कुछ दिनों पहले किसी ओ टी टी प्लेटफार्म पर एक डाक्यूमेंट्री देखने का मौका मिला - नाम था कन्हैयालाल। मेहबूब खान की क्लासिक मदर इंडिया के साहुकार सुखीलाला के किरदार को अमर करने वाले कन्हैयालाल चतुर्वेदी के जीवन पर आधारित इस डाक्यूमेंट्री को देख कर ख़ुशी भी हुई और थोड़ा ताज्जुब भी हुआ। बहुत कम देखने में आया है की एक मुख्य धारा के अभिनेता, अभिनेत्री या फिल्म निर्माता - निर्देशक को छोड़कर एक चरित्र अभिनेता पे कोई डाक्यूमेंट्री बनायी गयी हो। उस लिहाज़ से पवन कुमार की यह डाक्यूमेंट्री काबिल-ए -तारीफ है। एक तरह से देखा जाए तो यह डाक्यूमेंट्री सिर्फ कन्हैयालाल की ही नहीं बल्कि चरित्र अभिनेताओं की भी कहानी है।
हिंदी सिनेमा का ज़िक्र होते ही दिलीप कुमार, मधुबाला, अमिताभ बच्चन, रेखा, शाहरुख़ और माधुरी जैसे महानायकों और महनायिकाओं की तसवीरें आँखों के सामने उजागर होती हैं। मगर इस इमारत को खड़ा करने में नायकों के साथ साथ कन्हैयालाल और मोतीलाल जैसे चरित्र कलाकारों का भी बड़ा योगदान रहा है। मगर इन का नाम इस कहानी के हाशियों पर सिमट कर रह गया है। कभी-कभी हम यह भूल भी जाते हैं, कि किसी ज़माने में सोहराब मोदी जैसे करैक्टर आर्टिस्ट का सिक्का भी बॉक्स ऑफिस पर कुछ उसी प्रकार चलता था जैसे अशोक कुमार जैसे हीरो का।
और बात अभिनेताओं तक ही सीमित नहीं है। ललिता पवार, दुर्गा खोटे, वीणा और नादिरा जैसी अभिनेत्रियों का परचम भी बम्बई के आसमान में लहराया है। अक्सर इन को सह अभिनेता की श्रेणी में सीमित रखने की कोशिश की गयी है। कभी डॉक्टर के रूप में तो कभी पुलिस इंस्पेक्टर बनकर। कभी वकील तो कभी साहूकार के किरदार में यह नज़र आते।
किरदारों के मेले
भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र में किरदारों को तीन वर्गों में बांटा है - उत्तम, मध्यम और अधम। उत्तम किरदार नायक की भूमिका है और इनको भी चार भागों में बाँटा गया है। मध्यम किरदार एक सह कलाकार है और अधम खलनायक की भूमिका है। सिनेमा में करैक्टर आर्टिस्ट बहुधा सह कलाकार और खलनायक की भूमिका में नज़र आये हैं।
अक्सर यह माना जाता है की एक नायक में कुछ खूबियां होनी चाहिए। लम्बा कद हो, दिखने में सुन्दर हो, अभिनय ठीक ठाक हो, बड़े परदे पे लोगों को आकर्षित करने की शक्ति रखता हो और हर जवान दिल इनकी एक पलक झपकने पर अपना सब कुछ न्योछावर करने को तैयार हो। और जब वह सारी खूबियां एक जगह नहीं मिलती उसे सह कलाकार के दायरे में बाँध दिया जाता है।
बोलती फिल्मों के शुरूआती दौर में पृथ्वीराज कपूर, सोहराब मोदी, कन्हैयालाल और मोतीलाल जैसे कलाकारों को चरित्र भूमिकाओं का चयन करना पड़ा। शायद इसका कारण यह भी था कि सहगल और सुरेंद्र जैसे अभिनेता गायक भी थे और मुख्या किरदार इन्ही को जाते। फिल्में गानों के बल पे चलते थे और प्लेबैक की अनुपस्थिति में कलाकार का गायक होना बेहद ज़रूरी था। मगर इन सब के बावजूद, ३० और ४० के दशक में सोहराब मोदी ने निर्माण और निर्देशन के साथ बतौर अभिनेता अपनी एक अलग पहचान बनायी।
