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जयंती विशेष : दादा साहब फाल्के - भारतीय सिनेमा में अमूल्य योगदान देने वाले, भारतीय सिनेमा के पितामह

दादा साहब फाल्के ने फिल्मों के निर्माण-निर्देशन, पटकथा-लेखन के द्वारा भारतीय सिनेमा में अमूल्य योगदान...
जयंती विशेष : दादा साहब फाल्के - भारतीय सिनेमा में अमूल्य योगदान देने वाले, भारतीय सिनेमा के पितामह

दादा साहब फाल्के ने फिल्मों के निर्माण-निर्देशन, पटकथा-लेखन के द्वारा भारतीय सिनेमा में अमूल्य योगदान दिया, इसीलिए वे भारतीय सिनेमा के पितामह माने जाते हैं। भारत सरकार ने ‘दादा साहब’ की स्मृति में, १९६९ में उनकी सौवीं जयंती के अवसर पर, ‘फाल्के शताब्दी वर्ष’ में ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ की स्थापना की। ‘दादा साहब फाल्के’ द्वारा सिनेमा में अभूतपूर्व योगदान देने के सम्मान स्वरूप, चलचित्र-जगत के विशिष्ट व्यक्ति को प्रतिवर्ष ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ प्रदान करना आरंभ किया। राष्ट्रीय स्तर का ये सर्वोच्च सिने पुरस्कार, सिनेमा में आजीवन उल्लेखनीय योगदान के लिए प्रतिवर्ष सिनेमा के सर्वथा योग्य व्यक्तित्व को प्रदान किया जाता है। 

 

 

 

दादा साहब फाल्के का नाम ‘धुंडीराज गोविंद फाल्के’ था। उनका जन्म ३० अप्रैल, १८७० को नासिक से थोड़ी दूर, भोलेनाथ की नगरी ‘त्र्यंबकेश्वर’ के मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता संस्कृत के प्रकांड पंडित और बंबई के ‘एलफिंस्टन कॉलेज’ में अध्यापक थे अतः उनकी शिक्षा वहीं हुई। ‘हाई स्कूल’ के बाद ‘जे.जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट’ में कला की शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात उन्होंने बड़ौदा के कलाभवन में मूर्तिकला, इंजीनियरिंग, चित्रकला, पेंटिंग और फोटोग्राफी की शिक्षा लेकर अपना कलात्मक ज्ञान परिष्कृत किया। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग में कुछ समय काम करके उन्होंने प्रिटिंग प्रेस खोला, नई मशीनें खरीदने हेतु जर्मनी गए, फिर ‘मासिक पत्रिका’ प्रकाशित की। 

 

 

 

उन्होंने २५ दिसंबर, १९१० को बंबई में ‘अमेरिका-इंडिया थिएटर’ में विदेशी मूक चलचित्र ‘लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ देखा। चलचित्र देखते समय उनको ईसा मसीह के स्थान पर कृष्ण, राम, समर्थ गुरु रामदास, शिवाजी, संत तुकाराम आदि महान विभूतियां दिखाई देने लगीं। उन्होंने विचार किया कि महान भारतीय विभूतियों के जीवन चरित्र को चित्रित करने का ‘चलचित्र’ बेहतरीन माध्यम है। वो प्रेरणास्पद चलचित्र देखकर उनके जीवन में महत्वपूर्ण रचनात्मक मोड़ आया। उन्होंने चलचित्र निर्माण का निश्चय किया जिसके लिए निरंतर फिल्में देखीं, पत्रिकाओं का अध्ययन किया, कैमरे से चित्र खींचने शुरु किए और शोध करके अधिकाधिक जानकारी हासिल करने लगे पर आराम ना करने से उनका स्वास्थ्य प्रभावित हुआ। उन्होंने बीमारी के दौरान भी प्रयोगधर्मिता के तौर पर ‘मटर के पौधे के विकास’ कालक्रम का छायांकन कर फिल्म बनाई। कालांतर में यही अनुभव फिल्म निर्माण में काम आए। उस समय फिल्में मूलत: विदेशी उपक्रम थीं और उन्हें बनाने की तकनीकें भारत में उपलब्ध ना होने से आरंभ में उन्हें बहुत कठिनाइयां आईं। 

 

 

 

