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बुक रिव्यू: 'ओटीपी' के आगे जहां और भी है, जो शायद खूबसूरत नहीं

किताब का नाम- ओटीपी प्लीज लेखक- वंदना वासुदेवन पृष्ठ- 341 कीमत- 499 प्रकाशन- पेंग्विन इंडिया   रात के ग्यारह...
बुक रिव्यू: 'ओटीपी' के आगे जहां और भी है, जो शायद खूबसूरत नहीं

किताब का नाम- ओटीपी प्लीज

लेखक- वंदना वासुदेवन

पृष्ठ- 341

कीमत- 499

प्रकाशन- पेंग्विन इंडिया

 

रात के ग्यारह बजे हैं। दिल्ली की बारिश अभी-अभी थमी है। मोबाइल पर एक नोटिफिकेशन आता है- “Your order is on the way.” हम निश्चिंत होकर अपने बिस्तर पर बैठ जाते हैं। कुछ ही देर में कोई गेट पर दस्तक देता है। भीगता हुआ एक लड़का पैकेट पकड़ा देता है। मुस्कुराता है, ओटीपी (OTP) पूछता है और अगली डिलीवरी की ओर भाग जाता है। हमारे लिए यह महज एक क्लिक है। एक क्लिक और भूख का समाधान लेकिन उस डिलीवरी बॉय के लिए यह उसकी पूरी दुनिया है।

इसी छोटे से पल को समझने की कोशिश करती है वंदना वासुदेवन की नई किताब OTP Please: Online Buyers, Sellers and Gig Workers in South Asia। यह किताब उन लोगों की कहानी है जो डिजिटल युग की रीढ़ हैं। इसमें, डिलीवरी बॉय, कैब ड्राइवर, लोकल वेंडर, होम-सर्विस प्रोवाइडर की कहानियां हैं। वो कहानियां जो हमसे और आपसे जुड़ी हैं। वो कहानियां, जिसमें हम भी एक पात्र हैं।

इन सभी वर्कर्स की मेहनत ने हमारे जीवन को 'स्मार्ट' बना दिया, लेकिन जिनके जीवन में स्थिरता और सुरक्षा दोनों ही 'अनएप्लिकेबल' हो चुके हैं। वासुदेवन की यह किताब हमें पटना से पेशावर और काठमांडू से कोलंबो तक घुमाती हैं। वो सिर्फ आंकड़े नहीं देतीं, वो उन आवाज़ों को शामिल करती हैं जिन्हें आम तौर पर कोई सुनता नहीं। 

जैसे पटना का एक दुकानदार जो कहता है, “अब ग्राहक दुकान पर नहीं आता। वो ऐप से मंगवाता है। लेकिन उस ऐप को चलाने के लिए मुझे अपना मुनाफा छोड़ना पड़ता है।”

लेखिका यह दिखाती हैं कि टेक्नोलॉजी केवल एक टूल नहीं है। यह एक नई संस्कृति बना रही है, जिसमें हर चीज़ ऑर्डर पर मिलती है, जैसे- खाना, टैक्सी, प्लंबर, यहां तक कि सुंदरता भी। लेकिन सवाल यह है कि इतनी सुविधा की कीमत कौन चुका रहा है?

किताब में गिरिधर सौंदरराजन का जिक्र है, जो मोटरसाइकिल के कुछ पार्ट्स को अमेज़न और फ्लिपकार्ट जैसे ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स पर बेचते थे। अपने अनुभव को वह ‘शोषण’ के रूप में दिखाते हैं।

उनकी सबसे बड़ी चिंता “रिटर्न पॉलिसी” है, जिसमें प्रोडक्ट खराब होकर लौटते हैं, पेमेंट में कटौती होती है और नकली ग्राहक स्टॉक को ब्लॉक कर देते हैं। वे कहते हैं, "हमारा स्टॉक लौटता है, टूटकर आता है और नुकसान का मूल्य भी वही तय करते हैं जिन्होंने नुकसान किया।" आखिरकार, उन्होंने इन प्लेटफॉर्म्स को छोड़कर अपनी वेबसाइट से बेचने का फैसला किया। ऐसी कई कहानियां हैं, जो अभी परतों में दबी हुईं थी, जिसके तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता था, वह यह किताब उजागर करती है।

