हाल ही में एक फिल्म की स्क्रीनिंग हुई है पुतुल । एक प्यारी सी बच्ची, जिसके आसपास माता-पिता के टूटे रिश्तों की किरचें हैं। जागरण फिल्म फेस्टिवल 2025 में इसकी स्क्रीनिंग के बाद से ही फिल्म चर्चा में बनी हुई है। टूटते परिवार की कहानियां तो बहुत होंगी लेकिन यह कहानी इसलिए खास है, क्योंकि इसे सात साल की एक बच्ची के नजरिए से कहा गया। फिल्म के निर्देशक, राधे श्याम पिपलवा से विवेक मिश्र ने फिल्म के विचार और इसके बनने के पीछे की कहानी पर विस्तार से बात की। पेश हैं अंशः
. पुतुल का विचार कैसे आया?
हमने अपने बचपन में, अपने घर-परिवार या आसपास के समाज में डिवोर्स का नाम भी नहीं सुना था। पर आज हमारे समाज में टूटते हुए परिवार आपको हर तरफ दिखाई देंगे। डिवोर्स की जो दर कुछ ही साल पहले तक तीन से पांच प्रतिशत हुआ करती थी, आज पंद्रह से बीस प्रतिशत हो गई है। इसलिए मुझे लगता है यह बहुत संवेदनशील मुद्दा है, जिस पर खुलकर बात नहीं होती, जो होना ही चाहिए। खासतौर से उस परिवार के छोटे बच्चों पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है, इस नजरिए से भी इसे देखा जाना चाहिए। मैं चाहता था मेरी कहानी खुद यह बात बोले, जिससे इस नजरिए से इस विषय पर चर्चा हो। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है, इस पर बहस हो।
. आपके अनुसार इसके पीछे क्या कारण है?
पहले इसका दोष बेमेल शादियों, शिक्षा की कमी या आर्थिक कारणों पर डाला जाता था। पर आज डिवोर्स ऐसे परिवारों में भी हो रहा है जहां लोग शिक्षित हैं, आर्थिक रूप से समृद्ध हैं, शादी भी उनकी अपनी मर्जी से हुई है। तब इसका एक बड़ा कारण जो दिखाई देता है, वह है आज समाज और परिवार का ढांचा टूटा है। एक परिवार और बच्चे के रूप में एक जीवन का निर्माण आप अकेले नहीं कर सकते। बच्चे पालना, उन्हें सही मूल्यों के साथ बड़ा करना किसी एक व्यक्ति के वश की बात नहीं। आज जो पीढ़ी शादी करके घर बसा रही है, उसके साथ उनके बड़ों का अनुभव और मार्गदर्शन नहीं है। आज घरों में दादा-दादी, नाना-नानी नहीं हैं। बिना अनुभव, त्याग और पेशंस के परिवार नहीं चल सकता, आप अपना काम करते हुए बच्चों की जिम्मेदारी नहीं उठा सकते। घर बसाना एक कमरा किराए पर लेकर उसमें दो लोगों का साथ रहने लगना भर नहीं है। यह इससे कहीं ज्यादा है। यह जीवन जीने का एक तरीका है, जो आज कहीं मिसिंग है, इसकी शिक्षा कहीं मिसिंग है। मुझे लगता है, सम्मान के साथ सहजीवता, को-एग्सिसटेंस की बात सभी को सिखाई जानी चाहिए।
. ऐसे विषय पर फिल्म बनाने में क्या चुनौतियां सामने आती हैं?
सबसे बड़ी चुनौती होती है कि ऐसे सब्जेक्ट के लिए प्रोड्यूसर का आसानी से सपोर्ट नहीं मिलता। सेक्स, वायलेंस, रोमांस और थ्रिल के समय में सोशल मेसेज के साथ फिल्म बनाना जोखिम भरा काम है। पर इस मामले में, मैं लकी रहा कि मुझे मेरी टीम का, मेरे प्रोड्यूसर शरद का, इंडस्ट्री के इतने सीनियर डी.ओ.पी. सुनील पटेल का और मेरी स्टार कास्ट का पूरा सपोर्ट मिला। आज मेरे कई सीनियर्स, जो मेरे मेंटर भी रहे, जब उन्होंने फिल्म देखी, तो यही कहा कि आज के समय में दस में से आठ लोग, चाहते हुए भी ऐसे विषय पर फिल्म बनाने से पीछे हट जाते हैं, पर तुमने बनाई, ये बड़ी बात है। और अब जिस तरह से ऑडियंस का सपोर्ट मिल रहा है, उससे यह भरोसा मजबूत हो रहा है कि आज भी लोग अच्छा और सेंसिबल कंटेंट देखना चाहते हैं।
. आगे और क्या योजनाएं हैं?
बदलते समय में, समाज में बदलती औरतों की स्थिति और अभी भी उसके प्रति कुछ लोगों का वही पुराना रवैया मुझे बहुत परेशान करता है, इस पर एक कहानी है हनियां जो स्त्री के संघर्ष और स्त्री शक्ति के आत्म सम्मान की बात करती है, उस पर काम कर रहा हूं। साथ ही समाज में युवाओं में बढ़ते डिप्रेशन और उसके कारण होने वाले सुसाइड जैसे विषय पर काम कर रहा हूं, जो हमारे मन और हमारे प्रकृति के साथ संबंध पर बात करती है। यदि हम अपने मन और प्रकृति और प्रयावरण से सही संबंध नहीं बना पाएंगे तो न हम सुरक्षित रहेंगे न ये धरती। इनके अलावा राष्ट्रीय सुरक्षा, पडोसी देश की साजिशों से जुड़े मुद्दे पर बंकर जैसा विषय भी सामने है जिस पर काम चल रहा है। देखिए पहले क्या सामने आता है।