जाने-माने भारतीय-अमेरिकी अर्थशास्त्री अरविंद पनगढ़िया ने नीति आयोग के उपाध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया है। कहा जा रहा है कि वह अकादमिक क्षेत्र में वापस लौटेंगे। देश के प्रमुख नीति निर्माता थिंक टैंक से पनगढ़िया के इस्तीफे का शायद ही किसी को अनुमान रहा हो। इससे पहले भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने भी कार्यकाल विस्तार के बजाय अकादमिक क्षेत्र में लौटने का फैसला किया था।
समाचार एजेंसी पीटीआई के अनुसार, पनगढ़िया 31 अगस्त तक ही नीति आयोग में अपनी सेवाएं देंगे। अपने फैसले की जानकारी उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दे दी है। प्रधानमंत्री ही नीति आयोग के अध्यक्ष होते हैं। लेकिन पनगढ़िया के इस्तीफे पर फिलहाल पीएमओ की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है।
आज पत्रकारों से बात करते हुए अरविंद पनगढ़िया ने बताया कि उन्हें कोलंबिया यूनिवर्सिटी से अवकाश विस्तार नहीं मिल पा रहा है, इसलिए वह आगामी 31 अगस्त को नीति आयोग छोड़ रहे हैं। करीब दो महीने पहले उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उन्हें कार्यमुक्त करने की गुजारिश की थी।
64 वर्षीय अरविंद पनगढ़िया अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं। बताया जा रहा है कि वहां उनकी छुट्टियां 5 सितंबर को खत्म हो रही हैं और अब वह शिक्षा के क्षेत्र में लौटना चाहते हैं। बतौर अर्थशास्त्री पनगढ़िया वर्ल्ड बैंक, एडीबी और आईएमएफ जैसी संस्थाओं में उच्च पदों पर रह चुके हैं। साल 2012 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से नवाजा था। वे विकास के गुजरात मॉडल और मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी की आर्थिक नीतियों के समर्थक रहे हैं। 2014 के आम चुनाव से पहले पनगढ़िया ने गुजरात मॉडल के बारे में काफी लिखा भी था। उन्हें उदारवादी आर्थिक नीतियों का पैरोकार माना जाता है। इसलिए नीति आयोग से उनके इस्तीफे से केंद्र सरकार के आर्थिक एजेंडे को झटका लग सकता है।
भारी बहुमत से सत्ता में आने के बाद पीएम मोदी की सरकार ने नेहरू युग के योजना आयोग को खत्म कर नीति आयोग का गठन किया था। 5 जनवरी, 2015 को अरविंद पनगढ़िया को इसका पहला उपाध्यक्ष बनाया गया। अपने ढाई साल के कार्यकाल में उन्होंने पंचवर्षीय योजनाओंं के स्थान पर नीति आयोग के 'विजन डॉक्यूमेंट' बनाने और देश में नीति-निर्माण की नई परिपाटी तैयार करने में अहम भूमिका निभाई।
सूत्रों के मुताबिक, नीति आयोग उपाध्यक्ष सरकार की आर्थिक उदारीकरण की स्लो स्पीड और कड़े सुधारवादी फैसलों में देरी को लेकर बहुत सहज नहीं थे। भले ही उन्होंने सार्वजनिक मंच पर सरकार की नीतियों पर कोई टिप्पणी नहीं की हो लेकिन अपने सहयोगियों के बीच वह संकेत दे चुके थे कि अगर इसी तरह की स्थिति रहती है तो व आयोग को छोड़कर जा सकते हैं। खासतौर से मीट उद्योग और स्लॉटर के लिए पशुओं की बिक्री पर लगाये गये प्रतिबंध जैसे मुद्दों का आर्थिक गतिविधियों पर प्रतिकूल असर जैसे मामले बढ़ने और कृषि क्षेत्र में सुधारों की धीमी गति जैसे मुद्दों पर उन्होंने इस तरह की बातें की। लगता है कि उनकी इस तरह की धारणा ही उनके इस्तीफा देने की वजह रही है।