अगर यह सब हो रहा है और देश की बाकी जनता के बीच न आए तो क्या फायदा। लेकिन जब एक पत्रकार को इस बारे में पता चला तो उसने इस विषय पर एक वृत्तचित्र ही बना डाला। पंकज शुक्ल वह पत्रकार हैं जिन्होंने स्वराज मुमकिन है नाम से इस गांव पर फिल्म बनाई। न सिर्फ बनाई बल्कि अमेरिका की सिलिकॉन वैली में होने वाले प्रतिष्ठित फेस्टिवल ऑफ ग्लोब मूवी फेस्ट के लिए चुन भी ली गई है।
पकंज कहते हैं, देश के राजनीतिक दल ग्रामीणों को उनके सही अधिकारों के बारे में सजग नहीं होने देना चाहते। यह फिल्म ग्रामीणों को न सिर्फ ग्राम स्वराज की सही अवधारणा से अवगत कराती है बल्कि ग्रामीणों को उनके अधिकारों के बारे में भी बताती है।
इस वृत्तचित्र का आधिकारिक प्रीमियर अगस्त महीने में इस फिल्म फेस्टिवल के दौरान होगा। स्वराज मुमकिन है फिल्म में यह दिखाने की कोशिश की गई है कि कैसे सरकारी योजनाओं के पारदर्शी संचालन और ग्राम्य एकता से किसी भी गांव को विकसित और आर्थिक रूप से सुदृढ़ किया जा सकता है।
क्राउड फंडिंग यानी जन सहयोग से बनी फिल्म स्वराज मुमकिन है को निर्देशित करने वाले पंकज के मुताबिक फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे बघुवार ने न सिर्फ खेत का पानी खेत में और गांव का पानी गांव में ही बचाने की रणनीति पर काम किया बल्कि ऊर्जा के गैर पारंपरिक स्रोतों को अपनाकर काफी हद तक आसपास का वातावरण भी शुद्ध रखा है। ग्रामीणों ने गांव की सारी नालियों को भूमिगत करके इन्हें एक पुराने अनुपयोगी कुएं से जोड़ दिया जिससे सारा गंदा पानी वापस भूजल में चला जाता है। इसके अलावा बरसात का पानी गांव में ही रोकने के लिए गांव वालों ने श्रमदान करके एक बड़ा सा बांध भी बनाया है। इस गांव में आज तक कोई पंचायत चुनाव नहीं हुआ और सारे पंचायत सदस्य और प्रधान निर्विरोध चुने जाते हैं। ग्राम्य न्यायालय की अवधारणा को सबसे पहले अपनाने वाले इस गांव के लोगों ने वृक्षारोपण, जैविक खेती और सहकारी समितियों के संचालन के क्षेत्र में भी क्रांतिकारी काम किए हैं। पंकज उम्मीद जताते हैं कि यदि इस प्रकार के जतन हर गांव में होने लगें तो भारत के गांवों को आत्मनिर्भर होने से कोई नहीं रोक सकता।