाषा में जंजीर का रीमेक बनाया था। मुझे ऐसा लगता है कि मुझे और सलीम साहब को उपहार देने की यह प्रकृति की ही एक योजना थी। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि जंजीर की रिलीज के समय मुझे और सलीम साहब को कुल 51 हजार रुपये मिले थे। यही 51 हजार रुपये हम दोनों में बंट गए थे। फिल्म जंजीर सुपरहिट साबित हुई थी मगर हमारा मेहनताना कामयाबी की तुलना में कम था।
जब तेलुगु भाषा में हमारी इजाजत के बिना जंजीर का रीमेक बनाया गया तो मैं और सलीम साहब अदालत गए। अदालत ने 2 करोड़ रुपये मुझे और 2 करोड़ रुपये सलीम साहब को दिलवाए। इस तरह जंजीर की रीमेक से यदि किसी को लाभ हुआ तो सलीम-जावेद को हुआ। जैसे कि यह फिल्म सलीम-जावेद को उनका बकाया देने के लिए ही बनाई गई थी। प्रकृति की योजनाओं के आगे सब जादू जैसा ही लगता है।
(जावेद अख्तर ख्याति प्राप्त फिल्म पटकथा-संवाद लेखक और गीतकार हैं, जिन्होंने सलीम खान के साथ मिलकर जंजीर सहित ‘एंग्री यंग मैन’ के किरदार पर आधारित कई सुपरहिट फिल्मों का स्क्रिप्ट लिखा। गिरिधर झा से बातचीत पर आधारित)