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छोटी ही सही पर जीत के कई मायने

- गिरिधर झा भारतीय फिल्मकारों के लिए ऑस्कर अवॉर्ड अभेद्य किले की तरह है। जिस देश को पूरे विश्व में...
छोटी ही सही पर जीत के कई मायने

- गिरिधर झा

भारतीय फिल्मकारों के लिए ऑस्कर अवॉर्ड अभेद्य किले की तरह है। जिस देश को पूरे विश्व में विभिन्न भाषाओं में सर्वाधिक फिल्में बनाने के लिए जाना जाता है, उसे अभी भी उस स्वर्णिम क्षण की प्रतीक्षा है जब उसकी किसी फीचर फिल्म को सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म की श्रेणी में यह प्रतिष्ठित अमेरिकी पुरस्कार मिले। यह ऐसा इंतजार है जिसके खत्म होने की उम्मीद वर्षों से है। आजादी के कुछ वर्षों बाद, जबसे भारतीय फिल्में एकेडमी अवॉर्ड्स के लिए भेजी जाती रही हैं, महबूब खान की मदर इंडिया (1957), मीरा नायर की सलाम बॉम्बे और आशुतोष गोवारिकर की लगान (2001) ही अंतिम पांच में शुमार हो सकीं। लेकिन सफलता उनमें से किसी को नहीं मिली। आखिर इसकी वजह क्या रही? क्या हमारे फिल्मकार विश्वस्तरीय फिल्में नहीं बना पाते हैं?

हाल में ही आयोजित 91वें एकेडमी अवॉर्ड्स में पीरियड: एंड ऑफ सेंटेंस को डॉक्यूमेंट्री (शार्ट सब्जेक्ट) की श्रेणी में ऑस्कर अवॉर्ड मिला जिसकी कार्यकारी निर्माता भारत की गुनीत मोंगा हैं। ईरानी-अमेरिकी मूल की रायका जेटाबची के निर्देशन में बने 26 मिनट के इस वृत्तचित्र में भारतीय महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान होने वाली समस्याओं को रेखांकित किया गया है। इस वृत्तचित्र का मकसद महिलाओं में माहवारी और नारी स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता फैलाना है।

गुनीत का नाम अब फिल्म उद्योग की उन चुनिंदा भारतीय शख्सियतों की फेहरिस्त में शामिल हो गया है जिन्हें विश्व सिनेमा के सबसे नामचीन पुरस्कार से नवाजा गया है। विजय से उत्साहित होकर उन्होंने दुनिया भर की लड़कियों का आह्वान करते हुए कहा, “अब हमारे पास एक ऑस्कर है... चलो दुनिया को बदल दें।” उन्हें उम्मीद है कि अब भारत सरकार और अन्य संस्थाएं देश के फिल्मकारों को ज्वलंत सामाजिक मुद्दों पर फिल्में बनाने में यथासंभव मदद करेंगी।

लंबे समय तक निर्देशक अनुराग कश्यप की निर्माण संस्था से जुड़ी रहीं गुनीत ने अपना फिल्मी सफर 2009 में शुरू किया था। यह वही साल था जब ब्रिटेन के चर्चित निर्देशक डैनी बायल की स्लमडॉग मिलेनियर के लिए संगीतकार ए.आर.रहमान, गीतकार गुलजार और साउंड रिकॉर्डिस्ट रसूल पुकुट्टी को ऑस्कर पुरस्कार मिला था। लेकिन उसके बाद पिछले एक दशक में किसी भी भारतीय फिल्म या वृत्तचित्र को एकेडमी पुरस्कार की जूरी ने विश्वस्तरीय नहीं समझा।

यह विडंबना ही है कि इन सालों में न सिर्फ बॉलीवुड बल्कि देश के अन्य क्षेत्रीय फिल्म उद्योग के लिए पिछले दस साल स्वर्णिम काल की तरह रहे हैं। इस दौरान भारतीय सिनेमा में विषयवस्तु की महत्ता उभर कर आई और ज्यादातर फार्मूला फिल्में दर्शकों और आलोचकों को अपनी ओर खींचने में असफल रहीं। पिछले कुछ वर्षों में भारत में कई बेहतरीन, छोटे बजट की फिल्मों का निर्माण हुआ और वर्षों से जमे-जमाए स्टार सिस्टम का आकर्षण लुप्त होने लगा। मनीष मुंद्रा की न्यूटन (2017) और रीमा दास की असमिया फिल्म, द विलेज रॉकस्टार्स भारत की आधिकारिक प्रविष्टि के रूप में ऑस्कर में गईं लेकिन वे भी अंतिम पांच में जगह बनाने में नाकाम रहीं।

