बात नब्बे के दशक की है। फ़िल्म " रक्षक " के संगीत निर्माण का कार्य चल रहा था। संगीतकार आनन्द मिलिंद चाहते थे कि इस फ़िल्म के गीतों में कुछ नया प्रयोग किया जाए। जब यह बात गायक अभिजीत भट्टाचार्य को पता चली तो वह सोच में पड़ गए। स्वाभाविक है कि कुछ नया करने की कोशिश में हमेशा जोख़िम होता है। अभिजीत को कुछ समझ नहीं आ रहा था।
फ़िल्म के गीत " शहर की लड़की " को लेकर रिहर्सल चल रही थी। आनंद - मिलिंद ने जब अभिजीत को फाइनल टेक रिकॉर्ड करने के लिए कहा तो अभिजीत थोड़ा घबरा गए। ख़ैर माइक पर पहुंचकर अभिजीत ने गाना शुरू किया। अभिजीत जब भी शब्द " हां शहर की लड़की " बोलते तो सांस ले लेते। दरअसल यह सुनियोजित नहीं था। चूंकि गाने का टेंपो अधिक था इसलिए सांस लेने की ज़्यादा जगह नहीं थी।
अभिजीत जब बार बार " शहर की लड़की " बोलते हुए सांस लेते तो उन्हें लगता कि वह कोई गलती कर रहे हैं और जब आनंद - मिलिंद गीत को सुनेंगे तो एक बार फिर से गाने के लिए कहेंगे। मगर ऐसा नहीं हुआ। जब आनंद मिलिंद ने गीत सुना तो उनको यही सांस लेने का वेरिएशन पसंद आ गया और उन्होंने गीत को हूबहू वैसा ही फाइनल कर दिया। आगे चलकर फ़िल्म " रक्षक " तो ख़ास लोकप्रिय नहीं हुई मगर फ़िल्म का गीत " शहर की लड़की " सबकी ज़ुबान पर चढ़ गया।