पहले बाद शिवाय की। अजय देवगन रोहित शेट्टी बनने के चक्कर में बुरी तरह पिटे हैं। औसत से भी कम शिवाय को देख कर बाहर निकलने पर लगता है आखिर अजय जैसे अच्छे कलाकार इतनी कमजोर कहानी पर काम कैसे कर पाए। जबकि वह खुद निर्देशक हैं। इससे बेहतर काम कर सकते थे। शिवाय में एक भी संवाद, एक भी सीन या एक भी गाना बाहर तक साथ नहीं आता। फिल्म लंबी होने के कारण ऊब अलग पैदा करती है। बर्फीले पहाड़ों के दृश्य भी दर्शकों को बांध नहीं पाते। रोहित शेट्टी ने बल्गारिया में दिलवाले की शूटिंग की थी। अजय लगभग उसी शैली की नकल करते लगते हैं। बल्गारिया में भारतीय दूतावास में सौरभ शुक्ला जैसे जोकरनुमा अफसर को दिखाने के पीछे भी उनका क्या तुक था समझ से परे है। सायशा सहगल, वीर दास, गिरीश कर्नाड को आखिर फिल्म में क्यों लिया गया था यह तो अजय देवगन ही बता पाएंगे। कहानी के नाम पर एक विदेशी लड़की से प्यार, उससे एक बच्ची और बच्ची को मां से मिलवाने की जद्दोहद में उन्होंने चाइल्ड ट्रैफिकिंग, फ्लैश ट्रैडिंग जैसे गंभीर विषय को भी चलताऊ ढंग से दिखा दिया है। पूरी फिल्म में वह खुद के सम्मोहन से मुक्त नहीं हो पाए हैं। ओम नमः शिवाय के जाप के साथ यदि देख पाएं तो शिवाय देखने जरूर जाएं।
ए दिल है मुश्किल फिल्म की सबसे बड़ी मुश्किल ही यह है कि निर्देशक करण जौहर को पता ही नहीं था कि वह दिखाना क्या चाहते हैं। एक उलझी हुई कहानी और कुछ पुरानी और कुछ अपनी फिल्मों की खिचड़ी दर्शकों के सामने परोस दी है। अनुष्का शर्मा, ऐश्वर्या राय बच्चन, रणबीर कपूर, फवाद खान लगता है छुट्टियां बिताने के मूड में थे, जो उन्होंने एक्टिंग करने के बारे में सोचा ही नहीं। इस फिल्म में आखरी तक समझ नहीं आता कि कौन किस से प्रेम करता है। यदि शिवसेना बवाल न मचाती तो भी यह फिल्म चलने वाली नहीं थी। बवाल से अब कुछ दर्शक तो थिएटर पहुंचेंगे ही। शाहरूख खान बीच में आकर तीन-चार मिनट अपनी स्टाइल में बेकार से संवाद बोलते हैं और बस खत्म। जब करण जौहर को कुछ नहीं सूझता तो वह अनुष्का को कैंसर से बीमार कर देते हैं।