इसमें दो मत नहीं कि भारतीय फिल्म उद्योग में वर्षों से व्यावसायिक सिनेमा का पलड़ा कलात्मक सिनेमा से हमेशा भारी रहा है। अधिकतर बड़े बैनर के निर्माता सिर्फ मुनाफे की चाहत में ऐसी फिल्में बनाते हैं जो 100 करोड़ से अधिक का व्यवसाय करें। उत्कृष्ट कोटि की ऐसी फिल्में जो ऑस्कर, कान और बर्लिन जैसे प्रतिष्ठित फिल्म समारोहों में वैश्विक पुरस्कारों की दौड़ में शामिल हों, उनकी प्राथमिकता कभी नहीं रही। इसके कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बॉलीवुड की पहचान मूलतः सिर्फ नाच-गाने वाली फिल्में बनाने वालों की है, न कि संजीदा और उत्कृष्ट सिनेमा के लिए, जो अपनी गुणवत्ता की अमिट छाप दर्शकों पर छोड़ सके। इसके अलावा, भारतीय फिल्मकार मौलिकता की महत्ता से अंजान हॉलीवुड और यूरोप की फिल्मों की बड़ी बेशर्मी से नकल करने में भी अव्वल रहे हैं।

इसमें आश्चर्य नहीं कि पिछले कुछ वर्षो में भारत की तुलना में ईरान, पोलैंड, जापान जैसे कई छोटे देशों की फिल्मों ने ऑस्कर पुरस्कार जीते हैं। संभवतः ऐसा इसीलिए होता है कि वहां के फिल्मकार सिर्फ व्यावसायिक दृष्टिकोण से फिल्में नहीं बनाते। उनकी फिल्मों की गुणवत्ता भारतीय फिल्मों से कई गुना अधिक होती है। संभव है वहां ऑस्कर में भेजी जाने वाली आधिकारिक प्रविष्टियों के चयन में भारत की तरह राजनीति न होती हो। फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया, जो हर साल ऑस्कर के लिए आधिकारिक भारतीय फिल्म का चयन करती है विगत वर्षों में अपने निर्णयों के कारण अक्सर विवादों में रही है।

विश्वस्तर पर सिर्फ सत्यजीत राय अकेले ऐसे भारतीय फिल्मकार रहे जिनकी पहचान बेहतरीन निर्देशक के रूप में हुई है। 1992 में उनके योगदान के लिए उन्हें ऑस्कर का लाइफटाइम अचीवमेंट सम्मान भी मिला था। उनके बाद कोई दूसरा भारतीय फिल्मकार उस मुकाम पर नहीं पहुंच सका। उनके अलावा जिन भारतीयों को अभी तक ऑस्कर अवॉर्ड्स मिला है उनमें स्लमडॉग मिलेनियर या गांधी (1982) विदेशी फिल्मों का हिस्सा रही हैं। देश की ख्याति प्राप्त कॉस्ट्यूम डिजाइनर भानु अथैया ने गांधी से पहले और बाद में बॉलीवुड की कई फिल्मों में काम किया था लेकिन ऑस्कर उन्हें रिचर्ड एटेनबरो की फिल्म गांधी के लिए ही मिला।

इसमें दो मत नहीं कि किसी गैर-अंग्रेजी भाषा वाली फिल्म को ऑस्कर अवॉर्ड मिलना कठिन है। श्रेष्ठ विदेशी फिल्म की श्रेणी में दुनिया भर से आई फिल्में शामिल होती हैं। ऐसी स्थिति में पुरस्कार जीतना तो दूर, अंतिम पांच में भी अपना स्थान बनाना दुष्कर होता है। इसके अलावा, इस पुरस्कार की चयन प्रक्रिया भी जटिल है और अधिकतर भारतीय निर्माताओं के पास हॉलीवुड में अपनी फिल्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए समुचित साधन भी नहीं होते। आमिर खान की कोशिश के बावजूद लगान ऑस्कर की दौड़ में बोस्निया की नो मैंस लैंड से पीछे रह गई थी। हालांकि अब स्थितियां बदल रही हैं। नेटफ्लिक्स और अमेजन प्राइम जैसे ओवर-द-टॉप, डिजिटल प्लेटफॉर्म आने से भारतीय फिल्मकार दुनिया भर की बेहतरीन फिल्मों से रूबरू हो रहे हैं। अनेक निर्माता-निर्देशकों की फिल्में नियमित रूप से विभिन्न अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवलों में पुरस्कार जीत रहीं हैं। गुनीत को वृत्तचित्र के लिए ऑस्कर अवॉर्ड मिलना न सिर्फ गौरव की बात है, बल्कि इससे देश के अन्य प्रतिभाशाली फिल्मकार भी विश्वस्तरीय फिल्में बनाने के लिए प्रेरित होंगे। अब वह दिन दूर नहीं जब भारत में बनी किसी फीचर फिल्म को ऑस्कर अवॉर्ड से नवाजा जाना हमारे लिए महज मृगतृष्णा न रहे।

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