जटिल दिमाग के लोगों की भूमिका निभाने में कंगना को महारत हासिल है। शायद यह उनका अपना व्यक्तित्व है। लेकिन सिर्फ अच्छा अभिनय करने से कुछ नहीं होता। अच्छी स्क्रिप्ट का साथ होना भी जरूरी है। सिमरन ऐसी ही फिल्म है जिसमें कंगना तो ईमानदार हैं, लेकिन कहानी नहीं।
अटलांटा में रहने वाली गुज्जू प्रफुल पटेल (कंगना रणौत) तलाकशुदा झगड़ते मां-बाप के बीच पिसती, एक होटल में सफाई का काम करती लड़की है। सफाई मत कहिए वह ‘हाउसकीपिंग’ के जॉब में है। उसे घर खरीदना है, अपना घर। लेकिन पैसे कम हैं, लोन मिल नहीं सकता और जब ऐसी स्थिति में कोई पैसा बचा रहा हो और जुआ खेल कर खूब सारा कमा ले तो क्या करेगा? और जुआ खेलेगा या उतने पैसे लेकर चुपचाप निकल लेगा। प्रफुल और खेलती है। और...और... और गड़बड़।
हंसल मेहता ने प्रफुल को हैप्पी गो लकी दिखाने की कोशिश की, कंगना वैसी दिखी भीं, हंसल मेहता ने उसे चिड़चिड़ी दिखाने की कोशिश की कंगना ने वैसा भी कर दिखाया, हंसल मेहता ने उसे अचानक कूल बना दिया वह वैसी हो गई। लेकिन हंसल मेहता को भी नहीं मालूम कि कहानी का क्या करें, इसलिए कंगना भी वहीं ठहर गई जहां, निर्देशक हंसल मेहता ने ठहरा दिया।
फिल्म में आधे से ज्यादा संवाद अंग्रेजी में हैं। बचे-खुचे गुजराती में फिर हिंदी का नंबर आता है। वैसे ही कोई कहानी नहीं, फिर हिंदी वाले दर्शक सिमरन देख कर क्या करें। म्यूट कर के तो फिल्म देखने से रहे। जब कंगना का नाम प्रफुल है तो फिर सिमरन कौन। यह तो बहुत आसान प्रश्न है, कठिन तो यह है कि अटलांटा पुलिस इतनी सुस्त है कि कोई लड़की तीन बार बैंक लूट ले और पुलिस उस तक पहुंच ही न पाए। इससे तो भारत की पुलिस अच्छी। कम से कम आखिर में खुद ही पहुंच जाती है, उसे फोन कर बुलाना नहीं पड़ता।
बात तो ऐसी है कि कंगना की एक्टिंग के दीवाने हो तो चले जाओ वरना चुपचाप लखनऊ सेंट्रल का टिकट कटा लो। कुछ न होने से कुछ मिले यही भला।
आउटलुक रेटिंग दो स्टार