Advertisement

बिहार चुनाव: नई पीढ़ी की ऊंची उड़ान की ख्वाहिश, क्या पुष्पम प्रिया कर पाएंगी कमाल

उनकी वाक शैली आकर्षक है। वे प्राचीन मिथिला की प्रसिद्ध महिला दार्शनिक मैत्रेयी, गार्गी और ब्रिटेन की...
बिहार चुनाव: नई पीढ़ी की ऊंची उड़ान की ख्वाहिश, क्या पुष्पम प्रिया कर पाएंगी कमाल

उनकी वाक शैली आकर्षक है। वे प्राचीन मिथिला की प्रसिद्ध महिला दार्शनिक मैत्रेयी, गार्गी और ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर को एक साथ याद करती हैं। वे बिहार के महान इतिहास पुरुषों, मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त, अशोक और महान राजनैतिक रणनीतिकार चाणक्य के साथ-साथ कवि विद्यापति की भी बात करती हैं। लेकिन लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से लोक प्रशासन में डिग्रीधारी वह ट्विटर पर सिर्फ एक ही व्यक्ति को फॉलो करती हैं, सिमोन हिक्स। हिक्स वहीं काम करते हैं और चुनाव और चुनावी प्रणाली के वैश्विक विशेषज्ञ हैं।

मिलिए पुष्पम प्रिया चौधरी से, जिन्होंने बिहार चुनावों के दौरान बिगुल फूंक दिया है। जहां, मतदाताओं की वही शिकायतें हैं, वही पुराने चहरे हैं, चुनाव दर चुनाव घोषणापत्र भी वही हैं, ऐसे में कुछ हटकर एक विकल्प सामने है। एक युवा, जो पहली बार अपने राजनीतिक संगठन के साथ जातिग्रस्त चुनाव में पंखों वाले सफेद घोड़े के निशान के साथ चुनाव में उतर रही है। चौधरी को सिर्फ महत्वाकांक्षी कहना कम बयानी होगी। उन्होंने अपने लिए लक्ष्य ऊंचा रखा है। उनकी नजर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर है, उससे कम कुछ नहीं। उनकी इच्छा है कि वह अपने गृह राज्य की तकदीर पलट दें। उनके राजनीतिक विरोधी ठिठोली करते हैं! पहले चरण के मतदान के लिए दो सप्ताह का समय बचा है। यहां तक कि किसी पार्टी ने उनकी उपस्थिति को स्वीकार भी नहीं किया है। मगर वह शांति से चुनौती स्वीकार कर रही हैं। 

इसे अति आत्मविश्वास कहें या अनूठा भोलापन, वह पूरी गंभीरता के साथ अपना काम कर रही हैं, हर दिन धूल भरी गलियों की खाक छानती हैं, लोगों को शासन बदलने और बिहार को समृद्ध बनाने की जरूरत के बारे में बताती हैं। ब्रिटिश इंग्लिश, बिहारी हिंदी और मैथिली के मिलेजुले लहजे में जब वह अपनी पार्टी के विकास एजेंडे और विचारधारा के बारे में लोगों को बताती हैं तो लोग उनकी बात पर गौर करते हैं और उन्हें धैर्यपूर्वक सुनते हैं। कुछ लोग उनकी प्रशंसा करते हैं, तो कुछ अजरज से देखते हैं। कुछ जिज्ञासा में उनके पीछे जाते हैं। फेस मास्क सहित वह हमेशा पूरे काले कपड़ों में रहती हैं। इस पर कोई आश्चर्य करे, तो वह उसका मुंहतोड़ जवाब देने में भी जरा नहीं हिचकतीं। मौजूदा नेताओं का विरोध का यह उनका तरीका है। वह पूछती हैं, "वो लोग क्यों हर वक्त सफेद कपड़े पहने रहते हैं? संविधान ने क्या कोई ड्रेस कोड निर्धारित किया है? " मुस्तैद भीड़ वोटों में तब्दील होगी या नहीं इसकी परवाह किए बिना इतना तो है कि उन्होंने बिहार की राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है।

