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तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री और डीएमके प्रमुख करुणानिधि का निधन

तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री और डीएमके प्रमुख एम करुणानिधि का 94 साल की उम्र में 6 बजकर 10 मिनट पर निधन हो...
तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री और डीएमके प्रमुख करुणानिधि का निधन

तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री और डीएमके प्रमुख एम करुणानिधि का 94 साल की उम्र में 6 बजकर 10 मिनट पर निधन हो गया। कावेरी अस्पताल ने अधिकृत तौर पर इसकी जानकारी दी। अस्पताल के बाहर समर्थकों का जमावड़ा लगा है और वे खबर पाते ही उनमें शोक की लहर दौड़ गई। सुरक्षा के पर्याप्त इंतजाम किए गए हैं। इस मौके पर करुणानिधि के बेटे एमके स्टालिन ने डीएमके कार्यकर्ताओं से अपील की है कि वे शांति और अनुशासन बनाए रखें। उन्होंने कावेरी अस्पताल के डॉक्टरों को धन्यवाद कहा है।

प्रधानमंत्री मोदी ने करुणानिधि के साथ फोटो ट्वीट करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि दी और कहा कि वह देश के सबसे वरिष्ठ नेताओं में एक थे। हमने बहुत बड़ा जननेता, विचारक, लेखक खो दिया। उनका जीवन गरीबों और दबे-कुचले लोगों के लिए समर्पित था।

जानिए, करुणानिधि का राजनीतिक सफर-

14 साल की उम्र में राजनीति में किया था प्रवेश

करुणानिधि 1924 में तमिलनाडु के थिरुक्कुवालाई गांव में पैदा हुए थे। परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी।

जस्टिस पार्टी के अलगिरिस्वामी के एक भाषण से प्रेरित होकर करुणानिधि ने 14 साल की उम्र में राजनीति में प्रवेश किया और हिंदी विरोधी आंदोलन में भाग लिया। वह पेरियार के विचारों से भी प्रभावित थे। उन्होंने अपने इलाके के स्थानीय युवाओं के लिए एक संगठन की स्थापना की। उन्होंने इसके सदस्यों को मनावर नेसन नामक एक हस्तलिखित अखबार परिचालित किया। बाद में उन्होंने तमिलनाडु तमिल मनावर मंद्रम नामक एक छात्र संगठन की स्थापना की जो द्रविड़ आन्दोलन का पहला छात्र विंग था। करूणानिधि ने अन्य सदस्यों के साथ छात्र समुदाय और खुद को भी सामाजिक कार्य में शामिल कर लिया। यहां उन्होंने इसके सदस्यों के लिए एक अखबार चालू किया जो डीएमके दल के आधिकारिक अखबार मुरासोली के रूप में सामने आया।

हिंदी-हटाओ आंदोलन ने दी सियासी जड़

कल्लाकुडी में हिंदी विरोधी विरोध प्रदर्शन में उनकी भागीदारी, तमिल राजनीति में अपनी जड़ मजबूत करने में करूणानिधि के लिए मददगार साबित होने वाला पहला प्रमुख कदम था। इस औद्योगिक नगर को उस समय उत्तर भारत के एक शक्तिशाली व्यक्ति के नाम पर डालमियापुरम कहा जाता था। विरोध प्रदर्शन में करूणानिधि और उनके साथियों ने रेलवे स्टेशन से हिंदी नाम को मिटा दिया और रेलगाड़ियों के मार्ग को अवरुद्ध करने के लिए पटरी पर लेट गए। इस विरोध प्रदर्शन में दो लोगों की मौत हो गई और करूणानिधि को गिरफ्तार कर लिया गया

सत्ता प्राप्ति

कोयम्बटूर में वह नाटकों की स्क्रिप्ट लिखा करते थे। फिर कुदियारासु नाम की पत्रिका के संपादक बने। 1949 में नई पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कझगम अस्तित्व में आई। इसमें वह अन्नादुराई के प्रमुख सहयोगी बने। उन्हें कोषाध्यक्ष बनाया गया। इस बीच करुणानिधि का फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट लिखने का सिलसिला जारी रहा। 1952 में उनकी लिखी फिल्म परासाक्षी आई थी, जिसमें द्रविड़ अस्मिता की खूब बातें थीं। 1957 में डीएमके ने पहली बार चुनाव लड़ा। पार्टी के 13 विधायक चुने गए, जिनमें से एक करुणानिधि भी थे। करूणानिधि को तिरुचिरापल्ली जिले के कुलिथालाई विधानसभा से पहली बार विधायक चुना गया।

1967 में इसी पार्टी ने राज्य में पूर्ण बहुमत हासिल किया और अन्नादुराई मुख्यमंत्री बने। हिंदी-विरोधी आंदोलन और द्रविड़ अस्मिता जैसे मुद्दों ने डीएमके की सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाई।

एमजीआर और करुणानिधि की टक्कर

1969 में अन्नादुराई की कैंसर से मृत्यु होने की वजह से उनके खास करुणानिधि को मुख्यमंत्री बनाया गया। 1971 में चुनाव हुए तो उन्होंने जीत दर्ज की। अन्नाडीएमके के संस्थापक एमजी रामचंद्रन तब उनके साथ थे लेकिन बाद में दोनों अलग हो गए। 1977 में रामचंद्रन की अन्नाडीएमके और करुणानिधि की पार्टी डीएमके आमने-सामने थी। एमजीआर बतौर अभिनेता काफी प्रसिद्ध थे और उन्होंने करुणानिधि की पार्टी को हरा दिया। जब तक एमजीआर जीवित थे, करुणानिधि सत्ता नहीं पा सके।

जयललिता का उभार

एमजीआर की मृत्यु के बाद पार्टी में अभिनेत्री जयललिता का उभार हुआ। 1991 के चुनाव में एआईडीएमके ने भारी संख्या में 224 सीटें जीती थीं और डीएमके को सिर्फ एक सीट मिली। करुणानिधि और जयललिता के बीच हर पांच साल में सत्ता परिवर्तन होता रहा। 

करुणानिधि पांच बार (1969–71, 1971–76, 1989–91, 1996–2001 और 2006–2011) तमिलनाडु मुख्यमंत्री रहे। उन्होंने अपने 60 साल के राजनीतिक करियर में अपनी भागीदारी वाले हर चुनाव में अपनी सीट जीतने का रिकॉर्ड बनाया। 2004 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने तमिलनाडु और पुदुचेरी में डीएमके के नेतृत्व वाली डीपीए (यूपीए और वामपंथी दल) का नेतृत्व किया और लोकसभा की सभी 40 सीटों को जीत लिया। इसके बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने डीएमके द्वारा जीती गयी सीटों की संख्या को 16 से बढ़ाकर 18 कर दिया और तमिलनाडु और पुदुचेरी में यूपीए का नेतृत्व कर बहुत छोटे गठबंधन के बावजूद 28 सीटों पर विजय प्राप्त की।

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