समीर के पिता गीतकार अंजान भारतीय सिनेमा के बड़े गीतकारों में शामिल थे। उनकी छाया बालक समीर पर भी पड़ी और उन्हें भी साहित्य का चस्का लग गया। अंजान साहब से मिलने फ़िल्म जगत के लोग, कवि, शायर, गीतकार आते थे। समीर भी उनके सानिध्य में आते। इस माहौल का ऐसा असर हुआ कि समीर ने भी गीतकार बनने की ठान ली।
लेकिन पिता अंजान इसके ख़िलाफ़ थी।इसकी बड़ी वजह यह थी कि अंजान फिल्मी दुनिया, इसके प्रपंच, संघर्ष से वाक़िफ थे।वह जानते थे कि कैसे कलाकारों को गुमनामी खा जाती हैं।उन्हें मालूम था कि किस तरह प्रतिभाएं निगलने में माहिर है मायानगरी मुंबई। इसलिए उन्होंने समीर को इजाज़त नहीं दी।
समीर पर उस वक़्त जुनून सवार था। वह कहां किसी की सुनने वाले थे।वह मुंबई पहुंच गए। कुछ ही वक़्त में मुंबई ने संघर्ष ने समीर को ज़िन्दगी और मायानगरी की हक़ीक़त दिखा दी। समीर की हालत फटेहाल थी।उन्हें पहचानना मुश्किल था कि यह वही नौजवान है जो बनारस से मुंबई गीतकार बनने आया था।
जब पिता अंजान को समीर की स्थिति का पता चला तो उन्होंने समीर को बुलाया।समीर पूरे गुरूर के साथ पहुंचे। अंजान साहब ने समीर से कहा " अब तक तुम्हें ख़्वाब और हक़ीक़त का फ़र्क मालूम हो चुका होगा, मैं तुमसे कुछ बातें पूछूंगा, अगर तुम्हारे जवाब मुझे संतुष्ट करते हैं तो तुम मुंबई में रुकोगे, वगरना बनारस लौट जाओगे ". समीर हर सवाल के लिए तैयार थे।
अंजान साहब ने समीर से कहा " देखो, एक बात तो यह कि तुमको मेरे नाम की वजह से काम नहीं मिलेगा, तुम ख़ुद के दम पर अपनी पहचान बनाओगे "। दूसरी बात यह है कि यह मुंबई मायानगरी बिलकुल महबूबा की तरह है। यह बावफा भी हो सकती है और बेवफ़ा भी। इसलिए अगर तुम इस चुनौती को स्वीकार करते हो कि चाहे महबूबा बेवफ़ा निकल जाए, फिर भी मुहब्बत में पड़ना चाहते हो तभी मुंबई में संघर्ष करो।
समीर साहब में जुनून था, जज़्बा था।उन्होंने अपने पिता से कहा कि मैं सब कुछ दांव पर लगाकर अब संघर्ष करना चाहता हूं, चाहे कोई नतीजा हो मैं तैयार हूं, मुझे गीतकार बनना ही है"।अंजान साहब को अपने बेटे में आग दिखाई दी। उन्होंने समीर को मुंबई में रहकर स्ट्रगल करने की इजाज़त दी।यह समीर का जुनून ही था कि समीर कामयाब बने और उन्होंने तक़रीबन पांच हज़ार हिंदी फिल्मी गीत लिखकर एक अद्भुत कीर्तिमान बनाया।