कई नेताओं, आदिवासी कमांडरों के कथित मुठभेड़ में मारे जाने या सरेंडर करने से क्या माओवादी आंदोलन आखिरी मुकाम पर?
आंध्र प्रदेश में कथित एनकाउंटर में कम से कम तेरह माओवादी मारे गए, जिनमें प्रतिबंधित भाकपा (माओवादी) संगठन के दो सेंट्रल कमेटी के सदस्य भी हैं। माओवादियों को “खत्म” करने की केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की तय डेडलाइन से कुछ महीने पहले, सरकार और सुरक्षा बल इस ऑपरेशन को “माओवादी-मुक्त भारत” की दिशा में एक बड़ा कदम बता रहे हैं। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना नक्सलबाड़ी से भी पहले में क्रांतिकारी वामपंथी आंदोलन का गढ़ माना जाता है। इसलिए इस ऑपरेशन को माओवादियों के खिलाफ केंद्र सरकार की बड़ी जीत के तौर पर देखा जा रहा है, जिसे पहली बार 2006 में यूपीए सरकार के दौरान औपचारिक रूप दिया गया था।
पुलिस ने 19 नवंबर को दावा किया कि आंध्र प्रदेश के अल्लूरी सीताराम राजू जिले में एक एनकाउंटर में सात माओवादी मारे गए। पुलिस अधिकारियों ने बताया कि मारे जाने वालों में भाकपा (माओवादी) सेंट्रल कमेटी के सदस्य तथा आंध्र-ओडिशा बॉर्डर कमेटी के इंचार्ज मेट्टुरी जोगा राव उर्फ टेक शंकर भी था। पुलिस के मुताबिक, मरने वालों में तीन महिलाएं भी थीं।
एक दिन पहले, 18 नवंबर को पुलिस छापे और उसके बाद ‘एनकाउंटर’ में छह माओवादी मारे गए थे, जिनमें सेंट्रल कमेटी के सदस्य तथा दक्षिण बस्तर बटालियन का कमांडर माडवी हिडमा भी था।
हिडमा के मारे जाने से गुरिल्ला संगठन को गहरा झटका लगा। उसे कई बड़े हमलों का मास्टरमाइंड माना जाता है, जिसमें 2010 में दंतेवाड़ा का हमला भी है। उस हमले में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के 76 जवान मारे गए थे। पुलिस के मुताबिक, वह 2013 के झीरम घाटी हमले में भी था, जिसमें कांग्रेस के बड़े नेताओं समेत 27 लोग मारे गए थे और 2021 के सुकमा हमले में भी उसकी अहम भूमिका थी, जिसमें 22 अर्द्धसैनिक बलों के जवान मारे गए थे।
हिडमा शायद माओवादी संगठन का अकेला आदिवासी नेता था, जो उसकी सेंट्रल कमेटी तक पहुंचा था। कई सेंट्रल कमेटी सदस्यों की मौत अति वामपंथी आंदोलन के इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा झटका है। कई जानकार अब यह तर्क दे रहे हैं कि माओवादी आंदोलन शायद अपने आखिरी दौर में पहुंच रहा है। हालांकि कई मानवाधिकार संगठनों ने एनकाउंटर के पुलिसिया वर्जन पर शक जताया है।
आंध्र प्रदेश या तेलंगाना सिर्फ नक्सली या माओवादी आंदोलन का ही गढ़ नहीं रहा है बल्कि आजादी के शुरुआती दिनों में ही यह इलाका खेतिहर मजदूरों के संघर्ष की गवाह बनी थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने यहां जमींदारों और निजाम के खिलाफ जंग छेड़ी और सैकड़ों गांवों को आजाद कराया। लेकिन पुलिस और फौज की कार्रवाई से उस विद्रोह को दबा दिया गया था।

हिडमा की अंत्येष्टि
मानवाधिकार कार्यकर्ता और लेजिस्लेटिव काउंसिल के पूर्व सदस्य प्रो. एम. कोडंडारम कहते हैं, “आंध्र प्रदेश में नक्सली आंदोलन ने कम से कम 1980 और 1990 के दशक में ग्रामीणों के बीच बहुत असर डाला। नक्सली आंदोलन की सबसे बड़ी कामयाबी यह रही कि उसकी राजनैतिक सक्रियता की वजह से जमींदारों का आतंक खत्म हो गया। वे ग्रामीण गरीबों में राजनैतिक चेतना पैदा करने में कामयाब रहे। उनके पतन के दो कारण हैं, पहला सरकारी दबाव, दूसरा राजनैतिक लाइन जनता के बदलते नजरिए से मेल नहीं खा सकी।”
रिवोल्यूशनरी वायलेंस ऐंड डेमोक्रेसी के एक खंड के संपादक, जेएनयू के अजय गुडावर्ती की दलील है कि यह बुनियादी सवाल बना रहेगा कि आदिवासियों का क्या होगा? क्या उन्हें खनन और खनिज संसाधनों के लिए विस्थापित किया जाता रहेगा?