४० के दशक के अंत में सिनेमा औऱ देश एक नए अंदाज को अपनाने के लिए आतुर थे। नाटकीयता की जगह नेचुरल अभिनय ने ले ली थी। आज यह बात बहुत काम लोग याद करते हैं, कि दिलीप कुमार से भी पहले मोतीलाल इस नए अभिनय शैली के प्रणेता बन चुके थे। नए लेखकों के आगमन के साथ कहानी और पटकथा के बलबूते पर फ़िल्में चलनी लगी और नतीजा यह हुआ कि नायक और खलनायक के दायरों से बाहर निकलकर कलाकार को अभिनय के तराजू पर तोला जाने लगा।
यह उन दिनों की बात है
यह ग़ौर करने वाली बात है की ५०, ६० और ७० के दशक में कुछ ऐसी फिल्में भी बनीं जिनकी कामयाबी का बोझ चरित्र अभिनेताओं के कन्धों पे रखा गया था। आवारा में जितनी एहम भूमिका राज कपूर की थी, उतनी ही एहमियत पृथ्वीराज कपूर के किरदार को भी मिली थी। साल १९५१ में आयी भगवन दादा के निर्देशन में बानी अलबेला उस साल के सबसे कामयाब फिल्मों में से थी और इसके हीरो स्वयं भगवन दादा ही थे। बॉक्स ऑफिस पे जहाँ अलबेला ने धमाका मचाया, वहीँ भगवन के डांस का स्टाइल का अनुकरण अमिताभ बच्चन से लेकर गोविंदा ने किया।
बी बी सी में काम करने के बाद भारत आये बलराज साहनी ने अदाकारी की दुनिया में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में दर्ज़ किया। बिमल रॉय की फिल्म दो बीघा ज़मीन में बलराज साहनी और निरुपा रॉय के दिल दहला देने वाले अभिनय ने दुनिया भर में भारतीय सिनेमा का नाम रोशन किया और कई अंतराष्ट्रीय फिल्मोत्सवों में तालियां बटोरी। अगले २० सालों तक, बलराज साहनी ने एक से बढ़कर एक फिल्म में अपने अभिनय का जादू बिखेरा चाहे वह हृषिकेश मुख़र्जी की अनुराधा हो, बिमल रॉय की काबुलीवाला हो या एम् एस सथ्यू की गरम हवा। बलराज साहनी की कामयाबी इस बात की मिसाल थी की फिल्म को चलने के लिए यह ज़रूरी नहीं है की एक सुपरस्टार को ही लिया जाए। एक अच्छे कलाकार के हाथ में मिटटी भी सोना बन सकती है और बॉक्स ऑफिस पे कामयाब भी हो सकती है।
हिंदी सिनेमा की सबसे बड़ी फिल्म मानी जाने वाली मुग़ले-ए-आज़म में जहाँ लोगों को सलीम और अनारकली की दास्तान रास आयी थी, यह भी याद रहे की फिल्म में मुग़ल-ए- आज़म बनने वाले प्रथ्वीराज एक चरित्र अभिनेता ही थे। भारतीय माध्यम वर्ग की भाव भंगिमाओं को रुपहले परदे पर जीवित करने वाले हृषिकेश मुख़र्जी की फिल्मों में हीरो और हीरोइन कोई भी हो, उनमें अक्सर डेविड की एक अलग भूमिका होती थी। देखा जाए तो डेविड इन सारी फिल्मों में एक सूत्रधार की भूमिका निभाते थे, जो स्वयं हृषिकेश मुख़र्जी के दृष्टिकोण को लोगों के सामने रखने का काम करते थे। डेविड के पते की बातों के बिना न हमें अभिमान पूरा लगता है न ही चुपके चुपके। और जहाँ चुपके चुपके की बात हो ही रही है, तो धर्मेंद्र को टक्कर देने के लिए एक ओम प्रकाश की ज़रुरत पड़ी थी। खूबसूरत में रेखा का व्यक्तित्व निखारने के लिए एक दीना पाठक की आवशयकता थी। एंग्री यंग मैन की आँधी के बीच आयी यश चोपड़ा की दीवार में हरोईनों से ज़्यादा निरुपा रॉय को फिल्म के पोस्टरों में प्रमुखता मिली।
