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सत्यजित रे : फिल्मों द्वारा विश्वव्यापी ख्याति पाने वाले महानतम फिल्मकार

‘सत्यजित रे’ बीसवीं शताब्दी में विश्व की महानतम फिल्मी हस्तियों में एक थे, जिन्होंने यथार्थवादी...
सत्यजित रे : फिल्मों द्वारा विश्वव्यापी ख्याति पाने वाले महानतम फिल्मकार

‘सत्यजित रे’ बीसवीं शताब्दी में विश्व की महानतम फिल्मी हस्तियों में एक थे, जिन्होंने यथार्थवादी फिल्मों को नई दिशा देने के अलावा साहित्य और चित्रकला विधाओं में भी प्रतिभा का परिचय दिया। वे मुख्यतः फिल्म निर्देशक थे पर लेखक, कहानीकार, साहित्यकार, चित्रकार और फिल्म आलोचक के रूप में भी विख्यात थे। उनके लिए कथानक लिखना निर्देशन का अभिन्न अंग था और फिल्म निर्माण संबंधित निर्देशन, छायांकन, पटकथा, पार्श्वसंगीत, कला निर्देशन, संपादन वे स्वयं करते थे। उन्होंने 37 फीचर फिल्में, वृत्तचित्र, लघु फिल्में निर्देशित कीं। उनकी पहली फिल्म ‘पथेर पांचाली’ को कान फिल्मोत्सव में मिले “सर्वोत्तम मानवीय प्रलेख” पुरस्कार सहित ग्यारह अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले।

 

 

विश्व सिनेमा के पितामह माने जाने वाले महान निर्देशक अकीरा कुरोसावा ने सत्यजित रे के लिए कहा था ‘सत्यजित रे के बिना सिनेमा जगत वैसा ही है जैसे सूरज-चाँद के बिना आसमान।’ फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल ने माना है कि भारतीय सिनेमा को हमेशा ‘सत्यजीत रे के पहले और उनके बाद’ के रूप में जाना जाएगा और उनके फिल्म निर्माण की तकनीक का अनुकरण कोई निर्देशक नहीं कर पाया है। उन्होंने अपनी फिल्मों के बल पर भारत की तुलना में विदेशों में बेहद ऊंचा रुतबा कायम किया था।

 

 

सत्यजित रे का जन्म 2 मई, 1921 को कलकत्ता में हुआ। वे माता-पिता की इकलौती संतान थे। उनके दादा ‘उपेन्द्रकिशोर रे’ लेखक एवं चित्रकार थे। पिता ‘सुकुमार रे’ बच्चों के लिए बांग्ला में रोचक कविताएं लिखते और चित्रकारी करते थे पर 1923 में उनकी मृत्यु के वक़्त सत्यजित रे दो वर्ष के थे। माँ ‘सुप्रभा’ ने उनका पालन-पोषण अपने भाई के घर भरे-पूरे परिवार के बीच किया। उनकी माँ दमदार आवाज़ में रवीन्द्र संगीत गाती थीं। वे कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से अर्थशास्त्र में स्नातक होने के बाद, ललित कलाओं के अध्ययन हेतु शांतिनिकेतन चले गए। पांच साल शांतिनिकेतन में रहकर उन्होंने सिद्धहस्त कलाकार नंदलाल बोस और विनोद बिहारी मुखोपाध्याय से कला के पाठ सीखे और उनपर ‘इनर आई’ फिल्म बनाई। उनकी पश्चिमी और भारतीय शास्त्रीय संगीत, दोनों में रुचि थी और वे पश्चिमी वाद्य यंत्रों और भारतीय वाद्य यंत्रों का मिश्रण करते थे। 

 

 

1942 में कलकत्ता आकर उन्होंने ब्रिटिश विज्ञापन एजेंसी में बतौर ग्राफिक डिज़ाइनर अस्सी रुपये वेतन पर काम शुरू किया। उन्होंने ‘साइनेट प्रेस’ के लिए पुस्तकों के आवरण पृष्ठों की साज-सज्जा और रेखांकन किया। जिम कॉर्बेट की ‘मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं’, ‘विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय’ की ‘पथेर पांचाली’ का संक्षिप्त संस्करण और जवाहरलाल नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के आवरण उन्होंने डिज़ाइन किए थे। उन्होंने दो नए फॉन्ट ‘राय रोमन’ और ‘राय बिज़ार’ बनाए, ‘राय रोमन’ ने 1970 में अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में पुरस्कार जीता।  

