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डिजिटल एडिक्शन : मोबाइल ने ले लिया माँ-बाप की गोद का स्थान?

एक समय था जब बच्चों की दुनिया माँ-बाप की गोद से शुरू होती थी और वहीं सिमट जाती थी। माँ की उँगलियाँ पहली...
डिजिटल एडिक्शन : मोबाइल ने ले लिया माँ-बाप की गोद का स्थान?

एक समय था जब बच्चों की दुनिया माँ-बाप की गोद से शुरू होती थी और वहीं सिमट जाती थी। माँ की उँगलियाँ पहली पाठशाला थीं और पिता की हथेली सबसे सुरक्षित छत। लेकिन आज यह दृश्य बदल गया है। अब नवजात के हाथ में भी चमकती स्क्रीन है, और माँ-बाप की गोद में होने के बजाय बच्चा मोबाइल की गोद में ज़्यादा समय बिताता है। जो स्पर्श पहले भावनात्मक सुरक्षा देता था, वह अब ‘स्क्रीन टच’ में बदल गया है। हम एक ऐसे दौर में हैं जहाँ माता-पिता बच्चों के लिए physically present होते हुए भी emotionally absent होते जा रहे हैं। बच्चे अब संवाद से नहीं, वीडियो और गेम से सीखते हैं। और यह बदलाव सिर्फ आदत नहीं, बल्कि एक गंभीर सामाजिक संकट की ओर इशारा करता है।

डिजिटल दूरी का यह संकट केवल समय की बात नहीं है, यह भावनात्मक रिक्तता की जड़ में जा बैठा है। Pew Research Center की 2022 की रिपोर्ट बताती है कि 69% माता-पिता यह स्वीकारते हैं कि वे अपने बच्चों को चुप कराने के लिए मोबाइल या टैबलेट का उपयोग करते हैं। भारत में ASSOCHAM की एक रिपोर्ट के अनुसार, औसतन शहरी बच्चे प्रतिदिन 3 से 4 घंटे स्क्रीन पर बिताते हैं, जिनमें से अधिकांश समय अकेलेपन में या परिवार से दूर रहते हुए बीतता है। जब बच्चे अपनी कहानियाँ, सवाल, या डर स्क्रीन के ज़रिए ‘एंग्री बर्ड’ या ‘बेबी शार्क’ से बाँटने लगते हैं, तो माता-पिता के साथ संवाद धीरे-धीरे बंद होने लगता है। यह दूरी कई बार इतनी बढ़ जाती है कि जब किशोर अवस्था आती है, तब माँ-बाप को पता ही नहीं होता कि उनका बच्चा किस मानसिक दुनिया में जी रहा है।

बच्चों के साथ यह संबंधहीनता एकतरफा नहीं होती। कई बार माता-पिता स्वयं मोबाइल में इतने व्यस्त रहते हैं कि बच्चों को उपेक्षा का अनुभव होता है। माता-पिता जब हर जवाब ‘थोड़ी देर में’ या ‘अभी काम कर रहा हूँ’ में बदल देते हैं, तो बच्चा धीरे-धीरे यह मान लेता है कि मोबाइल की दुनिया ही उसकी सच्ची संगति है। कई बार बच्चे ध्यान आकर्षित करने के लिए शरारतें करते हैं, लेकिन जब वे भी नज़रअंदाज़ होती हैं, तो वे भीतर-ही-भीतर चुप हो जाते हैं। Lancet Child and Adolescent Health की एक 2021 की रिपोर्ट कहती है कि ऐसे बच्चे जो 5 साल की उम्र से ही डिजिटल माध्यम से भावनात्मक संतुलन तलाशते हैं, आगे चलकर उनमें behavioral disconnect और emotional suppression की प्रवृत्ति अधिक होती है। इस चुप्पी में पल रहा अकेलापन आगे चलकर आत्मविश्वास की कमी, चिड़चिड़ापन, और अवसाद जैसी समस्याओं में बदल सकता है।

बच्चों के मानसिक और भावनात्मक विकास में प्रारंभिक वर्षों का संपर्क सबसे निर्णायक होता है। यदि इन वर्षों में माता-पिता के चेहरे की भाव-भंगिमा, आँखों की भाषा और स्वर की गर्माहट गायब हो जाए तो बच्चे सिर्फ जानकारी पा सकते हैं, सच्चा भावनात्मक जुड़ाव नहीं। मोबाइल पर मिलने वाला तात्कालिक मनोरंजन उन्हें अस्थायी खुशी तो देता है, लेकिन स्थायी संबंधों की समझ नहीं देता। आज के बच्चे बहुत कुछ जानते हैं, लेकिन महसूस कम करते हैं। यही कारण है कि ‘भावुक बुद्धिमत्ता’ (Emotional Intelligence) की कमी एक नई पीढ़ी में उभर रही है। जब रिश्ते स्क्रीन से संचालित होने लगते हैं, तो रिश्तों की गहराई नहीं बनती—केवल आदत बनती है। और आदतें जब भावनाओं की जगह लेने लगें, तो मानवता का सबसे कोमल पक्ष-माता-पिता और संतान का रिश्ता-कृत्रिमता की चपेट में आ जाता है।

इस समस्या का समाधान तकनीक को पूरी तरह नकारने में नहीं, बल्कि उसका संतुलित उपयोग सीखने में है। मोबाइल एक यंत्र है, जो सही दिशा में उपयोग हो तो सहायक बन सकता है, लेकिन उसकी अंधभक्ति रिश्तों को अपंग बना देती है। माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चे के साथ समय बिताने को ‘अतिरिक्त’ न मानें, बल्कि उसे अपनी दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा बनाएं। खाना खाते समय साथ बैठना, कहानियाँ सुनाना, स्कूल की बातें सुनना, खेलना—ये सब छोटे लेकिन गहरे अनुभव होते हैं। यदि एक पिता अपने मोबाइल से 30 मिनट का समय निकालकर अपने बच्चे के साथ फुटबॉल खेले, या माँ उसकी किसी कल्पनाशील बात पर मुस्कराकर प्रतिक्रिया दे, तो वही पल बच्चे की आत्मा में स्थायी विश्वास का आधार बन सकता है। डिजिटल दुनिया बच्चों की समझ को बढ़ा सकती है, लेकिन स्नेह और सुरक्षा की दुनिया सिर्फ माता-पिता ही बना सकते हैं।

अंततः सवाल यही है कि क्या मोबाइल अब माँ-बाप की जगह ले चुका है? या यह कि माँ-बाप ने खुद ही उस स्थान को स्क्रीन को सौंप दिया है? यह सच है कि समय बदल रहा है, तकनीक जीवन का अनिवार्य अंग बन चुकी है, लेकिन उन रिश्तों की जगह कोई टेक्नोलॉजी नहीं ले सकती जो जीवन की पहली अनुभूतियाँ बनते हैं। अगर हमें एक ऐसी पीढ़ी चाहिए जो संवेदनशील, आत्मविश्वासी और संतुलित हो, तो हमें खुद से पूछना होगा—हम अपने बच्चों को समय दे रहे हैं या सिर्फ सुविधाएँ? क्योंकि बच्चों को सबसे पहले जो चीज़ चाहिए, वह न खिलौने हैं, न टैबलेट-बल्कि माँ-बाप की वह गोद है जिसमें वे निश्चिंत होकर रो सकें, हँस सकें और सबसे ज़्यादा-समझे जा सकें।

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