इस फिल्म की एक ही खास बात है कि निर्देशक अभिषेक चौबे ने अपने अंदर निर्माता अनुराग कश्यप की आत्मा को नहीं आने दिया है। पंजाब में नशे की लत, युवाओं की एक पूरी पीढ़ी को खत्म करने के लिए जिम्मेदार है। कश्यप ने इस फिल्म में हर संवाद या कहें गालियों में संवाद रख कर साबित करना चाहा है कि नशा करेंगे तो गाली तो बकना ही पड़ेगा। पता नहीं निर्देशक की इसमें कितनी सहमति थी।
एक रैप गायक टामी उर्फ गबरू (शाहिद कपूर) पैसे के नशे में नशा करता है, विकट परिस्थिति में बिहार से पंजाब के एक गांव आ गई एक लड़की (आलिया भट्ट) मजबूरी में नशेड़ी है, एक इंस्पेक्टर (दलबीर देशांत) जो नशे के सौदागरों के साथ है और एक एनजीओ टाइप डॉक्टर (करीना कपूर) इस फिल्म को आगे बढ़ाते हैं।
कहानी कहीं भी ऐसा कोई संदेश नहीं देती न मैक्सिको बनने की राह में पंजाब की त्रासदी को व्यक्त करती है। पहले भी ऐसी कई फिल्में बनी हैं, जिसमें सरकार-अपराधी गठबंधन को दिखाया गया है। बिलकुल सपाट कहानी जिसमें अंतरात्मा बड़ी जल्दी जागती है। चाहे वह इंसपेक्टर की हो या फिर रैप गायक टामी की।
अगर निर्देशक ऐसे लोगों से मिलते जो सालों से हेरोईन का नशा कर रहे हैं तो उन्हें पता चलता कि शरीर इतना खोखला हो जाता है कि हीरेगिरी दिखाना कठिन होता है।
खैर जब निर्देशक को कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने धड़ाधड़ लोगों को मरवा दिया। फिल्म खत्म करने का यही सबसे अच्छा तरीका है। आलिया ने बिना मेकअप काम किया, लगता है उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार की लगन लग गई है। करीना, दलबीर का अभिनय ठीक है। चौबे साहब अगली बार किसी वास्तविक विषय पर फिल्म बनाएं तो याद रखिएगा सिर्फ वास्तविक गालियां रखने से काम नहीं चलता।