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गांधी जयंती विशेष: लोकगीतों के हर रंग में गांधी का भी जिक्र

“सोहर, कजरी, फाग से लेकर झूमर और विवाह गीत तक गांधी के रंग में रंगे” मुल्क आजादी के 75वें वर्ष में है।...
गांधी जयंती विशेष: लोकगीतों के हर रंग में गांधी का भी जिक्र

“सोहर, कजरी, फाग से लेकर झूमर और विवाह गीत तक गांधी के रंग में रंगे”

मुल्क आजादी के 75वें वर्ष में है। संयोग ही कहिए कि पिछले पांच साल से एक-एक कर कड़ियां जुड़ती जा रही हैं। 2016 में चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष शुरू हुआ। उसके बाद गांधीजी का 150वां जयंती वर्ष आया और अब आजादी का अमृत वर्ष। इन पांच वर्षों में अनेक तरीके के आयोजन हुए। मगर एक जरूरी पक्ष अछूता रहा है। चाहे गांधीजी का चंपारण सत्याग्रह हो, राजनीतिक सफर या आजादी की पूरी लड़ाई, इन सबमें लोक पक्ष मुखर और प्रभावी था। आजादी की लड़ाई लंबी रही। आजादी का पहला संग्राम 1857 की क्रांति को एक लैंडमार्क माना गया। 1857 से 1947 तक आजादी की लड़ाई का मूल कालखंड है। इस दौर में गहरे सरोकार और व्यापक विस्तार के साथ बिहार के लोकगीतों ने हथियार-औजार की भूमिका निभाई थी।

1857 की लड़ाई के समय आम जनमानस लोकगीतों को रचकर, गाकर लोगों को गोलबंद भी कर रहा था। मसलन, 1857 के एक नायक कुंवर सिंह जीते जी लोकगीतों का हिस्सा बन गए थे। होली-फाग से लेकर चैता-चैती तक तब 1857 की क्रांति और कुंवर सिंह के रंग में रंग गए थे। बाद में मंगल पांडेय, कुंवर सिंह की लड़ाई, उनके पराक्रम पर अनेक कालजयी लोकगीत रचे और गाए गए। आज भी बिहार में इस फाग गीत के बिना फगुआ का त्योहार पूरा नहीं होता- बाबू कुंवर सिंह तेगवा बहादुर, बंगला पर उड़ेला अबीर...

1857 से इस तरह के गीतों का सिलसिला शुरू हुआ और बाद में इसका अपार विस्तार होता गया। चंपारण में जब गांधीजी पहुंचे तो वहां के लोग अंग्रेजों या उनके दलालों को देख यह गीत गाने लगे-

गांधी के लड़ाई नाही, जितने फिरंगिया, चाहे करूं केतनो उपाय.

भल भल मजवा उड़वले हमर देसवा में, अब जइहें कोठिया बिकाय...

मतलब कि गांधी आ गए हैं तो अंग्रेजों की नील कोठी बिक जाएगी। उस दौर में गांधी को लेकर अनेक गीत रचे गए। सोहर, कजरी, फाग से लेकर झूमर और विवाह गीत तक गांधी के रंग में रंगे। गांधीजी ने चरखा को लेकर अनेक प्रयोग किए। गांधी ने आह्वान किया कि चरखा आजादी दिलाएगा, सुराज लाएगा और रोजगार देगा। जाति, संप्रदाय से मुक्त मनुष्यता का निर्माण करेगा। बिहार में चरखा की लहर चली। महिलाओं का विशेष प्रेम हुआ इससे। इस प्रसंग पर उन दिनों खूब गीत रचे गए और गांधी के चरखे को सुराज के हथियार के तौर पर प्रचारित किया गया।

उस दौर में रोजगार के लिए बिहार के लोगों का सबसे ज्यादा पलायन बंगाल या पूरब इलाके में होता था, जिसे लोकगीतों में पुरूब देस कहा गया है। महिलाओं ने अपने पतियों को रोकने के लिए गीत बनाए और गाए। यह गीत देखें: कातब चरखा, सजन तुहूं कातअ/अइहैं एही से सुरजवा नु हो/ पिया मत जा पुरूबवा के देसवा नु हो।

ऐसे गीतों के जरिए महिलाएं अपने पतियों से आग्रह करती थीं कि हम चरखा सीख गए हैं, तुम्हें भी सिखा देंगे. यहीं रहो. चरखा कातो. इससे आमदनी भी होगी और गांधीजी ने कहा कि सुराज भी आएगा।

