राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में एक भूमि विवाद का निपटारा होने में 66 साल लग गए। मूल पक्षकारों की बहुत पहले ही मृत्यु हो चुकी है और अब एक स्थानीय अदालत ने कहा है कि यह मामला अपने वर्तमान स्वरूप में विचारणीय नहीं है।
दीवानी न्यायाधीश कपिल गुप्ता 1959 के एक मामले पर सुनवाई कर रही थीं, जिसमें वादी मोहन लाल ने अदालत से अनुरोध किया था बिल्डर के खिलाफ अनिवार्य निषेधाज्ञा जारी की जाए, क्योंकि वे उनकी सहमति के बिना उनकी भूमि पर अतिक्रमण करके कॉलोनी का निर्माण कर रहे हैं।
अदालत ने कहा कि यह मुकदमा खारिज किये जाने योग्य है, क्योंकि वादी का दिल्ली के बसई दारापुर क्षेत्र में स्थित भूमि पर कब्जा नहीं था और वह केवल औपचारिक आदेश जारी करवाकर राहत मांग रहा था।
प्रतिवादी का प्रतिनिधित्व कर रहे अधिवक्ता अमित कुमार ने बताया कि कॉलोनी का निर्माण पहले ही हो चुका है, जिससे डेवलपर्स पर रोक लगाने की याचिका निरर्थक हो गई है।
अदालत ने तीन फरवरी के अपने आदेश में कहा, "बताया गया है कि प्रतिवादी भूखंडों की बिक्री का व्यवसाय कर रहे हैं और खुद को नजफगढ़ रोड पर स्थित मानसरोवर गार्डन नामक कॉलोनी का मालिक बताते हैं।"
अदालत ने कहा कि याचिका में दावा किया गया है कि छोटे लाल और अन्य प्रतिवादियों ने 1957 में नगर नियोजन योजना के तहत मानसरोवर गार्डन कॉलोनी की मंजूरी के लिए दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) के समक्ष एक लेआउट योजना प्रस्तुत की थी और "मोहन लाल से संबंधित विवादित भूमि को उनकी सहमति के बिना इसमें शामिल कर दिया था।"
अदालत ने कहा कि मामला "मौजूदा स्वरूप में विचारणीय नहीं है" क्योंकि इसमें कब्जा छुड़ाने की मांग नहीं की गई है, तथा केवल रोक लगाने की मांग की गई है।”
अदालत ने यह कहते हुए मुकदमा खारिज कर दिया कि वादी अपने दावों और आरोपों को साबित करने में असफल रहा।