गुडावर्ती कहते हैं, “यह अजीब बात है कि आमदनी में गैर-बराबरी और आर्थिक तंगी के और गहराने के बावजूद माओवादी आंदोलन को सबसे बड़े झटके लग रहे हैं।” उनका तर्क है कि इसका मुख्य कारण आंदोलन की सोच में अड़ियलपन और खुद को ढालने में नाकामयाबी है। वे कहते हैं, “लेकिन इन सबके बावजूद जब पूरी राजनैतिक मुख्यधारा में भाजपा से लेकर वामपंथी पार्टियों तक हर कोई एक जैसी आर्थिक नीतियां अपनाता है। इस तरह, अगर सरकार माओवादियों को हराने में कामयाब भी हो जाती है, तो भी असल मुद्दे अनसुलझे रह जाते हैं।”
हालांकि जिन लोगों से आउटलुक ने बात की, उनमें इस बात पर आम सहमति है कि कोई भी क्रांतिकारी आंदोलन तब तक नहीं टिक सकता जब तक वह आज की उम्मीदों से मेल न खाता हो, कुछ लोग इस दूरी के कारणों पर सहमत नहीं हैं। महाराष्ट्र में गिरफ्तार किए गए माओवादी विचारक मुरली कनम्मपल्ली कहते हैं कि उनकी समझ से माओवादी आंदोलन ने अलग-अलग इलाकों में बदलते हालात को समझने और उसके हिसाब से रणनीति बनाने की कोशिश की है। लेकिन, वे कहते हैं, “जो दमन किया गया वह इतना क्रूर था कि किसी भी तरह की कोई भी गतिविधि पनपने नहीं दी गई। हालांकि झटका गंभीर है, लेकिन यह कहना बेतुका है कि यह देश में क्रांतिकारी राजनीति का अंत है।”
कुछ जानकार यह भी सवाल उठाते हैं कि माओवादियों के साथ पूर्वोत्तर और अन्य जगहों के दूसरे विद्रोही गुटों जैसा बर्ताव क्यों नहीं किया जाता, खासकर तब जब उन्होंने बातचीत में शामिल होने की इच्छा जताई थी। रिवोल्यूशनरी राइटर्स एसोसिएशन के सदस्य, उस्मानिया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर सी. कासिम कहते हैं कि सरकार को ज्यादा जिम्मेदारी दिखानी चाहिए थी और शांति-सुलह की बातचीत का ऑफर मान लेना चाहिए था। वे आगे कहते हैं, “यह अलग बात है कि माओवादी अपनी रणनीति और कार्यक्रम को अपडेट किए बिना जिंदा नहीं रह सकते थे, वे आज के समय में पुराने लगते हैं।”
नक्सली-माओवादी आंदोलन दुनिया का सबसे लंबे समय तक चलने वाला विद्रोह है। पुराने तरीकों और पुराने प्रोग्राम ने शायद उसके खत्म होने की रफ्तार तेज कर दी है। बड़ा मुद्दा यह है कि क्या सरकार उन गहरी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को हल करने के लिए काम करेगी, जिससे इस आंदोलन को धार मिली थी।