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आदिवासी अधिकारों की लड़ाई से लेकर जेल की सलाखों तक, जानें कौन थे स्टेन स्वामी

पिछले साल एल्गार परिषद मामले में गिरफ्तार मानवाधिकार कार्यकर्ता फादर स्टेन स्वामी का सोमवार को निधन...
आदिवासी अधिकारों की लड़ाई से लेकर जेल की सलाखों तक, जानें कौन थे स्टेन स्वामी

पिछले साल एल्गार परिषद मामले में गिरफ्तार मानवाधिकार कार्यकर्ता फादर स्टेन स्वामी का सोमवार को निधन हो गया। रविवार तड़के तबीयत बिगड़ने के बाद 84 वर्षीय स्वामी को वेंटिलेटर पर रखा गया था।

बता दें कि स्टेन स्वामी को बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश पर 30 मई को मुंबई के अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उनके वकील ने जानकारी दी कि 4 जुलाई को उनकी सेहत बिगड़ गई, जिसके बाद उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया।

84 साल के स्टेन स्वामी को महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) ने आठ अक्टूबर 2019 को बगईचा से गिरफ्तार किया गया था। स्टेन स्वामी सहित 16 लोगों पर भीमा कोरेगांव इलाके में हिंसा की योजना बनाने और अंजाम देने का आरोप था। उन पर राज्य के खिलाफ साजिश और माओवादियों को सहयोग देने के भी आरोप थे। हालांकि स्टेन स्वामी अपने ऊपर लगे आरोपों को सिरे से खारिज करते रहे। तब से वे जेल में ही थे। उनकी जमानत अर्जियां ही बार-बार खारिज नहीं होतीं, बल्कि पार्किंसन के शिकार स्टेन स्वामी को पानी पीने के लिए एक स्ट्रॉ मुहैया कराने में भी ना-नुकुर किया जाता रहा। आखिर महीनों बाद किसी की मदद से वह स्ट्रॉ हासिल कर सके।

दरअसल, मानवाधिकार कार्यकर्ता फादर स्टेन स्वामी ‘बगईचा’ नाम की एक स्वयंसेवी संस्था चला रहे थे। जहां से संघर्ष, समन्वय, अधिकार और मानवाधिकार के फूल खिलाए जाते रहे हैं। स्टेन स्वामी इसके अभिभावक थे। लंबे समय से यही उनका ठिकाना और संघर्ष का केंद्र रहा।

