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आधुनिक विवाह के संकट, आधुनिक रिश्तों में उलझन

वे साथ रहते हैं, एक ही छत के नीचे, एक ही कमरे में, लेकिन मनों के बीच कई दरवाज़े बंद पड़े रहते हैं। आधुनिक...
आधुनिक विवाह के संकट, आधुनिक रिश्तों में उलझन

वे साथ रहते हैं, एक ही छत के नीचे, एक ही कमरे में, लेकिन मनों के बीच कई दरवाज़े बंद पड़े रहते हैं। आधुनिक विवाह में यह संकट बेहद आम हो चला है कि शारीरिक समीपता होते हुए भी भावनात्मक दूरी बहुत अधिक होती है। पहले जहाँ पति-पत्नी एक-दूसरे के सुख-दुख के हिस्सेदार होते थे, अब वे एक साथ रहकर भी अपने-अपने जीवन में अकेले हो चले हैं। यह अकेलापन सिर्फ एकांत का नहीं, बल्कि उस संवाद की अनुपस्थिति का है जो दो व्यक्तियों को एक बंधन में बाँधता है। दिन भर की थकान, व्यस्त दिनचर्या, करियर की होड़ और डिजिटल डिस्ट्रैक्शन ने दाम्पत्य जीवन को एक ऐसी दिनचर्या में बदल दिया है जहाँ साथ तो होता है, पर साथ होना महसूस नहीं होता। सुबह की शुरुआत मोबाइल अलार्म से होती है और रात की समाप्ति भी स्क्रीन के नीले उजाले में। जीवन का सबसे महत्वपूर्ण रिश्ता धीरे-धीरे आदत या सामाजिक जिम्मेदारी में बदल रहा है, जहाँ प्रेम की जगह केवल औपचारिकता रह गई है।

इस एकाकीपन को और गहरा बनाता है संवाद का अभाव। आज की पीढ़ी खुलकर बातें नहीं कर पाती। मोबाइल पर घंटों बिताने वाले लोग जब एक-दूसरे के आमने-सामने होते हैं, तो चुप्पी उन्हें ज़्यादा सहज लगती है। भावनाओं को व्यक्त करने की कला, जो रिश्तों की आत्मा होती थी, अब ग़ायब होती जा रही है। Harvard Business Review (2021) की एक रिपोर्ट के अनुसार, 58% विवाहित लोग यह स्वीकारते हैं कि वे अपने जीवनसाथी से खुले दिल से बात करने में कठिनाई महसूस करते हैं। यही नहीं, भारत के TISS (Tata Institute of Social Sciences) की 2020 की एक स्टडी में यह सामने आया कि शहरी दंपतियों में से हर तीसरा जोड़ा अपने रिश्ते में “कथनहीनता” यानी silent marriage की स्थिति का सामना कर रहा है। जब बोलना बंद हो जाता है, तो मन में एक शून्य भरने लगता है, जिसे कोई ‘डिनर डेट’ या ‘सोशल मीडिया पोस्ट’ नहीं भर सकती। लोग साथ होते हैं, लेकिन उन्हें सुनने वाला कोई नहीं होता, और यही वह मानसिक रिक्तता है जो विवाह को धीरे-धीरे भीतर से खोखला कर देती है।

अकेलापन सिर्फ संवादहीनता का परिणाम नहीं, बल्कि उस अधूरी समझ का भी है जो दो व्यक्तियों के बीच समय के साथ विकसित होनी चाहिए। शादी को अब एक ‘परिणाम’ मान लिया गया है, प्रक्रिया नहीं। विवाह के बाद का जीवन, जो पहले मिलकर सीखा और जिया जाता था, अब उसमें लोग तयशुदा भूमिकाएँ निभाते हैं -पति कमाने वाला, पत्नी घर संभालने वाली (या फिर दोनों कमाने वाले)। लेकिन इन भूमिकाओं के बीच वे एक-दूसरे के मन को समझना भूल जाते हैं। National Family Health Survey (NFHS-5) के अनुसार, भारत में 31% शहरी विवाहित महिलाएँ यह महसूस करती हैं कि उन्हें अपने जीवनसाथी से पर्याप्त भावनात्मक सहयोग नहीं मिलता। यही नहीं, 2022 में International Journal of Psychology and Behavioral Science ने भारत के उत्तर और पश्चिमी क्षेत्रों में किए गए एक अध्ययन में पाया कि 46% विवाहित पुरुष भी यह महसूस करते हैं कि उन्हें अपने जीवन में पर्याप्त “इमोशनल स्पेस” नहीं मिलता। यानी समस्या एकतरफा नहीं है-समझ का अभाव दोनों ओर है, लेकिन कोई पहल नहीं करता। विवाह में एक-दूसरे की भाषा को समझना, उनकी चुप्पी के अर्थ को पढ़ना, और उनके बदलावों को सम्मान देना, यही वह मानवीय गहराई है जिसकी कमी आज के विवाह में सबसे ज़्यादा है।