कुछ कलाकार कुछ किरदारों के लिए बने थे और बार बार उन्ही किरदारों में देखे जाते। प्राण ने खलनायक की भूमिका पर अपना एक छत्र साम्राज्य स्थापित किया, जिसे बाद में प्रेम चोपड़ा आगे ले गए। कन्हैयालाल, मदन पूरी और जीवन समाज के दुश्मन बन कर दर्शकों की तालियों के साथ नफरत भी बटोर लेते। पुलिस की वर्दी को अपना कर इफ़्तेख़ार और जगदीश राज कानून के रखवाले बनते।
पर इन सब के बीच एक कलाकार ने एक ही काल में एक साथ बतौर नायक और चरित्र अभिनेता अपनी छवि बनायीं रखी। संजीव कुमार कभी अनामिका में जया भादुरी के प्रेमी बने तो शोले में जया के ससुर ठाकुर बलदेव सिंह भी बने। किरदारों के अनुरूप अपने आप को ढालने वाले ऐसे कलाकार पर कोई एक ठप्पा नहीं लग सका।
श्याम बेनेगल और गोविन्द निहलानी जैसे निर्देशकों के आने के साथ पैरेलल सिनेमा का दौर शुरू हुआ और चरित्र अभिनेताओं के लिए मौकों का एक खज़ाना खुल गया। इनकी फिल्मों में एक अभिनेता अथवा अभिनेत्री को ग्लैमर और हीरोइज़्म के ढाँचे से आज़ादी मिल गयी और उनकी प्रतिभा पूर्णतः निखार कर आ गयी। ओम पूरी, नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटिल, शबाना आज़मी, गिरीश कर्नाड जैसे कलाकारों ने नायक, प्रतिनायक और खलनायक की सीमाओं को धुंधला कर दिया।
८० के दशक आते आते फिल्मों में चरित्र अभिनेताओं को मुख्या धरा में कम ही देखा जाने लगा। पर जहाँ एक द्वार बंद हुआ तो वहीं टेलीविज़न का द्वार खुल गया। NSD और FTII से निकलने वाले छात्रों का दूरदर्शन के धारावाहिकों के बाहें फैलाकर स्वागत किया गया। और इसी के फलस्वरूप, नीना गुप्ता, पंकज कपूर, अलोक नाथ, सोनी राज़दान, अनीता कँवर, कंवलजीत सिंह, वीरेंदर राज़दान, पल्लवी जोशी, और इरफ़ान खान ने छोटे परदे पर कार किरदारों को अमर कर दिया। वैसे भी, शाहरुख़ खान भी तो दूरदर्शन पे कदम रखकर ही सिनेमा जगत के बडशाह बन गए।
माया का प्रभाव
रोज़ मुंबई में सैंकड़ों लोग हीरो बनने का सपना लेकर सी एस टी स्टेशन में उतारते हैं। स्टेशन में उतरने वाला जानता है की यह वह सर ज़मीन है जहाँ अमिताभ बच्चन, दिलीप कुमार, राजेश खन्ना और शाहरुख़ खान हीरो बनने आये थे और बन भी गए। ये भी शायद बन जाएंगे। मगर यह याद रखने लायक है की हुस्न एक हद्द तक साथ ज़रूर दे सकता है मगर लम्बी रेस का घोडा वही हो सकता है को अपने हुनर पर काम करे। सालों के परिश्रम के बाद एक नया कलाकार वर्ग अपनी मेहनत का अंजाम देख रहा है। ओ टी टी और सिनेमा घरों में चरित्र अभिनेताओं की वापसी इसी बात का सबूत है।
(लेखक अर्जुन नारायणन पत्रकार एवं फिल्म अध्येता हैं।)