 

 

1947 में उन्होंने ‘भारतीय सिनेमा कैसा हो और सिनेमा की समस्याएं’ विषय पर लेख लिखे और ‘कलकत्ता फिल्म सोसायटी’ की स्थापना की। 1949 में उनकी मुलाकात फ्रांसीसी निर्देशक ‘ज्यां रिनोर’ से हुई जो ‘द रिवर’ फिल्म की शूटिंग के लिए लोकेशन तलाशने कलकत्ता आए थे। सत्यजित रे ने रिनोर की मदद की और रिनोर ने जाना कि उनमें फिल्मकार बनने की प्रतिभा है। विज्ञापन एजेंसी ने 1950 में प्रशिक्षण हेतु उन्हें यूरोप टूर पर भेजा जहां उनकी लिंड्से एंडर्सन और गाविन लम्बर्ट से मित्रता हुई। उन्होंने लंदन फिल्म क्लब की सदस्यता ली और साढ़े चार माह के प्रवास में ‘बाइसिकल थीव्स’, ‘लूसिनिया स्टोरी एंड अर्थ’ तथा इतालवी नव-यथार्थवादी फिल्मों सहित सौ फिल्में देखीं जिनका उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। 1952 में भारत में आयोजित पहले अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में उन्होंने फिर इतालवी, जापानी सहित अन्य देशों की फिल्में देखीं। उन्होंने माना कि हॉलीवुड की तार्किक, यथार्थवादी शैली का उनपर प्रभाव हुआ जिन्हें देखकर उन्होंने फिल्म निर्माण सीखा। ज्यां रिनोर की ‘द रिवर’ से अत्यधिक प्रभावित होकर उन्होंने फिल्मकार बनने का निश्चय किया। 

 

 

यूरोप से जलयान द्वारा भारत लौटते समय उन्होंने ‘पथेर पांचाली’ की पटकथा लिखना शुरू किया और अक्टूबर 1952 में ‘पथेर पांचाली’ बनाने का निश्चय किया। उन्होंने इसकी स्क्रिप्ट ना लिखकर कुछ नोट्स लिए और चित्रांकन किया। धनाभाव के कारण फिल्म आधे में रुक गई तो उन्होंने बीमा पॉलिसी, ग्रामोफोन रिकॉर्ड और पत्नी के आभूषण बेचे। तीन वर्ष बाद पश्चिमी बंगाल सरकार द्वारा वित्तीय सहायता देने पर फिल्म पूरी हुई। पहली फिल्म ‘पथेर पांचाली’ 1955 में प्रदर्शित होकर कलकत्ता के सिनेमाघर में 13 सप्ताह तक हाउसफुल रही। उन्हें फिल्म निर्माण हेतु वेतन सहित कुछ महीनों की छुट्टी मिली पर ‘पथेर पांचाली’ की सफलता के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी। ‘पथेर पांचाली’ को 11 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए, 1956 में ‘कांस महोत्सव’ में पुरस्कार मिला पर 1957 में ‘वेनिस महोत्सव’ में फिल्म ‘अपराजितो’ को ग्रैंड प्राइस पुरस्कार मिलने पर ‘पथेर पांचाली’ को असली महत्व मिला। 1958 के सितंबर से पहले न्यूयार्क में ‘पथेर पांचाली’ प्रदर्शित नहीं हुई थी।

 

 

