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आवरण कथाः कोचिंग का धंधा, कितना स्याह, कितना सफेद

कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और कटक से अटक तक कोचिंग का धंधा औपचारिक शिक्षा के साथ-साथ पांव पसार चुका है और इस सच से कोई इनकार नहीं कर सकता। बिहार के मूल निवासी पीयूष कुमार गुजरात के अहमदाबाद में बैंक अधिकारी हैं। परिवार में पत्नी के अलावा सिर्फ एक बेटा है जो दसवीं की परीक्षा पास कर चुका है। मगर बेटा और पत्नी उनके साथ नहीं रहते। दोनों राजस्थान के कोटा में हैं जहां बेटा आईआईटी की प्रवेश परीक्षा पास करने के लिए एक नामी कोचिंग सेंटर में तैयारी कर रहा है। एक और उदाहरण देखें:ओडिशा से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर चुकी श्वेता कुमारी इंजीनियरिंग क्षेत्र में मंदी के कारण बैंक की नौकरी की तैयारी कर रही हैं। सिलीगुड़ी के अपने घर में रहकर उसने परीक्षा दी मगर लिखित परीक्षा की बाधा पार नहीं हो पाई। उसने दिल्ली का रुख किया और यहां एक कोचिंग से बैंकिंग की तैयारी के बाद पहली बार में ही रिजर्व बैंक और बैंक पीओ की लिखित परीक्षा पास कर ली। ये दो उदाहरण देश में कोचिंग के पूर्ण विकसित हो चुके धंधे की कहानी बयां करते हैं। जरा 15 साल पहले का जमाना याद करें जब कोचिंग का मतलब आपके घर में ही आस-पड़ोस के किसी बेरोजगार युवक द्वारा आपके बच्चों को पढ़ाई में थोड़ी-बहुत मदद कर देना होता था। अब अगर बच्चे को डॉक्टर, इंजीनियर, मैनेजर, प्रशासनिक अधिकारी या किसी सरकारी दफ्तर में क्लर्क ही बनना हो तो औपचारिक शिक्षा की डिग्री के साथ-साथ किसी कोचिंग संस्था का मार्गदर्शन होना अनिवार्य है अन्यथा गला काट प्रतिस्पर्धा के इस दौर में उसका पिछड़ना तय है। सीधे शद्ब्रदों में कहें तो कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और कटक से अटक तक कोचिंग का धंधा औपचारिक शिक्षा के साथ-साथ पांव पसार चुका है और इस सच से कोई इनकार नहीं कर सकता। साल 2013 में हुए एक आकलन के मुताबिक भारत में कोचिंग इंडस्ट्री लगभग 23.7 अरब डॉलर (160.16 अरब रुपये) की थी, जिसके साल 2015 में 40 अरब डॉलर (270 अरब रुपये) के होने की भविष्यवाणी की गई थी और अगले पांच वर्षों में यह 500 अरब रुपये तक पहुंच सकती है।
आवरण कथाः कोचिंग का धंधा, कितना स्याह, कितना सफेद