आत्मविश्वास या अनुभव की कमी को चौधरी खुद पर हावी नहीं होने देतीं। इससे बहुत आगे, वह अपने-अपने गठबंधनों के मुख्यमंत्री उम्मीदवार नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव को दुस्साहस भरी चुनौती देती हैं कि यदि उनमें हिम्मत है तो वे उनके खिलाफ चुनाव लड़ें। पटना की प्रतिष्ठित बांकीपुर सीट से अपनी उम्मीदवारी की घोषणा करने के बाद, चौधरी ने कहा, “बहुत सम्मान के साथ, मैं नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव को चुनौती देती हूं कि वे अपने मुख्यमंत्री उम्मीदवारों को ऐतिहासिक बांकीपुर सीट से चुनाव लड़ाएं।” बांकीपुर सीट पर पिछले तीन दशकों से भाजपा का कब्जा रहा है। बिहार के दिग्गजों पर वह कटाक्ष करती हैं, “उन्हें अपने 15 साल के कार्यकाल पर जनमत संग्रह कराना चाहिए। यह चुनाव उनके 30 साल और बिहार के बीच लड़ा जा रहा है। माननीय मुख्यमंत्री जी, आपने 15 साल में एक भी चुनाव नहीं लड़ा। आपको ऐसा करना चाहिए, क्योंकि बिहार जवाब चाहता है और हम बिना जवाब दिए हम आपको जाने नहीं देंगे।”

चौधरी आश्वस्त हैं कि बिहार बदलाव के लिए तैयार है। उन्होंने आउटलुक से कहा, “मुझे जैसी प्रतिक्रिया मिल रही है, वह मेरी उम्मीद से ज्यादा है। समाज के सभी वर्गों के लोग लंबे समय से चली आ रही समस्याओं से तंग आ चुके हैं।” चौधरी कहती हैं, बिहार में सभी दल दशकों से जाति के नाम पर राजनीति कर रहे हैं और मतदाताओं को कोई विकल्प नहीं दे रहे। वह पूछती हैं, “जब तक कोई विकल्प नहीं होगा, लोग जानेंगे कैसे? अब उनके पास एक विकल्प है।” उनके पास आत्मविश्वास का एक तार्किक कारण है। वह कहती हैं, “मैं उन्हें (मुख्यमंत्री पद के दोनों उम्मीदवारों) को हराने के लिए पूरी तरह आश्वस्त हूं क्योंकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया जटिल नहीं है।” वह कहती हैं, “आप अपने प्रदर्शन के आधार पर वोट मांगने के लिए लोगों के पास जाते हैं। 15 साल से ज्यादा समय तक सत्ता में रहे लोगों ने विकास के मामले में कुछ नहीं दिया। चाहे वह रोजगार सृजन हो या उद्योग स्थापित करना, पिछले 30 सालों में किसी भी पक्ष ने कोई काम नहीं किया है। जब मतदाताओं के सामने चीजों को सही परिप्रेक्ष्य में रखा जाएगा, तो वे वही चुनेंगे जो उनके हित में होगा। हमारा एजेंडा वही है, जिसकी आज बिहार को जरूरत है। अपना भविष्य चुनने का लोगों के पास यह अंतिम अवसर है।”

यही वजह है कि चौधरी की प्लुरल्स पार्टी सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। हालांकि पहले चरण की कई सीटों पर उनके उम्मीदवारों का नामांकन रद्द हो गया है। उन्होंने खुद भी पटना के बांकीपुर और मधुबनी की बिस्फी, दो सीटों से नामांकन भरा है। वह उन उम्मीदवारों को अंतिम रूप दे रही हैं, जिन्होंने ऑनलाइन माध्यम से आवेदन किया है। उनकी उम्मीदवारों की सूची में डॉक्टर, प्रोफेसर, शिक्षक, एक सेवानिवृत्त नौसेना अधिकारी, एक गृहिणी और यहां तक कि एक निजी जासूस भी शामिल है। हालांकि उनकी राजनीतिक शैली की तुलना अरविंद केजरीवाल की चुनावी रणनीति से की जा रही है। लेकिन चौधरी जोर देकर कहती हैं, कि उनका मॉडल अलग है। अलग इस मायने में कि उन्होंने अपने उम्मीदवारों के पेशे को ‘जाति’ और ‘बिहारी’ को उनका धर्म घोषित किया है।

