नलिन कोहली
भारतीय संविधान और उसकी आत्मा को समझने के लिए हमें 1947 की ओर देखना होगा। उस समय दो देश बन रहे थे। विभाजन के बाद पाकिस्तान ने धर्म के आधार पर अपनी पहचान बनाने का फैसला किया। भारत ने संविधान के अनुसार आगे बढ़ने की राह अपनाई। भारत में बहुसंख्यक हिंदुओं, मुसलमानों, सिख, ईसाई और बौद्ध सहित दूसरे धर्म के प्रतिनिधियों ने तय किया कि हम धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि संविधान के आधार पर नया भारत बनाएंगे। इस फैसले से जो पहली चीज हुई कि भारत का एक संविधान बना। उसके बनते ही देश के हर नागरिक ने अपने अधिकार को संविधान के हवाले कर दिया। उसी प्रक्रिया के तहत देश के हर नागरिक को मौलिक अधिकार सहित दूसरे अधिकार मिले। संविधान के लागू होते ही एक बात और स्पष्ट हो गई कि सबसे पहले हम भारतीय नागरिक हैं और उसके बाद ही हमारे अधिकार और कर्तव्य आते हैं।
सत्तर साल के सफर को देखें तो यह बेहिचक कहा जा सकता है कि भारत को संविधान के अनुसार चलाने का फैसला बेहद सफल रहा है। इस अवधि में हमारे मूल अधिकार न केवल बढ़े हैं, बल्कि उनको न्यायपालिका ने व्यापक विस्तार भी दिया है। इन विस्तारों को हम न्यायपालिका के विभिन्न फैसलों से देख सकते हैं। सत्तर के दशक में जब केशवानंद भारती मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला दिया, तो उसने यह स्थापित कर दिया कि संविधान के मूलभूत ढांचे में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता है। यह बहुत बड़ी बात थी, क्योंकि विश्व में ऐसे में बहुत कम उदाहरण देखे गए हैं। इन वर्षों में एक अहम बात यह भी हुई कि विधायिका द्वारा बनाए गए कानून की न्यायपालिका समीक्षा भी कर सकती है। यानी, संविधान से उसे यह अधिकार मिलता है कि वह यह तय कर सकती है कि कोई भी कानून संविधान सम्मत है या नहीं। अगर न्यायपालिका को ऐसा लगता है कि कानून संविधान सम्मत नहीं है, तो वह उसे खारिज भी कर सकती है।
न्यायपालिका ने विभिन्न फैसलों में इस अधिकार का इस्तेमाल भी किया है। 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने श्रेया सिंघल बनाम केंद्र मामले में सूचना प्रौद्योगिकी कानून-2000 के सेक्शन 66ए को असंवैधानिक माना। कोर्ट के अनुसार सेक्शन-66ए, अनुच्छेद-19 के तहत मिले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करता था। अनुच्छेद-19 देश के नागरिकों के लिए बहुत बड़ा अधिकार है। उसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत आज हमें सोशल मीडिया तक पर भी अपनी बात खुले रूप से कहने के लिए पूरी आजादी है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इंटरनेट को भी मूल अधिकार का हिस्सा माना है। उसने साफ तौर पर कहा है कि बेहद जरूरी परिस्थितियों में ही इसे प्रतिबंधित किया जा सकता है। लेकिन उसका उद्देश्य भारतीय नागरिकों की रक्षा करने के लिए होना चाहिए। साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा है कि सरकार अगर इंटरनेट को अनिश्चितकाल तक प्रतिबंधित करेगी तो उसे करने के लिए सरकार को ठोस कारण देने होंगे।
इसी तरह संविधान ने हमें व्यक्ति की निजता और सुरक्षा का अधिकार भी दिया है। विधायिका ने बलात्कार के मामले में मृत्युदंड का प्रावधान कर देश के नागरिकों को भरोसा दिलाया है कि हम आपके साथ खड़े हैं। इसी तरह अनुच्छेद-21 लोगों को बेहतर जीवन जीने का मौलिक अधिकार देता है। साथ ही सूचना का अधिकार एक पारदर्शी व्यवस्था बनाने में अहम भूमिका निभाता है।
भारतीय संविधान में मूल अधिकारों को विस्तार देने की कितनी संभावनाएं हैं, वह सत्तर के दशक में न्यायपालिका के फैसले से समझा जा सकता है। अनुच्छेद-14 देश के हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है। यानी किसी भी नागरिक के साथ धर्म, जाति, लिंग और स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता है। विधायिका अगर कोई कानून बनाती है तो उसकी न्यायपालिका तर्क के आधार पर समीक्षा कर सकती है। अगर उसे लगता है कि कोई कानून नागरिकों में भेदभाव करता है और उसे मनमाने तरीके से लागू किया गया है, तो वह उसे खारिज भी कर सकती है। अधिकारों की रक्षा के लिए यह बेहद अहम फैसला था।
इसी आधार पर तीन तलाक कानून को खत्म कर मुस्लिम महिलाओं को समानता का अधिकार मिला। हिंदू महिलाओं को दहेज प्रथा की प्रताड़ना से बचाया गया। महिलाओं के साथ कार्यस्थलों पर होने वाले यौन शोषण को रोकने के लिए विशाखा गाइडलाइन बनी। विशाखा फैसले में तो सुप्रीम कोर्ट ने ढांचागत बदलाव कर समानता के अधिकार की रक्षा की। इन उदाहरणों से साफ है कि पिछले 70 साल में मूलभूत अधिकारों की रक्षा के लिए जहां विधायिका ने अपने स्तर पर कानून बनाए, वहीं उनका संविधान सम्मत पालन हो सके उसके लिए न्यायपालिका ने अहम भूमिका निभाई।