सिर्फ भोजपुरी इलाके में नहीं, बल्कि पूरे बिहार में और बिहार की सभी भाषाओं के लोकगीत आजादी के रंग में रंगते हैं। तब बज्जिका इलाके में एक कजरी गीत बड़ा मशहूर हुआ था जब देश की आजादी के लिए फंड जुटाने के लिए गांधीजी पूरे देश में घूमे थे। इसी क्रम में वे काशी पहुंचे और उस समय की मशहूर गायिका विद्याधरी बाई से मिलकर कहा था कि आप सबों का दायित्व बनता है कि राष्ट्रीय आंदोलन में योगदान दें। गांधीजी की इस अपील पर विद्याधरी बाई के नेतृत्व में काशी तवायफ संघ बना था, जिसके जरिए गांधीजी को चंदा जाने लगा था। ऐसा ही आग्रह गांधीजी ने कलकत्ता में मशहूर कलाकार गौहर जान से किया था कि आप हमारे लिए कोष बनाने में मदद करें। गांधीजी ने जब बिहार में भी ऐसी अपील की तो गांव की साधारण महिलाएं कोष जुटाने निकलीं। उस पर एक बड़ा मशहूर गीत है- सइयां बुलकी देबई, नथिया देबई, हार देबई ना/ अपना देस के संकट से उबार देबई ना।

बिहार के लोकगीतों में आजादी की लड़ाई अलग-अलग आयाम के साथ आती है। अनेक लोक रचनाकार ऐसे खड़े होते हैं, जो आजादी के गीत रचकर उसे लड़ाई का औजार-हथियार बना देते हैं। इस कड़ी में एक बड़ा नाम बाबू रघुवीर नारायण का है। वे मूल रूप से अंग्रेजी के कवि थे। उनकी लिखी कृति टेल्स आफ बिहार की ख्याति दूर तक फैली थी। आजादी की लड़ाई के दौरान वे मातृभाषा की ओर लौटे और लोगों में स्वाभिमान जगाने के लिए बटोहिया गीत लिखा, जो उत्तर भारत के गांव-गांव तक पहुंचा। इसी तर्ज पर छपरा के अंग्रेजी के प्राध्यापक प्रो. मनोरंजन प्रसाद सिन्हा ने फिरंगिया गीत की रचना की, जिस पर अंग्रेजों ने पाबंदी लगा दी। छपरा में ही एक मशहूर कीर्तनिया थे मास्टर अजीज। वे आजादी के गीत रचकर, कीर्तन के रूप में सुनाने लगे। पुरबिया उस्ताद महेंदर मिसिर मूलत: प्रेम के कवि माने गए, पर आजादी की लड़ाई में उन्होंने गीत लिखकर लोगों को गोलबंद किया: हमरा निको नाही लागेला गोरन के करनी/रोपेया ले गइले, पइसा ले गइले/ढाल के दे गइले हमनी के दुअन्नी...

इस कड़ी में एक मशहूर नाम जुड़ता है गोपालगंज के रसूल मियां का। राम, कृष्ण आदि पर रचने वाले और गांधीजी को माननेवाले कलाकार। उनके अनेक गीत लोकप्रिय हुए। उनके एक गीत का किस्सा कलकत्ता का है। वहां एक थाने में उन्हें कंसर्ट के लिए बुलाया गया। उन्होंने देखा कि वहां भारतीय, विशेषकर बिहार के रहनेवाले सिपाही बुरे हाल में हैं। तुरंत उन्होंने गीत रचा और गाया:

छोड़ी द गोरकी के करबअ गुलामी बालमा/एकर कहिया ले करबअ खुशामी बालमा/रोपेया हमार बनल ई आ के रानी/करेले हमनी पर ई हुकुमरानी/छोड़ी द एकर तू अब दिहल सलामी बालमा/एकर कहिया ले करबअ गुलामी बालमा...

कहते हैं कि इस गीत के बाद वहां अनेक सिपाहियों ने तुरंत नौकरी छोड़ने का फैसला किया। अंग्रेजों को खबर मिली तो रसूल मियां को गिरफ्तार कर लिया गया।

ये गीत कुछ उदाहरण हैं। बिहार के लोकगीतों की समृद्धि और अपार विस्तार को देखने के लिए नजरिया बदलना होगा। इन लोकगीतों का अपना समृद्ध इतिहास रहा है, मजबूत परंपरा रही है, असर के अनेक आयाम रहे हैं।

(लेखिका चर्चित लोकगायिका हैं, जिन्हें संगीत नाटक अकादमी (युवा पुरस्कार) और बिहार सरकार के बिहार कला सम्मान से नवाजा गया है)

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