किताब का सबसे असरदार हिस्सा गिग वर्कर्स की कहानियाँ हैं। कोई स्विग्गी डिलीवरी एजेंट कहता है कि अगर ऐप पर उसका 'रिस्पॉन्स टाइम' थोड़ा सा भी गिर जाए, तो अगले दिन उसे कम ऑर्डर मिलते हैं। एक उबर ड्राइवर बताता है कि एल्गोरिदम ने उसका बॉस बनकर रख दिया है। न चेहरा दिखता है, न बात होती है, लेकिन पूरा भविष्य उसी के हाथ में है।

इस किताब में एक कैब ड्राइवर ने महिला यात्रियों के गलत व्यवहार का दर्द साझा किया। नशे में धुत महिलाएं अशोभनीय भाषा बोलतीं, गाड़ी में झगड़ा करतीं और मनचाहा रास्ता अपनाने के लिए दबाव डालतीं। एक बार एक लड़की ने झूठा यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने की धमकी दी और उससे पैसे ऐंठ लिए। पुलिस ने भी ड्राइवर को ही समझौता करने की सलाह दी। इससे वह इतना टूट गया कि काम छोड़ने तक की सोचने लगा। वह कहता है, "हम कुछ नहीं कह सकते, क्योंकि आज के माहौल में हर बात पर सवाल उठते हैं।" यह कहानी एक अदृश्य डर की है। ऐसे कई कहानियां आपको झकझोर देंगी और सोचने पर मजबूर करेंगी कि 'सितारों के आगे जहां और भी है।' जो शायद इस शायरी जितना जहीन और खूबसूरत नहीं।

1990 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था का उदारीकरण हुआ। तब अर्थशास्त्रियों ने यह कहना था कि आने वाले समय में इसी का राज होगा। हुआ भी। लेकिन आज दुनिया, इससे कहीं आगे निकल चुका है। यह किताब कहीं‑न‑कहीं हमारे समाज की उस नई वर्ग व्यवस्था को भी टटोलती है जो टेक्नोलॉजी ने गढ़ी है। जिनके पास स्मार्टफोन, इंटरनेट और कार्ड हैं, वो ग्राहक बन गए। बाकी सभी सेवा प्रदाता। ग्राहक ओटीपी डालकर संतुष्ट हो जाता है, लेकिन उसके पीछे जो थकान, तनाव, ट्रैफिक और टारगेट्स हैं, उनका कोई ओटीपी नहीं होता।

कपिल शर्मा की फिल्म ज़्विगाटो (निर्देशक: नंदिता दास) ने एक डिलीवरी एजेंट की रोज़मर्रा की मुश्किल ज़िंदगी को परदे पर उतारा। उसे सराहा गया। उसी का विस्तृत और ह्यूमनाइज चित्रण इस किताब में है, जो आपको एक नजरिया देगा। लेखक ऑनलाइन इकोनॉमी को केवल श्रमिकों की नजर से नहीं, बल्कि ग्राहक और विक्रेता की नजरों से भी देखती हैं।

वासुदेवन की माने तो “पहले हम मोहल्ले के दुकानदार से बात करके सब्ज़ी लेते थे, अब हम अजनबियों से सेवाएं लेते हैं। यह सुविधा है, लेकिन इंसानी रिश्ता खो गया है।” किताब सिर्फ समस्याएँ नहीं गिनाती, बल्कि यह भी बताती है कि अगर सरकारें और कंपनियाँ चाहें, तो गिग वर्कर्स के लिए न्यूनतम वेतन, बीमा, और हेल्थ कवरेज जैसी बुनियादी चीजें लागू की जा सकती हैं। लेकिन इसके लिए सबसे पहले हमें, यानी ग्राहकों को अपनी आंखें खोलनी होंगी।

OTP Please किताब में बड़े-बड़े थ्योरी हैं, न तकनीकी शब्दों की चकाचौंध। यह सीधी, साफ़ और सच्ची बात करती है, उस नए समाज की जो हमारी स्क्रीन पर है, लेकिन ज़मीन से बहुत दूर जा चुका है। इस किताब को पढ़िए, अगर आप ऑनलाइन खाना मंगाते हैं या कोई भी सर्विस लेते हैं। इस किताब को पढ़िए, अगर आप एक इंसान हैं। इस किताब को पढ़िए, अगर आपको दूसरों का दर्द पराया नहीं लगता है।

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