एसोसिएटिड चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ऑफ इंडिया (एसोचैम) के एक सर्वे के अनुसार मेट्रो शहरों में प्राइमरी स्कूल के 87 फीसदी और हाईस्कूल के 95 फीसदी बच्चे निजी कोचिंग लेते हैं। एसोचैम के अनुसार भारत में निजी कोचिंग इंडस्ट्री हर साल 35 फीसदी की दर से बढ़ रही है। मध्यवर्ग अपनी आय का एक-तिहाई निजी कोचिंग पर खर्च करता है ताकि उनके बच्चे प्रोफेशनल कोर्स में दाखिले के लिए प्रतियोगिता परीक्षाएं निकाल सकें। राजस्थान का कोटा शहर निजी कोचिंग का सबसे बड़ा केंद्र है लेकिन दिल्ली, इलाहाबाद, पटना, चंडीगढ़, हैदराबाद, बेंगलुरू, तिरुअनंतपुरम और मुंबई समेत देश के हर छोटे-बड़े शहरों में कोचिंग सेंटर हैं। दिल्ली में आईएएस के लिए वाजीराव एंड रेड्डी, विद्यामंदिर, एसएससी के लिए पैरामाउंट, केडी, चाणक्य, कोटा में विभिन्न प्रोफेशनल कोर्सों के लिए कॅरिअर प्वाइंट, बंसल, रिजोनेंस, ऐलेन, हैदराबाद में थिंक सैल, श्री चैतन्य, नारायणा, केरल में बाइजू, मुंबई में राव, पेस कोचिंग सेंटरों ने समानांतर शिक्षा व्यवस्था खड़ी की है। इनकी वजह से सिर्फ शिक्षा नहीं बदली, शहरों की आर्थिक सूरत भी बदल गई। कोटा के करिअर प्वाइंट के निदेशक ओम महेश्वरी के मुताबिक 'आर्थिक मंदी का कोटा पर कोई असर नहीं हुआ। यहां मकान किराये पर चढ़ रहे हैं, निर्माण चल रहा है, दुकानों पर भीड़ है, धोबी-नाई, बावर्ची, रिक्‍शा -ऑटो सभी के पास काम है।‘ उनके मुताबिक शहर की आर्थिक खुशहाली की वजह कोचिंग के लिए बाहर से आने वाले लाखों छात्र हैं।

 

बात सिर्फ यहां तक नहीं रही। भारतीय कोचिंग इंडस्ट्री इतने मुनाफे की इंडस्ट्री बनती जा रही है कि अब इसमें विदेशी निवेश तक होने लगा है। दक्षिण भारत के नामी कोचिंग इंस्टीट्यूट थिंक सैल, जो गेट और आईआईटी की प्रतियोगिता परीक्षा की कोचिंग देते हैं, की कंपनी में अमेरिकी कंपनी कैप्लेन ने निवेश किया है। कंपनी के निदेशक मोहित गोयल बताते हैं कि थिंक सैल 'युक्ति’ के तहत विदेश जाने के लिए जीआरई, जीमैट, सैट और टॉफिल की प्रवेश परीक्षा की कोचिंग देता है, कैप्लेन ने 'युक्ति’ में ही निवेश किया है। हैदराबाद के ऐप्ट एकेडमिक सॉल्यूशंस ने ऑनलाइन कोचिंग में नाम कमाया है। ऐप्ट एकेडमिक सॉल्यूशंस के निदेशक देवेंद्र चंद्राकर बताते हैं, '2008 में हमने सबसे पहले आईआईटी के लिए ऑनलाइन कोचिंग का प्रयोग पोर्ट ब्लेयर में किया था। वहां हमें रिकॉर्डतोड़ सफलता मिली।’ चंद्राकर के अनुसार विजआईक्यू इंटरफेस और आधुनिक तकनीक के जरिये ऑनलाइन कोचिंग यानी ई-लर्निंग का ट्रेंड इतना बढ़ा है कि अगले दस साल में यह देश की सबसे बड़ी इंडस्ट्री होगी। इसकी लोकप्रियता इसलिए है कि इसमें समय की बचत है। दूसरे इसमें ऑफिस और इन्फ्रास्ट्रक्चर का खर्च भी नहीं। 4जी आने के बाद ऑनलाइन कोचिंग और जोर पकड़ेगी। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अमेरिका में रहने वाले सलमान खान की ऑनलाइन 'खान अकेडमी’ की तारीफ के बाद ऑनलाइन कोचिंग की ओर लोगों का ध्यान गया है।

 

उत्तर की तरह दक्षिण भारत में भी कोचिंग इंडस्ट्री शिक्षा की रीढ़ की तरह है। मिसाल के लिए चैतन्य और नारायणा कोचिंग सेंटर आईआईटी प्रवेश परीक्षा के लिए संभावित 30-30 छात्रों के बैच बनाते हैं, जिसे 'चाइना बैच’ कहते हैं। इनमें से फिर 30 छात्र छांटे जाते हैं। हर साल आईआईटी में चाइना बैच के छात्र टॉप 100 में रहते ही हैं। आंध प्रदेश, तमिलनाडु और महाराष्ट्र में हालात ये हैं कि कोचिंग सेंटर स्कूलों से जुड़ गए हैं ताकि स्कूली पाठ्यक्रम के साथ ही बच्चों को प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए तैयार किया जा सके। हालांकि इससे स्कूल फीस बढ़ती है पर कोचिंग सेंटर जाने की बच्चों की दौड़-धूप बच जाती है।