लोकतांत्रिक भारत के इस सफर में, बीच में इमरजेंसी का भी दौर आया। उस पर बात करने से पहले यह भी समझना होगा कि इमरजेंसी लागू करने की प्रक्रिया भी संविधान में दी गई है। लेकिन वह किन परिस्थितियों में लगाया जा सकती है, यह ज्यादा महत्वपूर्ण है। समझने वाली बात यह है कि 1975 के इमरजेंसी के विरोध में कांग्रेस को छोड़कर सभी राजनैतिक दलों ने लड़ाई लड़ी। संविधान की मजबूती ही थी जिसकी वजह से कांग्रेस को दोबारा चुनावी प्रक्रिया की तरफ लौटना पड़ा। उन परिणामों का ही असर है कि आज के दौर में यह अकल्पनीय है कि भारत का संविधान हटाया जा सकता है।
आज के दौर में नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) पर सवाल उठ रहे हैं। नागरिकता संशोधन कानून के जरिए भारतीय नागरिकों के अधिकारों का किसी भी तरह का हनन नहीं हो सकता है क्योंकि यह कानून उनके लिए नहीं बना है। यह कानून पड़ोसी देश के उन नागरिकों के लिए बना है, जिनका धार्मिक उत्पीड़न हो रहा है और उनकी इच्छा है कि वह भारतीय नागरिक बनें। इसके बावजूद अगर कुछ लोगों को लगता है कि यह कानून संविधानसम्मत नहीं है, तो उनको न्यायालय जाने का अधिकार संविधान देता है, जो यह तय करेगा कि नया कानून संविधानसम्मत है या नहीं? इसी तरह राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर है जो सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार असम में उठाया गया कदम है। उसके जरिए भारतीय नागरिक के किसी भी हालत में कोई अधिकार छीने नहीं जा सकते हैं। लेकिन यह समझने वाली बात है कि भारत देश की एक भौगोलिक सीमा है, जिसके संसाधनों की एक क्षमता है। ऐसे में क्या भारत के नागरिकों का यह हक नहीं बनता है कि उन्हें पता चले कि देश में गैर-कानूनी रूप से कौन लोग और कितनी संख्या में निवास कर रहे हैं? सबसे अहम बात, देश की कोई भी सरकार भारतीय नागरिकों के अधिकारों को सीमित करने की कल्पना भी नहीं कर सकती है।
एक अहम चीज, हमें और समझनी होगी कि जब हमने भारत का निर्माण किया और तय किया कि हमारे सारे कार्य संविधानसम्मत होंगे। इसी के तहत सबसे पहले हम भारत के नागरिक हैं। अगर कोई कहे कि पहले मेरा धर्म, उसके बाद वह भारतीय है, तो यह न केवल अनुचित है, बल्कि असंवैधानिक है। कोई अगर संविधान की मूल बात को ही नजरअंदाज करेगा तो किस मुंह से वह अपने मौलिक अधिकार पाने की भी बात कर सकता है। इसीलिए जब गो हत्या रोकने की बात होती है या फिर समान नागरिक संहिता लागू करने पर जोर दिया जाता है, तो यह समझना होगा कि यह संविधान के बाहर की चीज नहीं है। संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों में इनका उल्लेख किया गया है। संविधान को कोई भी अपनी सुविधा के अनुसार नहीं देख सकता है, उसे उसके समग्र रूप में देखना होगा।
एक और बात जो देश के नागरिकों को समझनी चाहिए कि जिस तरह संविधान आपको मौलिक अधिकार देता है, वैसे ही वह नागरिकों से कुछ मौलिक कर्तव्यों की अपेक्षा भी करता है। आज के दौर में दोनों को लेकर चलना बेहद जरूरी है। सवाल पुलिस के दमन पर भी उठते हैं। तो, हर व्यवस्था में कुछ लोग अच्छे होते हैं और कुछ बुरे होते हैं। लेकिन आप बुरे की वजह से पूरी व्यवस्था पर सवाल नहीं उठा सकते हैं। अगर उन्होंने कुछ गलत किया है, तो उनके खिलाफ कार्रवाई की व्यवस्था भी हमारा संविधान देता है। यह भी समझना होगा कि पुलिस में भी देश के नागरिक ही काम करते हैं और उनके भी संवैधानिक अधिकार हैं। अगर कोई उनके साथ हिंसा करेगा, तो आप कैसे उम्मीद करते हैं कि वह प्रतिक्रिया नहीं करेंगे। जो लोग सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाते हैं, हिंसा फैलाते हैं, वह किस आधार पर मौलिक अधिकारों की बात कर सकते हैं क्योंकि सार्वजनिक संपत्ति नागरिकों की अपनी संपत्ति है तथा उनके द्वारा दिए गए टैक्स के माध्यम से बनती है।
कुल मिलाकर, मुझे लगता है कि हमारे संविधान ने हर भारतीय को इतने अधिकार दिए हैं कि वह एक अच्छी जिंदगी, पूरे सम्मान के साथ आगे बढ़ते हुए बिता सकता है। साथ ही इन 70 साल में नागरिकों के आधिकारों का विस्तार हुआ है, जो लोकतंत्र की मजबूती को दिखाता है। इसे मजबूत करने में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, मीडिया, आम जन, सबका हाथ रहा है। इन्हीं वजहों से आज हम सही मायने में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र बन पाए हैं और हमारे लिए गर्व की बात है कि हमारे संविधान के चलते, भारतीय लोकतंत्र जीवंत है।
(सुप्रीम कोर्ट के वकील, भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता)