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कार्टून चरित्र से प्रभावित होते बच्चे

आज के दौर में बच्चें कार्टून चरित्रों से बहुत प्रभावित हो रहे हैं। इन चरित्रों से उन पर क्या असर पड़ता है इसका लेखा-जोखा
कार्टून चरित्र से प्रभावित होते बच्चे

. चार साल की सम्मोहना अचानक यदि खेलते हुए, दौड़ते हुए गिर पड़े और कोई उसे उठा दे तो वह बदले में कहती है, 'मदद के लिए शुक्रिया।Ó ज्यादातर लोग इसे उसकी बाल सुलभ हरकत मान कर हंस देते हैं पर उसकी मां जानती है कि उसकी शब्दावली अब ऐसे ही शब्दों से बनी है।
. पार्थ का किस्सा भी इससे अलग नहीं है। तेज बुखार के चलते उसे अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। जब डॉक्टर उसे अस्पताल से छुट्टी दे रहे थे तो उसने डॉक्टर को कहा, 'मेरी जान बचाने के लिए आपका अहसानमंद रहूंगा।Ó कमरा ठहाकों से भर गया और डॉक्टर ने आश्चर्य व्यक्त किया कि छह साल का बच्चा ऐसी बात बोल सकता है।
. सुदीप्ति और सुनयना जुडवां हैं। सुदीप्ति को अक्सर गले में तौलिया या मां का पुराना दुपट्टा बांधे देखा जा सकता है। वह घर की 'सुपरमैनÓ है। वह इस उम्र में नहीं है कि सुपरमैन को 'जेंडरÓ से जोड़ कर देख सके। उसे बस इतना पता है कि हवा में उडऩे के लिए एक लहराती 'चादरÓ का होना जरूरी है।
ये कार्टून पीढ़ी के बच्चे हैं, इनका जीवन इन्हीं किरदारों के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गया है। बच्चों की सुबह कार्टून से शुरू हो कर शाम कार्टून पर खत्म हो जाती है। हर दौर में कार्टून चरित्रों को नए ढंग से परिभाषित किया जाता है। एक पीढ़ी बदलने के बाद अक्सर कहा जाता है, 'हमारे जमाने में...Ó यह हमारे जमाने में ऐसा तकिया कलाम है, जो छोटे बच्चों को हमेशा सुनना पड़ता है और इस मसले का आज न कुछ हुआ है और न आगे कुछ होगा। कार्टून चैनलों पर आने वाले किरदारों में इतनी विविधता रहती है कि किसी एक पर तो ध्यान जाएगा ही। कार्टून न दिखाया जाना किसी समस्या का हल नहीं है।
जिस उम्र में बच्चों को कार्टून की लत लगती है उस उम्र में बच्चे वास्तविकता और कल्पना के बीच फर्क करना नहीं सीखते। परदे पर घट रही हर बात उन्हें सच लगती है और सच में घट रही हर बात को वह अपने पसंदीदा चरित्र से जोड़ लेते हैं। इन्हें देख कर वे न सिर्फ कल्पना में बातें बुनते हैं, बल्कि व्यवहार करना भी सीखते हैं। सन 1961 से लेकर 1963 के बीच अलबर्ट बेंडुरा ने एक अध्ययन किया था। इसे बोबो डॉल प्रयोग के नाम से जाना जाता है। अलबर्ट का कहना था कि बच्चे देख कर ज्यादा सीखते हैं। इसके पीछे उद्देश्य यह था कि किसी बच्चे को सजा या इनाम मिलने भर से वह नहीं सीखता बल्कि कभी-कभी इनमें से कोई व्यवहार किसी और के साथ हो तो भी उन पर असर होता है। अलबर्ट ने साढ़े तीन साल से लेकर छह साल के बच्चे इस अध्ययन में शामिल किए। इन सब को बोबो डॉल दी गई। जब अधययन समूह के सदस्यों ने गुडिय़ा को प्रेम किया तो बच्चों ने भी वैसा ही किया। लेकिन जब उन्होंने गुडिय़ा को मारना शुरू किया तो बच्चों ने वही व्यवहार दोहरा दिया। इससे साबित हुआ कि बच्चों पर देखने का बहुत असर पड़ता है। बोबो डॉल गोल फूली हुई गुडिय़ा थी, जिसका तला भारी था और उसमें हवा भरी होती थी। एक बार घूंसा मारने पर यह दोबारा उठ खड़ी होती थी। इसी तरह की एक गुडिय़ा बाजार में मिलती है, जिसे 'हिट मीÓ कहा जाता है। इस अध्ययन के आधार पर ही कई बार मनोविश्लेषकों, मनोवैज्ञानिकों और बच्चों के व्यवहार पर अध्ययन करने वाले शोधार्थियों ने ये नतीजे निकाले कि कार्टून में क्या दिखाया जाता है, उस पर बच्चे का व्यवहार निर्भर करता है। जब चौबीसों घंटे चलने वाले टीवी चैनल नहीं थे तब भी कार्टून चरित्रों की कोई कमी नहीं थी। यह अलग बात है कि भारत में कार्टून चरित्रों का जन्म देरी से हुआ और जिनका हुआ भी वे प्रसिद्घि न पा सके। भारत में किसी भी चरित्र की हद बस पौराणिक पात्र तक ही सीमित थी। राम, कृष्ण, भीम, राजा दशरथ की कहानियां, कृष्ण की लीलाएं, कंस का वध बस इन्हीं के जरिए नायक बनाए गए।
जबकि उन्नत पश्चिमी देशों में फैंटम, रिब किर्बी, फ्लैश गार्डन, मैंड्रेक, आर्ची, गारफील्ड, टिनटिन और ऐसे कई चरित्र थे जो बच्चों के साथ किशोरों को भी लुभाते थे। सालों इनका जादू भारत में भी बड़ों के सिर चढ़ कर बोलता रहा। टाइम्स ऑफ इंडिया समूह ने इंद्रजाल कॉमिक्स नाम से इन कॉमिक्स के हिंदी अनुवाद की शृंखला शुरू की जिसमें फैंटम चलता-फिरता प्रेत हो गया और मैंड्रेक का घर 'जनाड़ू (जादू का घर)Ó इतना चर्चित हो गया कि हर बच्चे का सपना होता था कि उसके पास ऐसा घर हो! हालांकि इसी तरह भारतीयों ने भी कुछ कोशिश की। लेकिन भारत में कार्टून चरित्र कालजयी नहीं हो पाए। इनमें चाचा चौधरी अपवाद हैं। भारतीय कार्टून चरित्रों में सुपर हीरो तो नहीं, पर उस जैसा ही मार-धाड़ वाला एक चरित्र बनाया गया था, जो गुंडे, लुटेरों से खूब ढिशुम-ढिशुम करता था। आबिद सुरती ने इस चरित्र को बनाया था और हम इन्हें बेला-बहादुर के नाम से जानते हैं। मधु मुसस्कान कॉमिक्स के हंसोड़ डैडी जी, लोटपोट के मोटू-पतलू, जासूसी का कीड़ा लिए हुए राजन-इकबाल के चरित्रों ने भारतीय कॉमिक्स जगत को टेका लगाया। लेकिन ये ऐसे चरित्र नहीं थे जो हमेशा बने रहते। धीरे-धीरे इनकी चमक फीकी होती गई और इनकी जगह नए-नए चरित्र लेते गए।
पढऩे के लिए उस दौर में कोई कमी नहीं थी। इस बीच अनंत पै ने टिंकल की शुरुआत की और अमर चित्र कथा ने भी अपना अलग मुकाम बनाया। टिंकल में आने वाले एक चरित्र सुप्पंदी की नासमझी और तुरंत बुद्घू बन जाने से बच्चों में जो गुदगुदी पैदा होती थी, वह इसे आम कार्टून चरित्रों से बिलकुल अलग कर गई। उस दौर के बीत जाने के बाद बस बातचीत ही होती रही कि बच्चों की किताबों में कार्टून चरित्रों के खत्म हो जाने से उनके पास 'अपने सुपर हीरोÓ नहीं हैं। एक तरह का निर्वात जब पैदा हुआ तब प्राण ने इस खाली जगह में प्राण भरे। उनके बनाए पात्र-चाचा चौधरी, साबू, पिंकी, बिल्लू, बजरंगी पहलवान, गब्बर सिंह, रमन जी, झपट अंकल ऐसे प्रसिद्घ हुए कि आज तक कॉमिक किरदारों का मतलब चाचा चौधरी हो गया। लेकिन हर दौर जैसे बीतता है वैसे इनका दौर भी बीता और 'केबल टीवीÓ ने घर में घुसपैठ जमाना शुरू कर दिया। शुरुआत में कार्टूनों के पितामह अमेरिका के वॉल्ट डिज्नी के बनाए अंकल स्क्रूज, उनके भतीजे-ह्यूई, लुई और ड्यूई और मिकी, मिनी तथा प्लूटो को ही एनिमेशन रूप में ढाला गया और सिर्फ लंबे समय तक यही टीवी पर बच्चों का मनोरंजन करते रहे।
