इस फिल्म को देख कर लगता है, दर्शक सबसे निरीह प्राणी होता है। वह हॉल में चुपचाप बैठने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता। नए जमाने में बस एक सुविधा हो गई है कि अाधी फिल्म छोड़कर बाहर आने का मन न हो तो स्मार्ट फोन पर गेम ही खेल लीजिए। तो तय कर लीजिए कि अगर रॉय देखने जाना है तो स्मार्टफोन जरूर होना चाहिए।
यह एक चोर की कहानी है पर इसमें सिपाही नहीं है। एक चोर, एक फिल्म बनाने वाला और एक हसीन बाला बस यही है पूरी फिल्म का मसाला।
इस फिल्म में एक प्रेमी है। प्रेमी (रणबीर कपूर)भी ऐसा वैसा नहीं कम से दो दर्जन लड़कियों के साथ प्यार का नाटक करने वाला। फिर जब निर्देशक विक्रमजीत को कुछ नहीं सूझा तो जो आखरी आई उससे असली प्रेम करा दिया। वह आखिरी भी कोई ऐसी वैसी नहीं थी, जैकलीन फर्नांडिस थी। यह सब देखकर रणबीर की फिल्म याद आ गई, बचना ए हसीनो। कुछ ऐसी ही थी दर्जनों से प्रेम करने वाला कैसेनोवा। खैर। तो फिल्म में चोर के जीवन से प्ररित हो कर एक फिल्मकार (अर्जुन रामपाल) उस पर फिल्म बनाना चाहता है।
फिर कहानी बीरबल की खिचड़ी की तरह धीमी आंच पर पकती रहती है, जिसके लिए तीन घंटे कम हैं सो दर्शक बाहर निकल कर एक-दूसरे से कहते हैं, ‘मुझे तो फिल्म समझ ही नहीं आई।’ सबसे खराब बात तो यह है कि इसे टाइम पास भी नहीं कह सकते क्योंकि मल्टीप्लेक्स के महंगे टिकट टाइमपास नहीं हो सकते। हो सकता है विक्रमजीत इसका अलगा भाग बनाएं और समझा पाएं कि आखिर उन्होंने यह फिल्म क्यों बनाई थी। तब तक सवाल पूछना मना है।
अगर अर्जुन रामपाल ऐसी ही फिल्मों में काम करते रहे तो बेराजगारी का आलम कभी खत्म नहीं होगा।