मार्च में चौधरी तब चर्चा में आईं जब उन्होंने पटना के सभी प्रमुख अखबारों में खुद को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करते हुए दो पेज का विज्ञापन निकाला, जिसमें 2025 तक बिहार को सबसे विकसित राज्य और 2030 तक किसी भी यूरोपीय देश के बराबर बनाने का वादा किया गया था। यह विज्ञापन राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन से मात्र दो हफ्ते पहले प्रकाशित हुआ था। इस विज्ञापन ने लोगों को हैरान किया, यहां तक कि उनकी पहचान पर भी अटकलें लगाई गईं। कई लोगों ने इसे पब्लिसिटी स्टंट के रूप में देखा, कई लोगों ने उन्हें रईस एनआरआइ के रूप में लिया, जिसके लिए यह क्षणिक राजनीतिक महत्वाकांक्षा है।

यह जल्द ही स्पष्ट हो गया कि बिहार की राजनीति के लिए वह अजनबी नहीं है। चौधरी वास्तव में दरभंगा के एक राजनीतिक परिवार से ताल्लुक रखती हैं, जो कभी नीतीश कुमार का करीबी माना जाता था। उनके दादा समता पार्टी के दिनों से सीएम के सहयोगी थे, जबकि उनके पिता जद(यू) के विधायक रहे हैं। चौधरी ने अच्छी तैयारी के साथ खुद के लिए राजनीति को चुना है।

बिहार से बाहर जाने से पहले उनकी पढ़ाई दरभंगा में हुई। वह वहीं जन्मी और पली-बढ़ी हैं। चौधरी ने ससेक्स यूनिवर्सिटी से विकास अध्ययन में स्नातकोत्तर किया है। उन्होंने ‘बिहार की विफल नीतियों’ का अध्ययन किया और 2015 के बिहार विधानसभा चुनावों में मतदान के तरीके और मतदान व्यवहार पर प्राथमिक शोध भी किया। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की उनकी डिग्री इसी पर है। जब वह बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के साथ 2018-19 में विकसित लोकतंत्रों के लिए एक सार्वजनिक-नीति परियोजना पर काम कर रही थीं, तब बिहार में फैले इन्सेफेलाइटिस के कारण बच्चों की मौत की रिपोर्ट ने उन्हें बहुत व्यथित किया और वे वहां से वापस आ गईं। वह जोर देकर कहती हैं कि वे यहां सदा के लिए आई हैं।

विदेश में रहने के बावजूद, चौधरी भावनात्मक स्तर पर मतदाताओं से जुड़ी हैं। अपने प्रचार अभियान में उन्होंने मिथिला का खोइंछा कार्यक्रम शुरू किया है, जिसमें वह और उनके उम्मीदवार घरों में जाते हैं और महिलाओं से एक कपड़े में थोड़े से चावल और एक रुपये का सिक्का लेते हैं। बिहार में खोइंछा को सौभाग्य और आशीर्वाद का प्रतीक माना जाता है। चौधरी का कहना है कि जीत के बाद यह विकास के जरिए उनका कर्ज उतारने की याद दिलाता रहेगा। हालांकि संसाधन एक समस्या बनी हई है। वह कहती हैं कि क्राउडफंडिंग के अलावा राज्य के बाहर के भी दोस्तों सहित कई लोग उनके मिशन का समर्थन कर रहे हैं। एक निर्वाचन क्षेत्र से दूसरे निर्वाचन क्षेत्र में जाती हुई वह कहती हैं, “अब कोई भी पिछला चुनावी समीकरण काम नहीं करेगा। बिहार को अब चुके हुए लोग नहीं, उड़ने वाले घोड़े की जरूरत है।”

क्या मतदाता उनके पंखों वाले सफेद घोड़े को उड़ने का मौका देंगे या उनके सपनों को धरती पर ले आएंगे? यह तो मतगणना के दिन 10 नवंबर को ही पता चलेगा। लेकिन इसमें दो राय नहीं कि पुष्पम प्रिया ने दिलचस्प पहलू जोड़ दिया है।

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad