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भारतीय जेंडर बजट की डिकोडिंग

भारत में महिलाओं की संख्या 48.9 प्रतिशत है जो भारत की आबादी का आधा हिस्सा है इसलिए लैंगिक समानता और...
भारतीय जेंडर बजट की डिकोडिंग

भारत में महिलाओं की संख्या 48.9 प्रतिशत है जो भारत की आबादी का आधा हिस्सा है इसलिए लैंगिक समानता और महिलाओं का सशक्तीकरण सुनिश्चित करना सरकार की प्रमुख प्रतिबद्धता होनी चाहिए। जेंडर बजट इस ओर एक सशक्त कदम है। यह सोचने की बात है कि सरकार की लैंगिक समानता के प्रति प्रतिबद्धता और उसके बजट द्वारा वित्त पोषित नीतियों और कार्यक्रमों के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर मौजूद हो सकता है।

सामान्यतः लैंगिक समानता पहलों को कभी भी लागू नहीं किया जाता क्योंकि वे सरकार की बजटीय निर्णय लेने की प्रक्रिया का हिस्सा नहीं होती हैं। इसीलिए लैंगिक बजट इस आकलन के एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में उभरा है कि सरकारी बजट ने पुरुषों और महिलाओं के बीच आर्थिक और सामाजिक समानता को बढ़ावा देने की दिशा में क्या किया है। साथ ही पिछले दो वर्षों ( 2020-21 के बाद ) कोविड-19 महामारी के विनाशकारी प्रभाव ने महिलाओं के जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित किया है। यह महिलाओं के लिए असमान तौर पर विनाशकारी रहा है, जिस कारण जेंडर बजट पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। पिछले वर्षों में खर्च करने के रुझान में विचलन इस तथ्य की पुष्टि करता है। महिलाओं के लिए आवंटन की प्रवृत्ति पर नजर डालने के लिए वर्तमान लेख में केंद्र सरकार के पिछले 17 वर्षों में आवंटन का विश्लेषण किया गया है।

इतिहास

जेंडर बजट की पहल 1980 के दशक के मध्य में हुई जब ऑस्ट्रेलियाई संघीय और राज्य सरकारों द्वारा इसे जेंडर मेनस्ट्रीमिंग रणनीति के रूप में लागू किया गया था। प्रारंभिक अभ्यासों में जेंडर बजट को 'महिला बजट' भी कहा जाता था, क्योंकि यह बजट महिलाओं और लड़कियों पर केंद्रित होता है। भारत में जेंडर बजटिंग की प्रक्रिया 2005-06 से शुरू हुई और इस बार देश अपना 18 वां जेंडर बजट पेश करेगा।

जेंडर बजट क्या है ?

जेंडर रेस्पोसिव बजट महिलाओं के मामलों के लिए समर्पित कार्यक्रमों के लिए धन का आवंटन नहीं करता है, बल्कि यह बजट के लिए एक दृष्टिकोण है जो पुरुषों और महिलाओं पर बजट के विभेदित प्रभाव को पहचानता है और बजट तैयार करने के लिए नीति, दिशा -निर्देशों और उपकरणों का उपयोग करता है। साथ ही यह लैंगिक असमानता को कम करने के साथ महिलाओं की जरूरतों के प्रति अधिक संवेदनशील बजटिंग प्रक्रिया है जेंडर बजट में दो भाग होते हैं- भाग- ए यानी 100 प्रतिशत महिला विशिष्ट कार्यक्रमों के लिए खर्च और भाग- बी यानी, उन कार्यक्रमों पर खर्च जहां कम से कम 30 से 99 प्रतिशत महिलाओं के लिए है।

जेंडर बजट के तहत आवंटन का रुझान

जेंडर बजट को डिकोड करते समय यह देखा गया है कि इन 17 वर्षों में बजट का कुल आवंटन 10.7 गुना बढ़ गया है। बजट अनुमान के आकड़ों के अनुसार, जेंडर बजट का आवंटन निरपेक्ष रूप में, 2005-06 में 14,379 करोड़  से बढ़कर 2021-22 में 1,53,326 करोड़ रुपये हो गया है जो कि 13.1 प्रतिशत की वृद्धि दर को दर्शाता है। 2005-06 में महिलाओं की हिस्सेदारी कुल बजट में सिर्फ 28 प्रतिशत थी जो इन 17 वर्षों में बढ़ी तो है, परन्तु लगभग 5 प्रतिशत के आसपास आकर स्थिर हो गई है। वित्तीय वर्ष 2021-22 में जेंडर बजट का हिस्सा कुल बजट का केवल 4.4 प्रतिशत था। अतः महामारी के बाद की स्थिति में भी महिलाओं के लिए खर्च समान ही रहा उसमें कोई बढ़त दर्ज नहीं हुई। इसी तरह इन 17 वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद में महिलाओं की हिस्सेदारी 1 प्रतिशत से अधिक नहीं हुई ।

वर्तमान अर्थव्यवस्था में महिलाओं के परिदृश्य

लैंगिक अंतर को पाटने के लिए बजटीय प्रावधान बहुत महत्वपूर्ण है, खासकर कोविड काल के दौरान जब महिलाओं को मुख्य रूप से नौकरी छूटने का सामना करना पड़ा। डिजिटल उपकरणों तक पहुंच में लिंग अंतर, लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा के मामलों में वृद्धि, आंगनवाड़ी केंद्रों के बंद होने के कारण प्रजनन और मातृ स्वास्थ्य सेवाओं में व्यवधान आदि में वृद्धि तथा लड़कियों की ड्रॉपआउट दर में वृद्धि, यह दर्शाता है कि महिलाएं कोविड के दौरान अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुई हैं।

महिला श्रम बल की भागीदारी 2019-20 में 22.8 प्रतिशत है, जो चिंता का विषय है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के आंकड़ों के अनुसार, 2018-19 में 15 साल या उससे अधिक की शहरी महिलाओं में से केवल 8.4 प्रतिशत को ही रोजगार मिला था। यह 2019-20 में गिरकर 7.3 प्रतिशत हो गया और फरवरी 2021 में शहरी महिला रोजगार दर 5.4 प्रतिशत तक पहुंच गई। यह लगभग वैसा ही है जैसा अप्रैल 2020 में था। इसके अलावा लैंगिक डिजिटल विभाजन ने महिलाओं की ऑनलाइन शिक्षा, स्वास्थ्य और काम के अवसरों तक पहुंच को प्रतिबंधित कर दिया। स्टेट ऑफ मोबाइल इंटरनेट कनेक्टिविटी 2020 रिपोर्ट के अनुसार 42 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में केवल 21 प्रतिशत भारतीय महिलाएं मोबाइल इंटरनेट का उपयोग करती हैं। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम द्वारा ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 के अनुसार 156 देशों में भारत 28 पायदान नीचे 140 वें स्थान पर आ गया है। वहीं , 2020 में भारत 153 देशों में 112 वें स्थान पर था। इस प्रकार जेंडर बजट दृष्टिकोण पर फिर से सोचने की आवश्यकता है।

जेंडर बजट आवंटन पर पुनर्विचार

जेंडर बजट सशक्तीकरण का एक महत्वपूर्ण साधन है इसलिए पहला कदम आवश्यकता आधारित दृष्टिकोण होना चाहिए। प्राथमिकता वाले क्षेत्र जहां लैंगिक असमानताएं सबसे गंभीर हैं, उन्हें व्यय के लिए पहचाना जाना चाहिए। साथ ही बजट को परिणामों से जोड़ा जाना चाहिए। लेखा परीक्षा नियमित निगरानी जैसी उचित जवाबदेही प्रणाली विकसित की जानी चाहिए। साथ ही योजनाओं को फिर से देखा जाना चाहिए, उदाहरण के लिए ग्रामीण आवास ( प्रधानमंत्री आवास योजना ) एकीकृत आपातकालीन प्रतिक्रिया प्रबंधन प्रणाली आदि जैसी योजनाएं जो महिलाओं के लिए 100 प्रतिशत के तहत आती हैं। इनमें स्पष्टता की आवश्यकता है क्योंकि वे पूरी तरह से महिलाओं के लिए लक्षित नहीं हैं। यहां लाभार्थी पुरुष और महिला दोनों हैं इसके अलावा, अवैतनिक देखभाल गतिविधियां जो ज्यादातर महिलाओं द्वारा परिवार के स्तर पर की जाती हैं, उन्हें अर्थव्यवस्था में प्रदर्शन मानदंड के अनुसार प्रस्तुत करना जेंडर बजट की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया होनी चाहिए।

अंत में कमियों के बावजूद नीति निर्माताओं के लिए यह एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। एक प्रदर्शन-उन्मुख बजट ढांचा जेंडर बजट पहल के लिए चुनौतियां और अवसर दोनों प्रदान करता है। सरकार के कुल खर्च का कितना हिस्सा महिलाओं पर खर्च हो रहा है, इस बुनियादी सवाल का जवाब देने के लिए यह एक संस्थागत तरीका है। महिलाओं की जरूरतों के अनुसार समय- समय पर बदलाव कर यह दस्तावेज लिंग अंतर को पाटने के लिए सरकार की एक महत्वपूर्ण उपाय हो सकती है। परिव्यय की निगरानी में सुधार करने के लिए जेंडर बजट को परिणाम बजट में एकीकृत किया जाना चाहिए और प्रत्येक मंत्रालय/ विभाग द्वारा तैयार किए गए रोडमैप पर आधारित होना चाहिए जिसमें स्पष्ट रूप से दिखाया गया हो कि ये लैंगिक जरूरतों को पूरा करने की योजना कैसे बनाते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लैंगिक बजट के माध्यम से प्रदान किए गए महिला केंद्रित कार्यक्रमों के लिए निरंतर वित्तपोषण के साथ महिलाओं को कोविड -19 से उबारने वाली योजनाओं में महत्वपूर्ण स्थान दिया जाना चाहिए।

(लेखिका सेंटर फॉर इकोनॉमिक पॉलिसी एंड पब्लिक फाइनांस, आद्री, पटना में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। यहां व्यक्त विचार निजी हैं।)

 

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