“एक दौर में तमाम महापुरुष और नेता जाति उन्मूलन की बात करते थे आज देश की समूची राजनीति ही जातियों को गिनने की धुरी पर आकर टिक गई है, बिहार की जातिवार गणना के आंकड़े सामने आने के बाद जो हलचल मची है वह देश के सामाजिक-राजनीतिक इतिहास में एक निर्णायक मोड़ साबित हो सकती है, खासकर पांच राज्यों के चुनाव और अगले साल लोकसभा चुनाव में इसके अक्स दिखने की संभावना”
कई बार मुद्दे हैरान करते हैं, जरूरी नहीं कि वे नए हों, लेकिन वे ऐसे छा जाते हैं कि अपने में सबको समाहित कर लेते हैं। बिहार के व्यापक जातिवार सर्वेक्षण ने लगता है ऐसी ही फिजा तैयार कर दी है, जिसमें राजनैतिक प्रतिद्वंद्विताएं ही नहीं, राजनैतिक प्रतिबद्धताएं भी विचारों के केंद्र में आ गई हैं। बेशक, यह मुद्दा इंडिया ब्लॉक की कांग्रेस समेत ज्यादातर केंद्रीय सत्ता की विपक्षी पार्टियों को उत्साहित कर रहा है जबकि सत्तासीन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और उनकी सहयोगी पार्टियां कुछ हद तक दुविधा में दिख रही हैं। प्रधानमंत्री तो लगातार जनसभाओं में इस मुद्दे को “समाज में बंटवारा” पैदा करने वाला तक बता रहे हैं, लेकिन बिहार भाजपा के सुशील कुमार मोदी जैसे नेता कहते हैं, “इसका फैसला तो हमारी गठबंधन सरकार के दौरान ही हुआ था और हमारी पार्टी के वित्त मंत्री ने इसके लिए धन मुहैया कराया था।”इसी मामले में बिहार के मुख्यमंत्री तथा जनता दल-यूनाइटेड (जदयू) के नेता नीतीश कुमार विपक्ष के नए सूत्रधार की तरह उभरे हैं जिन्होंने पहली बार किसी मुद्दे से सत्तासीन गठजोड़ को बचाव की मुद्रा अपनाने पर मजबूर कर दिया है। वरना 2014 के बाद कम से कम दो लोकसभा चुनावों में यही दिखता रहा है कि भाजपा या नरेंद्र मोदी मुद्दे तय करते थे और विपक्ष प्रतिक्रिया देता रह जाता था। दरअसल, विपक्ष इस मुद्दे को सिर्फ ओबीसी जातियों के आरक्षण तक सीमित नहीं रख रहा है, बल्कि इसका विस्तार आर्थिक नीतियों को घेरने में भी कर रहा है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने 9 अक्टूबर को कांग्रेस कार्यसमिति (सीडब्लूसी) की बैठक के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, “जाति जनगणना तो एक्सरे है। इसकी एमआरआइ तो आर्थिक सर्वेक्षण है, जो बताएगा कि किसके पास कितना धन, देश की संपत्ति का कितना हिस्सा है और अदाणी जैसे पूंजीपतियों के हाथ में कितना है। उसका बंटवारा करना होगा।” यानी विपक्ष इसमें मौजूदा सत्ता के खिलाफ सारे मुद्दे समेटने की संभावना देख रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
संभव है, भाजपा की दुविधा यही है। अगर महंगाई, बेरोजगारी, छोटे उद्योग-धंधों की बर्बादी जैसे मुद्दे इसमें समाहित हो जाते हैं, तो विपक्ष को शायद उम्मीद है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मुद्दे भी गौण हो सकते हैं। शायद इसी वजह से भोपाल की एक सभा में प्रधानमंत्री ने दलील दी, “अगर जितनी आबादी उतना हक की बात हो, तो अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों के हिस्से क्या बचेगा, जिनका हक मनमोहन सिंह देश के संसाधनों पर पहला कह चुके हैं।” (हालांकि कांग्रेस ने वीडियो जारी किया, जिसमें मनमोहन सिंह यह कहते दिखते हैं कि देश के संसाधनों पर पहला हक वंचितों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों का है)। यहां इसका जिक्र भी मौजू है कि जब जी20 शिखर सम्मेलन की अध्यक्षता में अपनी सफलता और संसद के विशेष सत्र में महिला आरक्षण जैसे कानून पारित करवा करके भाजपा और नरेंद्र मोदी अपनी भारी लोकप्रियता का दावा कर रहे थे, तभी जाति का यह मुद्दा उछल गया। नीतीश कुमार और उनके उप-मुख्यमंत्री तथा राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव ने 2 अक्टूबर को गांधी जयंती पर जाति सर्वेक्षण के प्रारंभिक आंकड़े जारी कर फिजा में नए तेवर घोल दिए। इस सर्वेक्षण के सामाजिक-आर्थिक आंकड़े अक्टूबर के आखिर या नवंबर में विधानसभा सत्र में जारी किए जाएंगे।