दादा साहब आरंभिक प्रयोगों के बाद, धनराशि जुटाकर चलचित्र-निर्माण संबंधी उपकरण खरीदने लंदन गए। वहां उनकी मुलाकात जाने-माने निर्माता और ‘बाईस्कोप’ पत्रिका के संपादक सेसिल हेपवर्थ से हुई। माना जाता है कि फाल्के साहब को फिल्म सामग्री खरीदवाने में उन्हींने मदद की। दादा साहब ने वहां दो महीने रहकर सिनेमा की तकनीक समझी और उपकरणों के साथ १९१२ के अप्रैल में बंबई लौट आए। उन्होंने १९१२ में ‘दादर’ में स्टूडियो बनाकर ‘फाल्के फिल्म’ नामक फिल्म कंपनी स्थापित की। आठ माह के कठिन परिश्रम के पश्चात उन्होंने पहली मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ का निर्माण किया। दादा साहब ही इस चलचित्र के निर्माता, लेखक, कैमरामैन थे। दादा साहब ने नायक हरिश्चंद्र का रोल निभाया और उनके सात वर्षीय पुत्र भालचंद्र फालके ने राजकुमार रोहिताश्व की भूमिका निभाई।  

 

 

 

‘राजा हरिश्चंद्र’ फिल्म की नायिका ‘रानी तारामती’ के लिए अभिनेत्री ढूंढना गंभीर समस्या थी क्योंकि उस दौर में नाटकों या फिल्मों में काम करने को स्त्रियां तैयार नहीं होती थीं। दादा साहब चाहते थे कि ‘रानी तारामती’ की भूमिका कोई युवती करे। उन्होंने नाटक मंडली की अभिनेत्रियों से बात की, हीरोइन की खोज के लिए इश्तेहार बंटवाए लेकिन लाभ नहीं हुआ क्योंकि कैमरे के सामने आने के लिए कोई महिला तैयार नहीं हुई। दादा साहब ने विवश होकर पुरुष से तारामती की भूमिका कराने का निर्णय लिया और महिलाओं जैसे कमनीय दिखने वाले कलाकार की खोज शुरू हुई। उन्होंने ईरानी रेस्तरां के एक रसोइए से चर्चा की जो रानी का अभिनय करने के लिए तैयार हो गया। शूटिंग के पहले दादा साहब ने रसोइए से कहा कि, ‘कल से शूटिंग करेंगे इसलिए तुम अपनी मूंछें साफ करके आना।’ दादा साहब की बात सुनकर रसोइया चौंककर बोला कि, ‘मैं मूंछ कैसे साफ कर सकता हूं, मूंछें तो मर्द की शान होती हैं।’ दादा साहब ने रसोइए को समझाया कि, ‘रानी तारामती नारी हैं अतः मूंछ वाली नहीं हो सकती हैं। शूटिंग समाप्त होते ही तुम फिर मूंछ रख लेना।’ बहुत समझाने पर रसोइए ने मूंछ साफ कराईं। रसोइया ‘सालुंके’, भारत की पहली फीचर फिल्म में ‘रानी तारामती’ का रोल निभाकर पहली हीरोइन बना।

 

 

 

दादा साहब ने ३ मई, १९१३ को बंबई के ‘कोरोनेशन थिएटर’ में स्वनिर्मित पहली मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ दर्शकों को दिखाई। इस मूक फिल्म में लाइट, कैमरा और एक्शन के कमाल के कारण दर्शकों को आवाज़ की कमी नहीं खली। ‘राजा हरिश्चंद्र’ की सफलता के बाद दादा साहब नासिक चले गए और बंबई के बजाए नासिक में फिल्म निर्माण करने लगे । वहां उन्होंने ‘मोहनी भस्मासुर’ और ‘सावित्री-सत्यवान’ का निर्माण किया। ‘मोहनी भस्मासुर’ में पहली बार महिला कलाकार ‘दुर्गा गोखले’ और ‘कमला गोखले’ ने महिला पात्रों का अभिनय किया। दादा साहब १९१७ तक २३ फिल्में बना चुके थे और उन्होंने २० वर्षों में कुल ९५ फीचर फिल्में और २६ लघु फिल्में बनाईं। 

 

 

 