तकनीक ने जहाँ दुनिया को जोड़ा है, वहीं व्यक्तिगत रिश्तों में दूरी बढ़ा दी है। अब लोग घर आकर मोबाइल स्क्रीन में डूब जाते हैं, और असल दुनिया के लोग उनके लिए पृष्ठभूमि बन जाते हैं। पहले जहाँ दिन भर की बातें चाय पर साझा होती थीं, अब रात तक भी कुछ नहीं कहा जाता। सोशल मीडिया पर तस्वीरें ज़रूर साझा होती हैं-हनीमून, डिनर डेट्स, एनिवर्सरी सेलिब्रेशन-लेकिन भीतर एक ख़ालीपन है, जिसे कोई तस्वीर भर नहीं सकती। विवाह अब ‘पार्टनरशिप’ से ज़्यादा ‘प्रोजेक्ट’ बनता जा रहा है, जिसमें लक्ष्यों की सूची है लेकिन आत्मीयता की जगह नहीं। यही कारण है कि आज मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं में ‘मैरेटल लोनलीनेस’ एक प्रमुख वजह बन चुकी है। World Health Organization की 2021 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में हर 10 में से 4 विवाहित व्यक्तियों को मानसिक थकान और अकेलेपन की शिकायत रहती है, और उनमें से अधिकांश तकनीक से जुड़े अत्यधिक व्यस्त जीवन को इसका कारण मानते हैं। रिश्तों में तकनीकी जुड़ाव तब तक ही लाभकारी है जब तक वह मानवीय जुड़ाव को पीछे न छोड़ दे।

इस संकट से बाहर आने के लिए सबसे पहली आवश्यकता है-सुनने और समझने की कला को पुनर्जीवित करना। रिश्ते तब फलते हैं जब उन्हें समय, संवाद और संवेदना मिलती है। पति-पत्नी के बीच सिर्फ दायित्वों का नहीं, आत्मीयता का रिश्ता होना चाहिए। अगर दिन के कुछ पल सिर्फ बात करने, बिना फोन के आँखों में आँखें डालकर सुनने में लगाए जाएँ, तो बहुत-सी दूरियाँ घट सकती हैं। विवाह में “मैं” और “तुम” की जगह “हम” को जगह देनी होगी। रिश्तों में छोटी-छोटी बातों की बड़ी अहमियत होती है-कभी एक साथ खाना खाना, कभी बिना वजह टहलने निकल जाना, कभी बस चुपचाप बैठकर हाथ थाम लेना। इन पलों में वह शांति है जो सबसे बड़ी थेरेपी है। विवाह को निभाना कोई भार नहीं, बल्कि रोज़ की छोटी कोशिशों का संगम होना चाहिए। Relationship Studies Institute, Bengaluru के अनुसार, 80% ऐसे जोड़े जिनमें नियमित ‘विस्तृत संवाद’ होता है, उनके संबंध अधिक संतुलित और दीर्घकालिक होते हैं। यानी संवाद ही वह औषधि है जो रिश्तों की आत्मा को फिर से जीवित कर सकती है।

अंततः सवाल यही है कि क्या हम विवाह को एक साझा यात्रा मानते हैं या एक साथ बिताए गए वर्षों की गिनती? आधुनिकता हमें तेज़ दौड़ने के लिए उकसाती है, पर रिश्ते रुककर चलने की मांग करते हैं। साथ रहकर भी अकेले महसूस करना एक चेतावनी है-कि कुछ छूट रहा है, कुछ कहा नहीं जा रहा, और कुछ सुना नहीं जा रहा। लेकिन यह स्थिति अंतिम नहीं है। यदि हम अपने दाम्पत्य जीवन में संवाद, सहानुभूति और एक-दूसरे की उपस्थिति को महत्व दें, तो यह अकेलापन घट सकता है। विवाह तभी सार्थक है जब उसमें दोनों लोग खुद को सुना, समझा और अपनाया हुआ महसूस करें- वरना यह साथ बस एक सामाजिक दिखावा बनकर रह जाएगा। आज, जब दुनिया तेज़ी से बदल रही है, हमें रिश्तों को धीमा, गहरा और सच्चा बनाना होगा। क्योंकि आख़िर में, इंसान को दुनिया से नहीं, अपने सबसे नज़दीकी रिश्ते से सबसे ज़्यादा सुख या दुःख मिलता है। विवाह यदि सच्चा साथ है, तो वह अकेलापन नहीं, आत्मा की उपस्थिति बनना चाहिए।

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