जाति पर जोरः कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में जाति गणना पर संकल्प
असल में बिहार के जाति सर्वेक्षण से वह जाहिर हुआ, जिसकी चर्चा कुछ समय से कयास की तरह जारी थी। अभी तक 1931 की जनगणना के अनुमान के मुताबिक ओबीसी या अन्य पिछड़े वर्ग की संख्या 52 फीसद मानी जाती रही है। बिहार के सर्वे से इस दलील को बल मिलता है कि आरक्षण में पिछड़े वर्गों की हिस्सेदारी उससे काफी कम है, जो उनका हक होना चाहिए। बिहार के सर्वे से खुलासा हुआ कि ओबीसी और ईबीसी (अतिपिछड़े वर्ग) राज्य की आबादी में 63.1 फीसदी हैं। अनुसूचित जातियों (एससी) और जनजातियों (एसटी) की आबादी 21.3 फीसदी है, जबकि अगड़ी जातियां बाकी 15.5 फीसदी में हैं। इन अगड़ी जातियों में 3.65 फीसदी मुस्लिम ऊंची जातियों की आबादी भी शामिल है (देखें, चार्ट)। इसमें यह भी गौरतलब है कि अतिपिछड़ा की आबादी सबसे ज्यादा है, लेकिन आरक्षण में उनका प्रतिनिधित्व सबसे कम है। देश भर में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 22.5 फीसद आरक्षण है, जबकि ओबीसी के लिए 27 फीसदी। यानी आबादी के अनुपात में एससी-एसटी को आरक्षण मिलता है, लेकिन 52 फीसदी के हिसाब से भी ओबीसी को आबादी के अनुपात में आधा ही आरक्षण मिलता है। इसी तरह 2015 से शुरू हुआ आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्लूएस) के लिए 10 फीसदी आरक्षण है, जो उसके प्रावधानों के मुताबिक मोटे तौर पर अगड़ी जातियों के हिस्से में है। यह भी आबादी के अनुपात से देखें, तो लगभग बराबर बैठता है, बशर्ते बिहार के आंकड़ों को प्रतिनिधि माना जाए। संभव है, कुछ राज्यों में अगड़ों की आबादी कुछ कम या अधिक हो सकती है।
इस मायने में बिहार के जाति सर्वे से शर्तिया तौर पर पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की सीमा बढ़ाने और मौजूदा आरक्षण व्यवस्था में फेरबदल की मांग को ताकत मिलेगी। दरअसल 27 फीसदी आरक्षण 1993 में सुप्रीम कोर्ट के इंदिरा साहनी मामले में फैसले से तय हुआ था। सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर 50 फीसदी की सीमा लगा दी थी, लेकिन 10 फीसदी ईडब्लूएस आरक्षण को मान्यता देकर सुप्रीम कोर्ट ने एक मायने में वह सीमा हटा दी है। इसलिए पिछड़ों की हिस्सेदारी बढ़ाने की भी मांग हो रही है और इस सर्वे से यह और जोर पकड़ सकती है।
यही नहीं, आर्थिक सर्वे के नतीजे आर्थिक हिस्सेदारी की मांग भी तेज कर सकते हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वे के पिछले आंकड़ों के हिसाब से करीब 76 फीसदी परिवारों की आमदनी सालाना 5,000 रुपये थी। 2018 के बाद ये आंकड़े नहीं आए हैं। संभव है, इनमें ज्यादातर आबादी पिछड़ी और दलित-आदिवासी जातियों की होगी जिनकी आबादी बिहार के सर्वे से 83 फीसदी तक बैठती है। यही सवाल कांग्रेस के राहुल गांधी उठा रहे हैं। तो, क्या इससे आर्थिक नीतियों में भी बदलाव की मांग उठेगी, जो फिलहाल मोटे तौर पर अमीरों के पक्ष में झुकी हुई दिखती है? हाल के आंकड़े बताते हैं कि देश में अरबपतियों की आमदनी में कई-कई गुना का इजाफा हुआ जबकि गरीब और निम्न मध्य वर्ग की आमदनी घटी है। यूं तो यह सब आजादी के बाद से ही चल रहा है लेकिन आर्थिक उदारीकरण के बाद इसमें इजाफा हुआ है। बेशक, 2014 के बाद के दौर में काफी अधिक इजाफा हुआ है और सरकारी संपत्तियों का निजीकरण भी मुट्ठी भर हाथों में गया है। तो, क्या ये आंकड़े उदारीकरण और आर्थिक सुधारों पर भी अपना साया डालेंगे?