फिल्मी उपकरणों के लिए बेहद सजग दादा साहब १९१४ में फिर लंदन गए। वहां से लौटने पर कुछ व्यवसायी उनकी सफलता से प्रभावित होकर फिल्म उद्योग की ओर आकृष्ट हुए और दादा साहब द्वारा १९१७ में नासिक में, उनके साथ साझेदारी में ‘हिंदुस्तान सिनेमा कंपनी’ की स्थापना हुई। इस कंपनी को स्थापित करने के बाद उन्होंने १२५ फिल्मों का निर्माण किया जिनमें तीन-चौथाई का लेखन-निर्देशन उन्होंने किया। उस समय आवाज़ डब करने का शुरुआती दौर था अतः १९३२ में बनी उनकी अंतिम मूक फिल्म ‘सेतुबंधन’ को बाद में डब करके आवाज़ दी गई। दादा साहब द्वारा निर्मित एकमात्र बोलती फिल्म ‘गंगावतरण’ थी। 

 

 

 

फिल्में हिट होने से दादा साहब को मिली लोकप्रियता के परिणामस्वरूप हर फिल्म के २० प्रिंट बनाए जाने लगे जो तत्कालीन परिस्थितियों में बड़ी उपलब्धि थी। इन फिल्मों में कुशल तकनीक के तौर पर विशेष प्रभाव (स्पेशल इफेक्ट) का रचनात्मक प्रयोग किया गया। क्रांतिकारी पहल ‘विशेष प्रभाव’ और ‘ट्रिक फोटोग्राफी’ के प्रयोग से दर्शक आकर्षित हुए। अपनी स्मरणीय फिल्मी यात्रा के २५ वर्षों में दादा साहब ने १९१३ में ‘राजा हरिश्चंद्र’, १९१४ में ‘सत्यवान सावित्री’, १९१७ में ‘लंका दहन’, १९१८ में ‘श्री कृष्ण जन्म’, १९१९ में ‘कालिया मर्दन’, १९२० में ‘कंस वध’, और ‘शकुंतला’, १९२१ में ‘संत तुकाराम’ और १९२३ में ‘भक्त गोरा’ समेत १०० से अधिक फिल्में बनाईं। फिल्म निर्माण में दृश्य निर्माण की सुलझी हुई संवेदना और प्रशंसनीय तकनीकी ज्ञान में जॉर्ज मेलिस का स्पष्ट प्रभाव, दादा साहब के फिल्म निर्माण में अत्यंत सहायक हुआ।

 

 

 

‘दादा साहब फाल्के’ को गूगल ने उनकी १४८ वीं जयंती पर ३० अप्रैल, २०१८ को डूडल के जरिए याद किया। आज के डिजिटल दौर में फिल्मों के नेगेटिव की रील्स चलन में नहीं हैं पर दादा साहब की स्मृति में गूगल द्वारा बनाए डूडल में उनको युवावस्था में श्वेत-श्याम फिल्म के नेगेटिव की रील हाथ में लिए दिखाया गया था। गूगल के अनुसार, आज का डूडल दर्शाता है कि युवा दादा साहब भारतीय सिनेमा के इतिहास में पहले दौर के कुछ रत्नों को निर्देश दे रहे हैं। गूगल के अनुसार, विद्वान पिता के सुयोग्य पुत्र दादा साहब फाल्के को कला, फोटोग्राफी, लिथोग्राफी, आर्किटेक्चर, इंजीनियरिंग और जादूगरी आदि विविध विषयों के अध्ययन में गहरी अभिरुचि थी।

 

 

 

१९३८ में भारतीय सिनेमा की रजत जयंती पूर्ण होने पर चंदुलाल शाह और सत्यमूर्ति की अध्यक्षता में समारोह आयोजित हुआ। इसमें ‘दादा साहब फाल्के’ बुलाए गए किंतु उन्हें विशेष प्राप्ति नहीं हुई। समारोह में उपस्थित ‘प्रभात फिल्म्स’ के वी. शांताराम ने दादा साहब की आर्थिक सहायता करने के लिए पहल की। वहां उपस्थित निर्माताओं, निर्देशकों और फिल्म वितरकों से धनराशि इकट्ठी करके दादा साहब को भेजी गई। इस राशि से नासिक में उनके लिए घर का निर्माण हुआ जहां उन्होंने जीवन के अंतिम दिन बिताए। भारत को सिनेमा की भेंट देने के फलस्वरूप भारतीय सिनेमा के पितामह कहे जाने वाले दादा साहब फाल्के का १६ फरवरी, १९४४ को नासिक में देहावसान हुआ।

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