जंगल मुझे लगातार आशीष दे रहा है
दम तोड़ते हुए
तुम अपने सीने से चिपकाकर
जैसे कोई माँ अपने शिशु को
नीलवर्ण-भाग्य लिए
एक ही ज़हर, एक ही ख़ून बहता है
मेरी देह में और मेरी माँ की देह में।
यह ओड़िआ कवि रमाकांत रथ की कविता का एक अंश है। अब रमाकांत रथ हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन ये पंक्तियाँ उनके जीवन काल के सच का जितना बयान कर रही थीं, उनके निधन के बाद के यथार्थ की अभिव्यक्ति उतनी ही कर रही हैं। कवि-कर्म के लिए उन्हें जंगल-पहाड़ों से भरी पड़ी ओड़िसा की धरती का आशीर्वाद अनंत काल तक मिलाता रहेगा।
कविता में नित नई नई कड़ियों को जोड़ कर आधुनिक ओड़िया कविता को शिखर तक पहुँचाने वाले कवि रमाकांत रथ की इहलीला विगत 16 मार्च को समाप्त हो गई। 90 वर्षीय स्वर्गीय रथ भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी भी रहे थे। भुवनेश्वर के खारवेल नगर में मौजूद अपने निजी आवास में ही उन्होंने अंतिम साँस ली। माता पार्वती देवी एवं पिता लोकनाथ महापात्र के पुत्र रूप में उनका जन्म ओड़िशा के कटक जनपद में हुआ था। पालन-पोषण के लिए नाना विश्वनाथ रथ एवं नानी दुर्गावती देवी उन्हें गोद लेकर पुरी जनपद के सासन दामोदरपुर गाँव ले आये। बालक रमाकांत युवावस्था तक दामोदरपुर की मिट्टी में खेलते-कूदते । यहीं उनके नाम के आगे नाना का टाइटल 'रथ ' जुड़ा।
रॉवेनशा कॉलेज में अंग्रेजी भाषा की पढ़ाई करते हुए इस नौजवान के भीतर कवि की छवि बनी। उन्हें ओड़िशा के प्रसिद्ध राजनेता और इतिहास वेत्ता हरे कृष्ण महताब ने पहचाना। इस नवोदित कवि की काव्य भाषा ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि वे अपनी पत्रिका 'झंकार' के पन्नों पर उन्हें नियमित स्थान देने लगे। ओड़िया कविता को रमाकांत रथ की देन पर खूब चर्चाएँ मिलती है। उन चर्चाओं में शामिल होते ही इस बात से साक्षात्कार होता है कि ओड़िआ कविता की तमाम जटिलताओं को हटा कर रथ जी ने ऐसे ऐसे मुहावरे गढ़े जिसकी नव्यता पाठकों के लिए तब भी नया था, आज भी नया है।
हरप्रसाद दास ओड़िया साहित्य के गंभीर अध्येता हैं। रमाकांत रथ की कविताओं को समग्रता में देखते हुए उन्होंने रमाकांत रथ व्यक्तित्व और कृतित्व शीर्षक से जो कुछ लिखा है उसका एक अंश देखिए, 'उनकी कविता में एक अद्भुत सम्मिश्रण है -- कुछ भावुकता है, कल्पना है, थोड़ी पीड़ा है और स्वयं विलोपनीय उपहास। इस तरह उनकी कविताओं में अनेक स्तरीय क्रिड़ाएँ चलती रहती हैं। रमाकांत की कविता शैली की अपरिवर्तनीयता ऐसी शैलीगत क्रीड़ाओं की छूट देती है। इस शैली में उनका विमर्श कविता के साथ ही ख़त्म नहीं हो जाता बल्कि वह अगली अजन्मी कविता में कविता का पूर्वाभास देता है वस्तुत: रमाकांत का सृजन कर्म एक महाकाव्य की तरह है जिसमें भौतिक,नैतिक और आदिभौमिक आयाम नज़र आते हैं।'
उन्होंने ओड़िआ भाषा में विपुल कविताएँ लिखी। केते दिनारा, अनेक कोठारी, संदिग्ध मृगया,सप्तम ऋतु और श्री राधा उनकी प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं। 1992 का सरस्वती सम्मान रथ जी की कृति श्रीराधा को ही दिया गया। रथ पहले ऐसे कवि हैं जिनकी कृति को इस प्रतिष्ठित सम्मान से नवाजा गया।
मैं जब कभी जाता था भुवनेश्वर उनसे मिले बगैर नहीं लौटता था घर। जब कभी मिलता था उनसे, उनके वातसल्य भाव से अभिभूत होकर ही लौटता था। अब हमारे बीच उनका शरीर नहीं है। बस बचे हुए हैं उनके जीवंत शब्द और हर मिलने जुलने वाले लोगों के साथ का वह व्यवहार जो हिन्दी के कवियों में बहुत कम देखने को मिलता है।
हमारे लोक में एक कहावत है, 'करनी देखिहऽ मरनी बेरिया।' तात्पर्य यह कि मनुष्य के देह त्यागने के तुरत बाद उसका समाज उसके कर्मों की गणना करते हुए संवेदना जताता है। उनके निधन के बाद अशोक वाजपेयी( हिन्दी) सुबोध सरकार( बांग्ला) एच एस शिवप्रकाश (कन्नड़) सहित अन्य समादृत लोगों, अखबारों, मॉडरेटरों आदि ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट से जिन शब्दों में श्रद्धांजलि दी उनमें उनके कविकर्म के आलावे उनके सहज सरल स्वभाव का जिक्र भी शामिल है। ओड़िया के सुप्रसिद्ध कवि फानी मोहांती ने रथ जी के व्यक्तित्व कृतित्व को केन्द्र में रखकर एक कोमल कविता का सृजन किया था। इस ओड़िया कविता का हिंदी अनुवाद युवा कवयित्री इप्सिता षड़ंगी ने किया है। उन्हीं के शब्दों में रथ जी की स्मृति को पुन: नमन है,
'खामोश तूफान में हिल गया है जैसे
चिर उदास कवि रमाकांत के
भावना की दुनिया।
अवसाद से भरा तकदीर, सुनिश्चित भविष्य
गंभीर मुख मंडल और मक्खन की तरह
कोमल, मुलायम, सुंदर,सरल हृदय'
स्मृतियों में सदैव बने रहेंगे रथ जी।