यह कहना तो मुश्किल है, लेकिन कांग्रेस कार्यसमिति ने जिस तरह पहली बार खुलकर जाति जनगणना और ओबीसी हकों के लिए प्रस्ताव पास किया, उससे भी उसके तेवर साफ दिख रहे हैं। इस बैठक की अहमियत इसलिए भी है कि 9 अक्टूबर को ही चुनाव आयोग ने पांच राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम के विधानसभा चुनावों का ऐलान किया। कार्यसमिति की बैठक के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस के चारों मुख्यमंत्रियों राजस्थान के अशोक गहलोत, छत्तीसगढ़ के भूपेश बघेल, कर्नाटक के सिद्धारामैया, हिमाचल प्रदेश के सुखविंदर सिंह सुक्खू के साथ पार्टी के फैसले का ऐलान किया। कांग्रेस ने मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में सत्ता में वापसी पर जाति जनगणना कराने का वादा किया है। कांग्रेस 2011 में किए गए देशव्यापी सामाजिक-आर्थिक और जाति सर्वेक्षण के आंकड़े भी जारी करने की मांग कर रही है।
आजादी के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के दौर के बाद तक कांग्रेस पिछड़ी जातियों की गिनती और मोटे तौर पर उनके आरक्षण के मामले में उदासीन बनी रही थी। इंदिरा गांधी के दौर तक कांग्रेस के वोट बैंक ब्राह्मण, हरिजन और मुसलमान माने जाते थे लेकिन नब्बे के दशक में स्थितियां बदलने लगीं। इस तरह कांग्रेस को संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के दौरान ही ओबीसी संभावनाओं का एहसास होने लगा। मनमोहन सिंह सरकार में मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने 2006 में केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी के लिए 27 फीसद आरक्षण का ऐलान किया। फिर 2010 में पिछड़े वर्ग के नेताओं लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव के प्रभाव में संसद में जातिगत जनगणना का प्रस्ताव पारित किया गया, जिसका भाजपा ने समर्थन किया था। 2011 में सरकार ने देशव्यापी सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (एसईसीसी) कराई और विभिन्न सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों की पहचान की, हालांकि 2013 में उसके नतीजे जाहिर नहीं किए गए। राहुल गांधी अब कहते हैं कि वह भूल थी। 2014 में मोदी सरकार ने उसे जारी करना मुनासिब नहीं समझा। अब, जाति जनगणना की मांग उछल रही है, तो कांग्रेस ने अपना वजन उसमें डाल दिया क्योंकि उसे एहसास है कि यह मुद्दा क्षेत्रीय दलों के साथ जुड़ने का चुंबक बन सकता है और आखिरकार भाजपा को हराया जा सकता है।
कांग्रेस की नीतियों में पहली दफा यह परिवर्तन दिख रहा है, लेकिन बिहार के जाति सर्वेक्षण करने के ऐलान के साथ ही ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने जाति सर्वेक्षण की प्रक्रिया शुरू कर दी और इसके आंकड़े कभी भी जारी हो सकते हैं। इसी तरह कर्नाटक में सिद्धारामैया सरकार 2015 में कराए सामाजिक-आर्थिक जाति सर्वेक्षण के नतीजे जारी करने का संकल्प दोहरा चुकी है। इंडिया ब्लॉक में तृणमूल कांग्रेस और एकाध दूसरी पार्टियों को छोड़कर सभी जाति जनगणना के पक्ष में अपनी राय जाहिर कर चुके हैं। उद्धव ठाकरे की शिवसेना, कम्युनिस्ट पार्टियां वगैरह सभी इसके पक्ष में राय जाहिर कर चुकी हैं। दक्षिणी राज्यों में तमिलनाडु, केरल में यह प्रक्रिया पहले ही हो चुकी है और आंध्र प्रदेश तथा तेलंगाना सरकारों ने भी ऐसी सहमति जताई है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने तो 2022 के विधानसभा चुनावों में ही अपने घोषणा-पत्र में जाति जनगणना का वादा किया था। बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती इसके बदस्तूर पक्ष में हैं। बसपा नेता कांशीराम ने ही नारा दिया था, ‘जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी भागीदारी।’ अब कांग्रेस के राहुल गांधी इसे यूं कहते हैं, “जितनी आबादी, उतना हक।” आम आदमी पार्टी और अकाली दल की भी इस पर सहमति है। भाजपा में भी कई पिछड़े नेता जाति जनगणना के पक्ष में बोल चुके हैं। उत्तर प्रदेश में उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य इसके हक में आवाज उठा चुके हैं। उत्तर प्रदेश में उसकी सहयोगी अपना दल और ओमप्रकाश राजभर की पार्टी सुभासपा (सुहेलदेव भारती समाज पार्टी) भी जाति जनगणना के पक्ष में आवाज उठा चुकी है, लेकिन भाजपा की बड़ी दुविधा शायद अपने ठोस मूल आधार बन चुके ऊंची जातियों को लेकर हो सकती है।
जातिगणना के पक्ष में : मायावती, अखिलेश यादव और नवीन पटनायक (दाएं)
देश भर में तकरीबन 10 फीसदी के आसपास ये वोट उत्तर प्रदेश जैसे कुछ राज्यों में करीब 15 फीसदी के आसपास बताए जाते हैं। 1990 में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद इन्हीं जातियों की ओर से आरक्षण विरोधी आंदोलन शुरू हुआ था। अब भी, बिहार जाति सर्वेक्षण के खिलाफ यूथ फॉर इक्वालिटी ने पहले पटना हाइकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई, लेकिन अदालतों ने आखिरकार रोक लगाने से मना कर दिया, हालांकि सुप्रीम कोर्ट में अभी सुनवाई जारी है। दिलचस्प यह है कि सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट जनरल तुषार मेहता ने एक ही दिन में दो हलफनामे दिए थे। पहले में राज्य को जाति सर्वेक्षण कराने का अधिकार न होने की बात थी, लेकिन उसी शाम दूसरे हलफनामे में कहा गया कि पांचवां पैरा गलती से पड़ गया था।
गौरतलब यह भी है कि 2018 में तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह लोकसभा में कह चुके थे कि 2021 की जनगणना में जाति गणना भी कराई जाएगी, लेकिन कोविड-19 की वजह से जनगणना टाल दी गई। 2022 में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने संसद में कहा कि सरकार ने जाति जनगणना न कराने की नीति तय की है। यही नहीं, मोदी सरकार 2011 का सामाजिक-आर्थिक सर्वे भी जारी न करने की वजह डेटा को अव्यावहारिक होना बताती रही है, लेकिन केंद्रीय जनगणना आयुक्त महाराष्ट्र सरकार को 2021 में लिख कर दे चुके हैं कि आंकड़े 99 प्रतिशत तक सही हैं।
भाजपा ने नब्बे के दशक में भी आरक्षण का खुलकर विरोध नहीं किया। उसे यह एहसास हो चला था कि अयोध्या में राम मंदिर, कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने और समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों की स्पष्ट सीमा है और उसके आसरे सत्ता में पहुंच पाना मुश्किल है। तब भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पिछड़ी, दलित जातियों और आदिवासियों में पैठ बढ़ाने की नीति अपनाई। इसके सूत्रधारों में तब भाजपा महासचिव केएन गोविंदाचार्य थे। खासकर उत्तर प्रदेश में उसके हिंदुत्व के एजेंडे के तले लोध और कोइरी जैसी जातियां शामिल हुईं, जिसमें कल्याण सिंह, उमा भारती, विनय कटियार जैसे नेता उभरे, लेकिन भाजपा या संघ के शीर्ष पर ऊंची जातियों के नेता कायम रहे। आज भी तकरीबन भाजपा की अपनी और गठबंधन की 10 सरकारों में सिर्फ मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ही पिछड़ी जाति के हैं, जो ताजा विधानसभा चुनावों में कड़ा मुकाबला झेल रहे हैं।