1956 में आयी ‘अपराजितो’ दार्शनिक गहराई, भावनात्मकता और बनारस के जीवंत होने के कारण असाधारण थी। 1958 में आई ‘जलसा घर’ में वास्तविक मार्मिकता का ख़ूबसूरत आह्वान हुआ। ‘जलसा घर’ ग़ैर पेशेवर अभिनेताओं द्वारा अभिनीत यथार्थपरक लोकेशन पर शूट हुई फिल्म है जिसमें उन्होंने बंगाली सिनेमा की ‘छवि विश्वास’ को निर्देशित किया। 1959 में उन्होंने ‘अपुर संसार’ का निर्माण किया। 1960 की ‘मेघे ढाका तारा’ में पूर्वी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के जीवन की तीखी तस्वीर पेश की गई। 1960 में रवीन्द्रनाथ टैगोर के जन्म शताब्दी वर्ष में उनको श्रद्धांजलि स्वरुप उन्होंने ‘देवी’ बनाई जिसपर रूढ़िवादियों ने उनका विरोध किया और उदारपंथी विचलित हुए। ‘पोस्ट मास्टर’ चालीस मिनट की संक्षिप्त फिल्म है जो कुशलता से शिल्पबद्ध किए गए रूपाकार के भीतर मानवीय गरिमा से आप्लावित है। सत्यजित रे की पहली रंगीन फिल्म 1962 में बनी ‘कंचनजंघा’ उनकी अपनी कहानी पर आधारित थी जिसमें तत्कालीन समाज को साधा गया था। ‘पारस पत्थर’ में कलकत्ता के जीवन की झलकियां थीं। इन दोनों फिल्मों के कुछ दृश्यों में समाज के विभिन्न वर्गों के बीच की सौम्य टकराहट को उजागर किया गया है। 1962 में बनाई ‘अभियान’ में दार्जिलिंग की जगह रेलगाड़ी की स्थायी गति है और पहलू बदलती ध्वनियां हैं। ‘मैं जीना चाहता हूं’ ने ऊँची आवाज़ और 1965 की ‘स्वर्ण रेखा’ ने प्रबल स्पष्टता और पतित क्रांतिकारियों की तीखी विडंबना के साथ बंगाली मानस पर गहरा प्रभाव अंकित किया। 1966 में ‘नायक’ में उन्होंने बंगाली अभिनेता उत्तम कुमार को लिया जिनका साक्षात्कार पत्रकार बनी शर्मिला टैगोर करती हैं पर वो बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुई। 1967 में आई ‘चिड़ियाखाना’ टिप्पणी योग्य नहीं मानी गई। ‘कापुरुष और महापुरुष’ महत्वहीन मानकर नकार दी गई। कुछ फिल्मों के नाकाम होने पर उन्होंने माना कि विशेष रूप से फिल्मों के अंतिम चरण में उन्हें हमेशा लगता कि वो हड़बड़ा जाते हैं इसीलिए कुछ फिल्में दोषपूर्ण रहीं। इसके परिणामस्वरुप उन्होंने अपने दादा उपेन्द्र किशोर रे द्वारा लिखित मनोरंजक फंतासी पर आधारित 1968 में ‘गोपी गायने बाघा बायने’ का निर्माण किया। उनकी निर्दोष बाल फिल्मों में आनंद की छिपी गोपन अनुभूति के साथ प्रारंभिक वयस्क फिल्मों वाला श्रेष्ठ भाव था। 

 

 

1984 में ‘घरे बायरे’ के निर्माण के समय सत्यजित रे बीमार हुए और उनका स्वास्थ्य लगातार खराब होता गया । पिता पर बनाई आधे घंटे की लघु फिल्म के अलावा उन्होंने पांच साल फिल्म नहीं बनाई। वे डॉक्टरों और नर्सों से घिरे रहते थे और द्वार पर गहन चिकित्सा कक्ष के तौर पर एम्बुलेंस खड़ी रहती थी। फिर भी उन्हें कैमरे के पीछे काम करना प्रफुल्लित करता था। उन्हें दवाइयों से अधिक आराम कैमरे के पीछे खड़े होकर मिलता था। विश्व के दस सर्वश्रेष्ठ फिल्मकारों में एक सत्यजित रे की ‘पाथेर पांचाली’ और ‘अपू त्रयी’ ने विश्व भर के फिल्म समारोहों में अवॉर्ड जीते पर उन्होंने अपनी कोई फिल्म ऑस्कर में शामिल होने हेतु नहीं भेजी। सत्यजित रे बीमार थे अतः 1992 में ऑस्कर अवॉर्ड के पदाधिकारियों ने स्वयं कोलकाता में उनके घर आकर, विश्व सिनेमा में अभूतपूर्व योगदान के लिए सत्यजित रे को मानद ऑस्कर अवॉर्ड से अलंकृत करके सम्मानित किया। इस आयोजन की फिल्म बनी और ऑस्कर सेरेमनी में प्रदर्शित करके पूरी दुनिया को दिखाई गई। संयुक्त राष्ट्र ने अपने मुख्यालय में 27 जून, 2015 को आयोजित प्रदर्शनी में सत्यजित राय की तस्वीर को 16 विचारकों और कलाकारों की तस्वीरों के साथ प्रदर्शित करने का फैसला किया। प्रदर्शनी में तस्वीरें प्रदर्शित करने का उद्देश्य महान हस्तियों द्वारा मानवता हेतु किए गए कामों को स्मरण करना था। 

