अगर इस फिल्म के टीवी पर दिखाए जाने वाले ट्रेलरों ने उत्सुकता जगा दी है, तो थोड़ी उत्सकुता कम कर लीजिए। अगर आप चाहें और थिएटरों में ऐसी कोई स्कीम हो तो इसे मध्यांतर के बाद देखें। यह चेतावनी नहीं सलाह है। खैर। निर्देशक निशिकांत कामत की कोशिश अच्छी है इसमें कोई शक नहीं। उन्होंने अपनी तरफ से रहस्य-रोमांच रचने की ईमानदार कोशिश की है।
फिल्मों का दीवाना, अनाथ, चौथी फेल विजय सालगांवकर (अजय देवगन) गोवा के छोटे से गांव पेंडोलिम में अपनी पत्नी नंदिता (श्रेया सरन) और दो बेटियों के साथ सुकून से रह रहा है। जब तक की आईजी मीरा देशमुख (तब्बू) का बेटा समीर देशमुख उर्फ सैम (ऋषभ चड्डा) विजय की बड़ी बेटी (इशिता चड्डा) के जीवन में तूफान नहीं ला देता। एक अच्छे पिता के कर्तव्य को निभाते हुए विजय अपने परिवार को बचाने की पूरी कोशिश करता है। इस कोशिश में विजय जो दृश्य रचता है, भ्रम की जो स्थिति पैदा कर देता है, वही है दृश्यम। यानी जो दिखेगा वह लंबे वक्त तक याद रहेगा।
पुलिस वाले के लड़के को नुकसान पहुंचाना वह भी आईजी रैंक के अपने आप में ही चुनौतीपूर्ण है। अजय देवगन ने यह किरदार बखूबी निभाया है। वह शातिर नहीं मगर बातें समझने और परिस्थितियों से बचने और बचाने के खेल को अंत तक निभा ले गए हैं। श्रेया सरन की जगह किसी और कलाकार को लिया जाता तो बेहतर हो सकता था।
मध्यांतर के पहले कहानी बहुत बोझिल तरीके से रेंगती है। कलाकारों और घटनाओं को स्थापित करने में निर्देशक ने बहुत वक्त जाया किया है। लेकिन मध्यांतर के बाद फिल्म दौड़ती है और फिर लगता है कि वाकई यह कोई रोमांचक फिल्म चल रही है।
तब्बू के हिस्से में जितना काम आया उन्होंने अच्छे से किया है। गायतोंडे नाम के पुलिसवाले ने भी रंग जमाया है। गाने भी अच्छे बन पड़े हैं। फिल्म की लंबाई थोड़ी कम की जाती तो बेहतर तरीके से कसावट आ सकती थी।