वैसे, भाजपा को सबसे ज्यादा भरोसा प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे का है, जो 2014 में प्रधानमंत्री के उम्मीदवार बने, तो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था, “देश को पहला ओबीसी प्रधानमंत्री मिला।” पहले चरण सिंह और एचडी देवेगौड़ा भी मध्य जातियों के प्रधानमंत्री रह चुके हैं, जो राज्य की फेहरिस्त में ओबीसी गिने जाते हैं। मोदी की घांची जाति को मंडल आयोग की रिपोर्ट आने के बाद दूसरी बार आई ओबीसी की सूची में शामिल किया गया था। असल में भाजपा 2014 के चुनावों के पहले और बाद में खासकर हिंदी पट्टी तथा उत्तर प्रदेश में छोटी ओबीसी जातियों और सपा-बसपा-कांग्रेस से टूटे उनके नेताओं को अपने पाले में ले आई। उसने छोटे जाति समूहों के नायकों, इतिहास और संस्कृति के लिए आयोजन करके उनका समर्थन जीतने की कोशिश की। सो, आश्चर्य नहीं कि 2014 और 2019 के दो संसदीय चुनावों में लगातार भाजपा की जीत में ओबीसी वोट की भारी अहमियत रही है। दिल्ली स्थित सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज ने 2019 के अध्ययन में पाया था कि भाजपा के पक्ष में ओबीसी वोट 2009 के 22 फीसद से दोगुना होकर 2019 में 44 फीसद तक पहुंच गया (देखें, चार्ट)।
“इसका फैसला तो हमारी गठबंधन सरकार के दौरान ही हुआ था और हमारी पार्टी के वित्त मंत्री ने इसके लिए धन मुहैया कराया था।” सुशील कुमार मोदी (भाजपा), पूर्व मुख्यमंत्री, बिहार
इसका भाजपा को फल भी मिला। आज भाजपा के 303 सांसदों में 88 ओबीसी हैं और केंद्रीय मंत्रिमंडल के 77 सदस्यों में 27 मंत्री ओबीसी हैं। भाजपा आज जाति जनगणना की मांग के खिलाफ इसी को अपनी ढाल बना रही है कि ओबीसी और दलित जातियों को वह राजनीति में आगे बढ़ा रही है। इसके अलावा उसे अपने विभिन्न कल्याण कार्यक्रमों के लाभार्थियों पर भी भरोसा है। केंद्र सरकार के अनुमान के मुताबिक जनधन योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना, मुफ्त अनाज योजना जैसे कार्यक्रमों का लाभ 80 करोड़ लोगों को मिल रहा है। यह भी अटकल है कि मोदी सरकार 27 फीसद ओबीसी आरक्षण में उप-वर्गीकरण की पेशकश कर सकती है, जैसा कि कथित तौर पर रोहिणी आयोग की सिफारिश है। इस आयोग का गठन 2017 में इस मकसद से हुआ था कि केंद्रीय सूची में शामिल ओबीसी जातियों के बीच आरक्षण के लाभ के गैर-बराबर लाभ की जांच करे, ऐसे ओबीसी में उप-वर्गीकरण का तरीका बताए और केंद्रीय सूची में कोई गलती हो तो सुधार की सिफारिश करे। आयोग ने 31 जुलाई को अपनी रिपोर्ट सौंपी है।
उप-वर्गीकरण का मकसद यह आश्वस्त करना है कि आरक्षण का लाभ ओबीसी छतरी के तहत संख्याबहुल और ताकतवर जातियों तक सीमित न रहे। रोहिणी आयोग के 2018 में तैयार किए कार्य-पत्र में पता चला कि यादव, कुर्मी, जाट, सैनी, थेवर, ईझावा और वोक्कालिगा जैसी कुछ खास ओबीसी जातियां आरक्षित नौकरियों का 97 फीसद पा जाती हैं, जबकि तकरीबन 37 फीसद ओबीसी जातियों का आरक्षित सीटों में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। रिपोर्टों के मुताबिक, आयोग ने सभी जातियों को समाहित करने के लिए ओबीसी कोटा में 3-4 उप-वर्गीकरण का सुझाव दिया है। ओबीसी जातियों का उप-वर्गीकरण कोई नया विचार नहीं है। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, झारखंड, बिहार, जम्मू-कश्मीर, हरियाणा और पुदुच्चेरी जैसे 11 राज्यों में यह पहले ही हो चुका है। नीतीश भी बिहार में महादलित जैसी उपेक्षित दलित जातियों के उप-वर्गीकरण से अच्छी-खासी चुनावी फसल काट चुके हैं। इधर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत भी कह रहे हैं कि उनका संगठन, “संविधान के तहत प्रदत्त आरक्षणों का समर्थन करता है।” यह 2015 के उनके उस बयान के एकदम विपरीत है, जब उन्होंने आरक्षण नीति की “सामाजिक समीक्षा” की अपील की थी। तो, क्या भाजपा इससे विपक्ष की रणनीति की काट निकाल लेगी?