असली दिक्कतें तो तब शुरू हुईं जब टेलीविजन ने रात में सोना और दिन में सुस्ताना बंद कर दिया। जब रिमोट उठाओ, तभी कार्टून ने तो माता-पिता ही जान ही आफत में डाल दी। यह कार्टून चरित्रों का अपना आभामंडल था। बच्चों को कार्टून नहीं देखना चाहिए। पर क्यों, इसका सीधा-सीधा जवाब नहीं खोजा जा सका (यह अब भी अनुत्तरित है)। मोटे तौर पर बच्चों को कार्टून नुकसान पहुंचाते हैं या फायदा इसका सीधा-सीधा उत्तर नहीं मिला। कुछ अभिभावक मानते हैं कि यदि एक सीमा में रह कर देखा जाए तो कार्टून बुरे नहीं हैं, जबकि कुछ इतने घबराए होते हैं कि कार्टून का नाम सुनते ही उन्हें लगता है पता नहीं बच्चा इससे क्या सीख लेगा और उसके आचार-विचार सब दूषित हो जाएंगे। मुंबई की अर्पिता शर्मा का मानना है कि उनकी बच्ची को छोटा भीम कार्टून से बहुत फायदा मिलता है। वह छोटा भीम का अंग्रेजी में अनूदित कार्टून दिखाती हैं। लगभग हर दूसरे-तीसरे दिन उनकी बिटिया एक नए शब्द का अर्थ पूछती है या खुद अपनी समझ से किसी वाक्य में उसके प्रयोग की कोशिश करती है। लेकिन बात सिर्फ भीम पर शुरू हो कर खत्म नहीं हो जाती। निंजा हथौड़ी, पावर रेंजर्स, शिनचेन (हालांकि इसे भारत में प्रतिबंधित कर दिया गया है) ऐसे चरित्र हैं जिनके बारे में समवेत स्वर से 'नहींÓ की ही आवाज आती है।
एक बड़े तबके का गांव से शहर आना, परिवारों को छोटा होता जाना, बच्चों को रात में कहानी सुनाने की आदत का छूट जाना, बहुमंजिली इमारतों से घिरे कंक्रीट के जंगलों में खेलने की जगह का खत्म हो जाना ऐसे कई कारण हैं जो टीवी के आगे चिपकने को मजबूर करते हैं। जब भी कोई अपनी जमीन छोड़ कर आता है तो उसके पास सामाजिकता निभाने के लिए रिश्ते नहीं होते। ऐसे में जब तक बच्चों के दोस्त नहीं बनते, तब तक टीवी का ही सहारा होता है। अगर घर में अकेली महिला है और उसे घर के काम भी खत्म करने हैं तो टीवी उसके लिए सबसे बड़ा सहारा साबित होता है। टीवी चालू और बच्चे मशगूल। जाहिर सी बात है, यहां वहां कूदते-नाचते चित्र बच्चों को लुभाते हैं और उन्हें धीरे-धीरे इसकी लत लग जाती है। पिथौरागढ़ से हाल ही दिल्ली आई प्रिया पंत यूं तो बड़े खुले से अपार्टमेंट में रहती हैं। फिर भी वह अपने सात साल के बेटे आरव और चार साल की बेटी तन्वी को नीचे खेलने नहीं जाने देतीं। वह कहती हैं, 'हमारे आने के कुछ दिनों बाद ही बिल्डिंग के एक चौकीदार को बच्चों के साथ गलत हरकत करते हुए पकड़ा गया था। लोगों ने उसकी पिटाई कर उसे नौकरी से निकाल दिया। पर मेरे मन में इस घटना से इतनी दहशत है कि मैं बच्चों को नीचे खेलने भेजने के बजाय नजरों के सामने रखना ही पसंद करती हूं।Ó
