हिन्दी सिनेमा की क्लासिक कॉमेडी फिल्म "जाने भी दो यारों" 12 अगस्त सन 1983 को सिनेमाघरों में रिलीज हुई थी।
कुंदन शाह ने छोड़ी गांधी और एक लाख बीस हजार रुपए
कुंदन शाह को रिचर्ड अटेनबेरो की फिल्म "गांधी" में बतौर असिस्टेंट काम मिल रहा था। उन्हें इसके लिए 6 महीने के 1 लाख बीस हजार रुपए मिलने वाले थे। लेकिन कुंदन शाह के भीतर अपनी फिल्म बनाने का जुनून था। कुंदन शाह ने अपने मन की बात सईद अख़्तर मिर्ज़ा को बताई। सईद अख़्तर मिर्ज़ा और कुंदन शाह ने सईद की फिल्म "अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है" में एकसाथ काम किया था। सईद ने कुंदन से अपनी फिल्म बनाने का सुझाव दिया। तब कुंदन शाह ने फिल्म की कहानी लिखनी शुरु की। फिल्म की कहानी कुंदन शाह और सतीश कौशिक ने मिलकर लिखी। यह फिल्म तकरीबन 7 लाख रुपए में बनी और इस फिल्म के लिए कुंदन शाह ने 15 हजार रूपए फीस ली।
लॉजिक किनारे रखकर मैजिक क्रिएट किया
फिल्म "जाने भी दो यारों" को क्लासिक का दर्जा दिया जाता है। फिल्म निर्माण के दौरान और रिलीज के बाद कई लोगों का कहना था कि फिल्म में बिना सिर पैर की कॉमेडी है। सीन्स में लॉजिक नहीं है। मगर कुंदन शाह को अपनी फिल्म पर यकीन था। यह यकीन कामयाब रहा और इन्हीं लॉजिक विहीन दृश्यों ने दर्शकों को खूब हंसाया। कुंदन शाह कहते हैं कि अगर वह दिमाग लगाते तो कभी भी फिल्म का आइकॉनिक महाभारत दृश्य फिल्म में नहीं होता।अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कुंदन शाह कहते हैं कि मैं इस फिल्म को बनाते हुए बिल्कुल अनजान और अजनबी था। इसलिए मैं यह बना पाया।मैंने इस फिल्म के बाद दिमाग लगाया लेकिन कभी इतनी कामयाब कृति नहीं बना सका।
सारे प्रतिभावान संघर्षरत अभिनेता साथ आए
इस फिल्म में नसीरुद्दीन शाह, सतीश कौशिक, सतीश शाह, ओम पुरी, रवि बासवानी, पंकज कपूर जैसे धुरंधर कलाकार थे। लेकिन उस दौर में अमिताभ बच्चन, जीतेंद्र, धर्मेंद्र, शत्रुघ्न सिन्हा को ही निर्माता पैसे देते थे। अन्य कलाकार आर्ट फ़िल्मों तक सीमित थे, जिनके तारीफ तो मिलती मगर दौलत नहीं मिलती। अक्सर कलात्मक फिल्मों को अधिक ऑडियंस भी नहीं मिलती थी। यही कारण था कि कम बजट, नए निर्देशक के बावजूद इतने बड़े कलाकार एक साथ आकर काम करने को तैयार हो गए। सबकी कोशिश थी कि अपना सर्वश्रेष्ठ देकर एक शानदार कृति का निर्माण हो। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम ने फिल्म को स्पॉन्सर किया और फिल्म बनकर तैयार हुई। यह शायद पहली फिल्म थी, जिसने एनएफडीसी से पैसा लेकर मुनाफे कमाया।
नसीरुद्दीन शाह को आया गुस्सा
जिन लोगों को फिल्म में लॉजिक की कमी खली, उनमें नसीरुद्दीन शाह अव्वल स्थान पर थे। वह कई बार गुस्से से लाल हो जाते थे। उन्हें फिल्म में कोई सिरा समझ नहीं आता। स्थिति इतनी खराब हो जाती कि नसीर दीवार से माथा पीटने लगते। नसीरुद्दीन शाह उस समय पैरलल सिनेमा के महत्वपूर्ण स्तंभ बन गए थे। कलात्मक फिल्मों से उनकी विशेष छवि हिन्दी सिनेमा में बन गई थी। लेकिन इसके बावजूद उनमें समाज में फैली असमानता, गरीबी, भ्रष्टाचार के कारण एक गुस्सा था। नसीरुद्दीन शाह मानते हैं कि जाने भी दो यारों ने उनके भीतर के गुस्से, असंतोष को बाहर निकलने की मदद की।
अनुपम खेर की पहली फिल्म थी
जाने भी दो यारों अभिनेता अनुपम खेर की पहली फिल्म थी। फिल्म में उन्होंने डिस्को किलर की भूमिका निभाई थी।। एडिट के बाद भी उनका दस मिनट का सीन फिल्म था। लेकिन फिल्म इतनी ज्यादा शूट हो गई थी कि फिल्म की लंबाई कम नहीं करने की सूरत में फिल्म बोरिंग हो जाती और फ्लॉप हो जाती। इस कारण फिल्म की लंबाई को घटाया गया और नतीजा यह हुआ कि अनुपम खेर के दृश्य काट दिए गए। इस कारण फिल्म का हिस्सा होने और शूट करने के बावजूद अनुपम खेर फिल्म में नजर नहीं आए। बाद में अनुपम खेर ने महेश भट्ट की फ़िल्म "सारांश" से डेब्यू किया और अपनी दमदार प्रतिभा से पहचान बनाई।