 

 

 

उनकी फिल्मों के आलोचक कहते थे कि वे वर्तमान की समस्याओं से बचते हैं लेकिन उन्होंने ‘जन अरण्य’ फिल्म में परीक्षा प्रणाली, मध्यमवर्गीय आकांक्षा, रोजगार की समस्या का बेहतरीन चित्रण किया है। उनकी फिल्मों में स्त्री पात्र महत्वपूर्ण भूमिका में होती थीं। अधिकतर महिला पात्र पढ़ी-लिखी ना होने पर भी उनकी प्रतिक्रियाएं सच्ची होती थीं और उनमें प्रेम, घृणा को लेकर स्पष्ट संवेदनशीलता होती थी। समीक्षक मानते थे कि उन्होंने फिल्मों के साथ रेखांकन द्वारा भी रचनात्मक ऊर्जा बखूबी अभिव्यक्त की। कला समीक्षकों द्वारा बच्चों की पत्रिकाओं, पुस्तकों के लिए उनके बनाए रेखाचित्र उत्कृष्ट कला की श्रेणी में रखे गए। उनको बाल मनोविज्ञान की गहरी समझ थी जिसका परिचय फेलूदा कहानियों की श्रृंखला में मिलता है जिनमें सरसता, रोचकता और पाठकों की रुचि जगाने के सारे तत्व मौजूद हैं।

 

 

सत्यजित रे ने हिंदी में फिल्म बनाने के प्रस्ताव वर्षों अनसुने किए क्योंकि हिंदी भाषा से अनजान होना उनकी फिल्म-निर्माण की शैली को रास नहीं आता। फिर वे प्रेमचंद की कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ पर वाजिद अली शाह के जमाने की शिष्ट उर्दू में फिल्म बनाने को तैयार हो गए। सत्यजित रे को सलाह दी गई कि ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के डायलॉग राजेंद्र सिंह बेदी से लिखवाएं। संजीव कुमार ने गुलज़ार से डायलॉग लिखवाने को कहा और कैफ़ी आज़मी का भी नाम सुझाया गया। 1976 के अक्टूबर में जावेद सिद्दिक़ी को शमा ज़ैदी ने कहा कि सत्यजित रे उनसे मिलना चाहते हैं। जावेद ने उन्हें मिलने पर देखा कि सत्यजित रे अपने ऊंचे फिल्मी कद की तरह ही छह फीट चार इंच लम्बे कद के थे। उन्होंने जावेद से कहा कि प्रेमचंद की कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के डायलॉग उन्हें लिखना है। उन्होंने ऐलान किया कि वो नए व्यक्ति के ख़िलाफ़ नहीं बशर्ते उसका उर्दू-अंग्रेज़ी पर समान अधिकार हो। उन्होंने सारे डायलॉग अंग्रेज़ी में अनुवाद कराए ताकि मूल स्क्रीनप्ले और जावेद द्वारा लिखे डायलॉग्स के बीच फ़र्क़ समझें, फिर उन्होंने बांग्ला में डायलॉग्स लिखकर पढ़े। वजह पूछने पर उन्होंने बताया कि ज़ुबान कोई हो, शब्दों की अपनी लय होती है जो सही होनी चाहिए क्योंकि एक भी सुर ग़लत लगने पर पूरा सीन बेमानी हो जाता है। 

 

 

 