टीवी के आगे पल-बढ़ रही पूरी एक पूरी पीढ़ी के लिए हमारा समाज भी उतना ही जिम्मेदार है। यदि हम बच्चों को सुरक्षित माहौल नहीं दे सकते तो कैसे कह सकते हैं कि टीवी बच्चों को बिगाड़ रहा है। मनोरंजन पर बच्चों का भी उतना ही हक है जितना किसी वयस्क का। कोई भी अभिभावक खुद धारावाहिक देखते हुए बच्चों को यह भाषण नहीं पिला सकता कि वह टीवी न देखे। बच्चों के शौक बहुत सीमित रहते हैं। वे ग्लाइडिंग, पैरासीलिंग या मोटे-मोटे उपन्यास पढ़ कर अपना वक्त नहीं गुजार सकते। उनके पास स्कूल के होमवर्क के अलावा और कोई तनाव नहीं रहता। ऐसे में या तो वे कहीं कूदना-फांदना चाहते हैं या फिर कंप्यूटर या टीवी की चकाचौंध में खो जाना चाहते हैं। निंजा हथौड़ी, ऑगी, भीम, सिंपसन उन्हें अपने आसपास के लोगों की तरह ही लगते हैं। उनके किरदार जैसा करते हैं, जैसा बोलते हैं, बच्चे वैसा ही होना चाहते हैं।
उनकी यही चाहत बाजार को भी बनाती है। बड़ी-बड़ी कंपनियां इसका फायदा उठाती हैं और चाहती हैं कि कार्टून चरित्रों का बाजार हमेशा समृद्घ रहे। जब टिनटिन का बोलबाला था तो बाजार इतना जवां नहीं हुआ था कि हर सामान बेच सके। आर्ची भारत में 'विदेशी लड़केÓ के नाम से प्रसिद्घ था। फिर धीरे-धीरे आर्चीज गैलरी (इसका कॉमिक पात्र आर्ची से कोई लेना-देना नहीं था) ने मग, फोटो फ्रेम और ग्रीटिंग्स कार्ड को प्रमोट करना शुरू किया। फिर जब मुट्ठी भर बच्चों के चैनल झोला भर हो गए तो भीम के चित्र, छपी चादरें, परदे, टिफिन बॉक्स, कम्पास बॉक्स, पानी की बोतल और न जाने किन-किन सामानों से बाजार अट गए। नव उदारवाद के दौर में बच्चों के बाजार ने नया प्लेटफार्म उपलब्ध कराया। बच्चों से जुड़े हर सामान पर किसी न किसी कार्टून चरित्र की छाप डाल दी गई। और कीमत? इसकी परवाह किसे थी। मुंहमांगी कीमत पर यह सामान लेना जरूरी था क्योंकि कोई भी माता-पिता मॉल की नफीसी जनता के बीच से टसुए बहाते अपने बच्चे को सेही की तरह धकेलते हुए बाहर लाना नहीं चाहता है। रोते बच्चों की हंसी की कीमत पर गुब्बारे से लेकर टीशर्ट तक सब कुछ हाजिर है।
कारण चाहे जितने हों, लेकिन यह तय है कि कार्टून चरित्रों का बाजार अब और बढ़ेगा ही। हर दिन खबरिया चैनल के साथ-साथ बच्चों के चैनल भी बढ़ते जा रहे हैं। जिनके घरों में बच्चे हैं वही समझ सकते हैं कि कार्टून की अच्छाई या बुराई की पड़ताल हो या न हो लेकिन कार्टून चैनलों के प्रसारण समय पर जरूर कोई न कोई ठोस नियम बनना चाहिए। चाइल्ड लॉक की थ्योरी अब पुरानी पडऩे लगी है क्योंकि जेनरेशन एक्स से भी आगे की एक और पीढ़ी आ गई है, जो चार या पांच महीने की होते-होते मोबाइल फोन पहचानने लगती है और थोड़ी सी समझदार होते ही उसे पता चल जाता है कि रिमोट का चाइल्ड लॉक कैसे खोला जाता है।
बेहतर यही है कि अच्छे या बुरे के बीच फंसने के बजाय माता-पिता खुद बच्चों के  साथ समय बिताएं और कार्टून न देखने के लिए भाषण पिलाने के बजाय उनके साथ बैठ कर कुछ खाएं-पिएं, जिएं और कोई अच्छा कल्पनाशील कार्टून हो तो वह भी देखें। यह सलाह नहीं स्नेह का संतुलन बनाने की कोशिश है।

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