एक साल से अधिक से बगईचा बिना अभिभावक के है। बगईचा में कोई एक सौ लोगों के एक साथ ठहरने के लिए कमरे, किचन और डाइनिंग हॉल है। स्टेन स्वामी की गिरफ्तारी के बाद बगईचा को कुछ लोग शक की नजर से देखने लगे, तो बगईचा के लोग अनजान लोगों को संशय और शक के भाव से देखने लगे। यहां के गरीब आदिवासियों, विस्थापितों और मानवाधिकार की समस्या को देखते हुए करीब 55 साल पहले स्टेन स्वामी झारखंड आए थे। फिर भारतीय सामाजिक शोध संस्थान के निदेशक बनकर 15 साल बेंगलूरू में रहे। झारखंड के इलाकों में काम किया और 2006 में बगईचा की नींव रखी। यहां विभिन्न तरह के प्रशिक्षण के काम शुरू किया। विस्थापन की समस्या है तो क्यों हैं, इसके लिए क्या कदम उठाने की जरूरत है, विस्थापित लोगों के मामले में नियम-कानून का पालन हो रहा है या नहीं आदि मसलों पर वे सरकार को लिखते हैं। फिर भी यदि सुनवाई न हो, तो अदालत जाकर वंचितों को न्याय दिलाना उनका काम रहा है। गरीबों से जुड़ी सरकार की भोजन का अधिकार, मनरेगा, सामाजिक सुरक्षा जैसी योजनाओं के बारे में लोगों को प्रशिक्षित करना, उनका फायदा कैसे मिले बताना, महिलाओं में नेतृत्व क्षमता का विकास, ये सब बगईचा की ट्रेनिंग का हिस्सा है। नियमित अंतराल पर दो-चार दिनों का प्रशिक्षण चलता रहता है। पुलिस मुठभेड़ और उग्रवादी के नाम पर लोगों की हत्या या जेल में बंद कर दिए गए लोगों के लिए भी फादर लड़ते थे। उनके मिशन में ऐसे मामलों में पीयूसीएल से जुड़कर पीड़ितों की मदद करना और फैक्ट फाइंडिंग टीम बनाकर मानवाधिकार आयोग से मदद दिलाना शामिल था। इसी तरह के मामलों में जेल में बंद कोई चार हजार बंदियों के लिए वे न्याय की लड़ाई लड़ रहे थे। बगईचा से जुड़े लोगों को लगता है कि शायद इसी कारण स्टेन स्वामी सरकार के निशाने पर थे। कोरोना के समय भी बगईचा ने प्रवासी मजदूरों के लिए सहायता केंद्र शुरू किया। विभिन्न संगठनों, लोगों की मदद से मजदूरों के आने, मनरेगा आदि के जरिये उन्हें काम दिलाने, सरकार से समन्वय करने का काम बगईचा ने किया। बगईचा से जुड़े एक प्रतिनिधि ने कहा कि स्टेन स्वामी अपने लेखों के जरिये लोगों को जागरूक करते थे, उनके जाने के बाद से लोगों में भय और संशय का माहौल है। लेखन, शोध और सरोकार का काम बुरी तरह प्रभावित हुआ है। प्रशिक्षण का काम 70 फीसदी कम हो गया है। आदिवासी संगठनों के बीच जुड़ाव का काम कमजोर हुआ है। जेल में बंद चार हजार कैदियों के लिए जनहित याचिका का काम भी आगे नहीं बढ़ रहा है।

स्टेन स्वामी के पक्ष में रांची में मानव श्रृंखला

स्टेन स्वामी के सपनों को अब बगईचा के निदेशक सोलोमन साकार करने में जुटे हैं। उनके अनुसार फादर स्टेन स्वामी के जाने के बाद मानवाधिकार के प्रति सोच जाहिर करने की क्षमता में कमी आई है। वे बगईचा के अभिभावक की तरह थे। उनकी कमी खल रही है। 70 फीसदी काम प्रभावित है। फादर के जाने के बाद कोरोना से भी काम प्रभावित हुआ। यहां निजी से लेकर सरकारी एजेंसियों तक के समन्वय से प्रशिक्षण का काम चलता रहता है।

स्टेन स्वामी दशकों से झारखंड के आदिवासी, मूलवासी के अधिकारों के लिए काम रहते रहे हैं। उन्होंने पिछली भाजपा की अगुआई वाली राज्य सरकार के सीएनटी, एसपीटी कानूनों में संशोधन और लैंड बैंक नीति का भी विरोध किया। संविधान की पांचवीं अनुसूची और पेसा कानून के क्रियान्वयन के लिए भी वे लगातार अभियान चलाते रहे हैं। यही कारण है कि उनके समर्थकों की बड़ी जमात है।

उनकी गिरफ्तारी के बाद देश और विदेश के चर्च से जुड़े और कई मानवाधिकार संगठनों ने रिहाई की अपील की थी। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन कहा कि विरोध की हर आवाज दबाने की यह सनक है। उनको चाहने वालों के दर्जनों संगठनों ने मानव शृंखला बनाकर बिरसा समाधि स्थल पर कई दिनों तक प्रदर्शन से लेकर राजभवन तक मार्च किया। उधर लंदन, इंग्लैंड और वेल्स के बिशप कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष कार्डिनल विसेंट निकोल्व, ब्रिटेन के जेसुइट्स के प्रोविंशियल फादर डेमियन हॉवर्ड ने भी भारत सरकार से मानवीय आधार पर स्टेन स्वामी को जमानत देने का अनुरोध किया। लेकिन सरकार और अदालतों का रवैया अपनी जगह बना हुआ है।

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