सत्यजित रे की स्क्रिप्ट हल्के बादामी कागज़ों पर लाल रंग की जिल्द चढ़ी, बही-खाते की तरह होती थी जिसमें उर्दू डायलॉग्स के अंग्रेजी और बांग्ला अनुवाद करीने से लिखे रहते थे। सत्यजित रे शूटिंग के समय एक हाथ में पेन, दूसरे हाथ में चिकन सैंडविच और गोद में स्क्रिप्ट लेकर कुर्सी पर बैठते थे। आठ घंटे की शिफ्ट में वो एक चिकन सैंडविच और कुल्हड़ में जमी ‘मिष्टी दोई’ खाते थे। वो कैमरा ख़ुद चलाते थे, कैमरामैन को कैमरा नहीं छूने देते थे, फिल्में ख़ुद एडिट करते थे। उनकी सेट पर आवाज़ कभी ऊँची नहीं होती थी। वे कलाकार को इतनी धीमी आवाज़ में निर्देश देते थे कि बगल में बैठे लोग भी नहीं सुन पाते थे कि क्या कह रहे हैं। अभिनेता से दूर खड़े होने पर भी कभी चिल्लाकर नहीं बोलते थे बल्कि पास जाकर कान में कुछ कहकर चले जाते थे। वे शाम को पैक-अप के बाद ही सेट से बाहर निकलते थे। 

 

 

सत्यजीत रे ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में मुजरा करवाने हेतु युवा नर्तकी की तलाश में थे तो किसी ने उन्हें बताया कि कलकत्ता के रेडलाइट इलाके सोनागाछी की महिला अच्छा मुजरा करती है। वे महिलाओं की बहुत इज़्ज़त करते थे तो सोचा कि अगर किसी महिला को बुलाया तो वो स्टूडियो आकर असहज ना महसूस करे इसलिए वो स्वयं उससे मिलने गए। वहां की पतली गलियों में उनकी कार नहीं गई इसलिए वे अपनी कार से उतरकर गौहर-ए-मकसूद के घर पैदल गए। कोठे पर पहुंचकर पहले उन्होंने मुजरा देखा, फिर उससे बात की। कोठे से बाहर आने पर लोग उन्हें पहचान गए और उनकी झलक पाने के लिए चारों तरफ भीड़ इकट्ठी हो गई। लोगों ने आदर सहित उनके लिए रास्ता बनाया जिसमें वे आगे चले और लोग उनको कार तक छोड़ने आए। उन्होंने इस फ़िल्म को प्रभावित कर देने वाली ऐसी विश्वसनीयता से लैस किया जिसे चलचित्र के माध्यम से कोई सिद्धहस्त ही व्यक्त कर सकता था।

 

 

सत्यजित रे को बताया गया कि उन्हें ‘लाइफ़ टाइम ऑस्कर’ पुरस्कार दिया जा रहा है तो उन्होंने मशहूर हॉलीवुड अभिनेत्री ऑड्रे हेपबर्न के हाथों पुरस्कार पाने की इच्छा प्रकट की। उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए 30 मार्च 1992 को ऑड्रे हेपबर्न ने उन्हें ये पुरस्कार दिया। उन्होंने कलकत्ता के नर्सिंग होम में बिस्तर पर बैठे हुए वो पुरस्कार स्वीकार किया जिसे दुनिया भर में वीडियो लिंक के द्वारा लाइव दिखाया गया। अस्पताल में ट्रॉफी उनकी पत्नी बिजोया ने दी और आत्मकथा में लिखा कि जब वे उन्हें ‘ऑस्कर ट्रॉफ़ी’ पकड़ा रही थीं तो वो बहुत भारी लगी। सत्यजित रे के डॉक्टर बख्शी उस ट्रॉफी के निचले हिस्से को नहीं पकड़े होते तो वो सत्यजित रे के हाथों से फिसल जाती। ऑस्कर की घोषणा के दो दिन बाद भारत सरकार ने उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया और संयोग ही कहा जाएगा कि ये पुरस्कार ग्रहण करने के कुछ हफ्तों बाद 23 अप्रैल, 1992 को भारत के इतने महान फिल्मकार ने दुनिया को अलविदा कह दिया। 

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