अभिव्यक्ति की आज़ादी एक बहुचर्चित विषय है और 25 जून का दिन इस बारे चिंतन करने का एक महत्वपूर्ण दिन है। 25 जून 1975 को इस देश में वो सब घटित हुआ जिसकी कल्पना करना भी विभत्स्कारी है। स्वार्थ के आगे लोकतंत्र को धराशायी करने का आपातकाल एकमात्र उदाहरण है। और यह सब अचानक ही नहीं हुआ। व्यक्तिपूजा की कांग्रेस की परिपाटी का ही परिणाम था जो कि 1974 में तत्कालीन अध्यक्ष डी के बरूआ ने इंदिरा ही इंडिया और इंडिया ही इंदिरा जैसा नारा दिया। इस विचार के के ख़िलाफ़ जो भी घटित होता वो इंदिरा गांधी को असुरक्षित कर देता। इसी तानाशाही विचारधारा ने आपातकाल को जन्म दिया।
हालांकि आज के परिवेश में कुछ तत्व अभिव्यक्ति की आज़ादी के बारे में चर्चा करते हैं और दुःर्भाग्य से ऐसी विचारधारा आज चर्चा कड़ी करना चाहती है जिसने 1975 में आज ही के दिन देश को आपातकाल के अन्धकार में धकेल दिया था और कारण था सत्ता छिन जाने का डर।
न्यायालय व न्यायिक प्रक्रियाओं पर अंगुली उठाने वाली विचारधाराएं अचानक से भूल गयीं कि एक समय सत्ता की लोलुप्ता में देश के संविधान को उन्ही के द्वारा रौंधा जा चुका है।
लेकिन आज के समय में एक नयी प्रवित्ति ने जन्म ले लिया है। कांग्रेसी विचारधारा अपने इस कुकृत्य को आने वाली पीड़ी से छिपाना चाहती है और इसके लिए दुष्प्रचार का सहारा लिया जा रहा है। अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर व्यर्थ में सवाल खड़े किये जाते हैं और ये बताने का प्रयास होता है जैसे देश में हालात सामान्य न हो। और कांग्रेस का साथ वामपंथ और दूसरी समर्थित विचारधाराएं देती हैं जिनका लक्ष्य एक झूठा परिप्रेक्ष्य तैयार करना है।
लेकिन इस कालखंड का मेरा निजी अनुभव है। आपातकाल लगते ही देश से लोकतंत्र की मर्यादाएं रौंध दी गयी और मौलिक अधिकार छीन लिए गए। जिन नागरिकों ने सरकार का विरोध किया उन्हें बिना दलील व अपील के जेल में डाला गया। इस सब का आधार बना इलाहबाद उच्च न्यायालय का एक मुकद्दमा जो 'राज नारायण बनाम उत्तर प्रदेश' के नाम से जाना गया। इलाहबाद उच्च न्यायालय के न्यायधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने इस मामले में एक निर्णय दिया जिस से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इतना भयभीत हुई कि देश पर कब्ज़ा करना का प्रपंच रच डाला।
देश में पहले ही सरकार के खिलाफत हो रही थी और बिहार में लोकनायक जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में आंदोलन चरम पर था। लेकिन इस मामले में सिन्हा ने अपने निर्णय में न केवल इंदिरा गाँधी को रायबरेली से सांसद के रूप में चुनाव को अवैध करार दे दिया बल्कि अगले छह साल तक उनके कोई भी चुनाव लड़ने पर रोक भी लगा दी।
ऐसे में इंदिरा गाँधी ने लोकसभा की सदस्य रहीं न ही राजयसभा जा सकती थीं। सारे विकल्प तलाशने के बाद कांग्रेस की सरकार ने तय किया की देश को आपातकाल के अन्धकार में झोंक दिया जाए। आज शोर मचाने वाली विचारधारा ने उस समय अभिव्यक्ति के सभी स्नोतों पर प्रतिबंध लगाने का काम किया और सभी यातनाओं, षड्यंत्रों के बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व आनुषंगिक संघठनों का भूमिगत गतिविधियां जारी रखने में महत्वपूर्ण योगदान रहा।
जिस मीडिया के कंधे पर बन्दूक रख कर सरकार को घेरने का कुत्सित प्रयास कांग्रेस व समर्थित विचारधारा द्वारा किया जा रहा है , उसी मीडिया को तालाबंद कर दिया गया था। देश भर में हुए अत्याचार की कहानी शाह कमीशन की रिपोर्ट बयान करती है लेकिन कांग्रेस विचारधारा अपने उस कुकृत्य पर चुप है और देश में ऐसा माहौल बनाने का प्रयास कर रही है जिस से उनका दुष्कार्य जनता भूल जाए। लेकिन हम सबने अंग्रेज़ों के शासनकाल के रोलेट एक्ट जिसे काला कानून भी कहा जाता है, के बारे में सुना था मगर आपातकाल का कालखंड निश्चित रूप से उस से भी भयावह था।
(लेखक हिमाचल प्रदेश सरकार के वरिष्ठ मंत्री हैं जो स्वयं आपातकाल के समय जेल गए थे। )