विरोध के तेवरः तेलंगाना में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
दरअसल, जाति जनगणना की मांग काफी पुरानी है। आखिरी बार 1931 में अंग्रेजी राज में जातियों की जनगणना हुई थी। आजाद भारत में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की गणना का प्रावधान तो संविधान में दर्ज हुआ लेकिन बाकी जातियों को गिनने का प्रावधान साफ-साफ नहीं है, लेकिन वंचितों, पिछड़ों के सामाजिक-आर्थिक विकास और जातिगत जकड़न तथा अन्याय को दूर करने के लिए विशेष अवसर (सकारात्मक भेदभाव) के सिद्धांत को आगे बढ़ाया गया। इसी सिद्धांत के तहत काका कालेलकर आयोग बना, जिसने दलित और आदिवासी जातियों के अलावा अन्य पिछड़ों के लिए सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण की सिफारिश की। कालेलकर आयोग ने सभी वर्ग की महिलाओं को पिछड़ा माना था, लेकिन उस पर तब अमल नहीं हुआ। साठ के दशक में सोशलिस्ट पार्टी ने पिछड़ों के हक में आवाज उठाई। समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने ‘पिछड़ा पावें सौ में साठ’ का नारा लगाया, लेकिन 1977 में जनता पार्टी की मोरारजी देसाई सरकार ने मंडल आयोग का गठन किया, जिसने 1980 में इंदिरा गांधी सरकार को रिपोर्ट सौंपी। कांग्रेस उसके पक्ष में नहीं थी। 1990 में वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू की तब भी कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियां उसके विरोध में थीं।
मंडल आयोग के सामने आरक्षण का हिसाब तय करने के लिए 1931 की जनगणना के आंकड़े ही थे, जिसके मुताबिक पिछड़ों की आबादी 52 फीसदी होने का अनुमान था, लेकिन बिहार के सर्वे से जाहिर है कि उनकी आबादी का प्रतिशत उससे काफी ज्यादा है। एक विरोधाभास यह है कि विशेष अवसर के सिद्धांत को हमारे देश आगे बढ़ाने वाले महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, डॉ. आंबेडकर, राम मनोहर लोहिया वगैरह तमाम महापुरुषों का उद्देश्य जाति तोड़ो था, लेकिन आज जाति तोड़ने की बातें नदारद हैं, बल्कि जातिगत पहचान को मजबूत करने की कवायद दिखती है। मशहूर समाजशास्त्री सतीश देशपांडे का कहना है, “जाति जनगणना से उन समुदायों के विशेषाधिकार पर से परदा हटेगा तो समाज समरसता की ओर बढ़ सकता है।”
बहरहाल, फिलहाल तो जाति जनगणना के चुनावी असर पर ही नजर रहेगी। संभव है, इसका असर राज्य चुनावों और अगले लोकसभा चुनाव में दिखे। संभव है, चुनाव में कुछ दूसरे मुद्दे प्रभावी हो जाएं। सब कुछ अगले जनादेशों पर ही निर्भर करता है।