 

कुछ लोग कोचिंग की लोकप्रियता पीछे वजह स्कूली शिक्षा के स्तर में गिरावट को मानते हैं पर असल में स्कूल स्तर के नेशनल टैलेंट सर्च एग्जाम (एनटीएसई), ओलंपियाड, किशोर वैज्ञानिक प्रोत्साहन योजना (केवीपीवाए) से लेकर प्रोफेशनल कोर्स और विदेश में नौकरी या एडमीशन के लिए कोचिंग सेंटर्स का महत्व को नकारा नहीं जा सकता। इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा के लिए नामी कोचिंग सेंटर फिटजी के निदेशक आरएल त्रिखा कहते हैं कि हमारे यहां छठी क्लास से बच्चे आने लगते हैं। जितनी कम उम्र में बच्चा हमारे पास आएगा हम उसे उतनी जल्दी मांजते हैं। उनका कहना है कि प्रतियोगिता परीक्षा में आईक्यू से ज्यादा एग्जाम टेंपरामेंट मायने रखता है, जो कोचिंग सेंटर में ही सिखाया जाता है। प्रतिवर्ष 14 लाख छात्रों के लिए 9,876 आईआईटी सीटों के लिए परीक्षा पास करना बेहद मुश्किल है। इसके लिए फोकस, पैनापन, अध्ययन, परीक्षा की आदत, मानसिकता, सवालों की प्राथमिकता, प्रणाली जैसी चीजें कोचिंग सेंटर ही सिखाते हैं। कोटा के ऐलेन कोचिंग इंस्टीट्यूट निदेशक गोविंद माहेश्वरी बताते हैं कि अगर बच्चे प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए स्कूल के भरोसे रहेंगे तो कभी पास नहीं हो पाएंगे। स्टाफ सेलेक्‍शन कमीशन (एसएससी) के लिए कोचिंग देने वाले दिल्ली के पैरामाउंट कोचिंग सेंटर के निदेशक राजीव सौमित्र के अनुसार, 'अकादमिक पढ़ाई प्रतियोगिता परीक्षाओं के नजरिये से नहीं करवाई जाती।’ आईएएस परीक्षा की कोचिंग के लिए मशहूर वाजीराव रेड्डी के निदेशक डॉ. एसएस चौधरी कहते हैं कि अकादमिक पढ़ाई का स्तर गिरने से कोचिंग सेंटरों पर निर्भरता बढ़ी है। चौधरी के अनुसार, बीते दस साल में सिविल परीक्षा की तैयारी के लिए कोचिंग सेंटर आने वालों की तादाद 70 फीसदी तक बढ़ी है।

 

अब बात फीस की। अच्छे कोचिंग इंस्टीट्यूट की फीस 1.2 लाख रुपये से लेकर 2.8 लाख रुपये सालाना तक होती है। यही वजह है कि कोचिंग सेंटरों में शिक्षकों को अच्छे मासिक वेतन भी मिल रहे हैं। इतना विशाल होने के बावजूद कोचिंग का पूरा कारोबार असंगठित ही है। इसे नियमित करने के लिए सरकार ने अमित मिश्रा कमेटी बनाई थी। हाल ही में इस कमेटी ने केंद्र को अपनी रिपोर्ट दी है। इसके अनुसार सिर्फ इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा के लिए कोचिंग सेंटर हर साल 24,000 करोड़ रुपये कमाते हैं। कमेटी के मुताबिक इसे नियमित करने के लिए ऑल इंडिया काउंसिल बनाई जाए ताकि फीस और गुणवत्ता के मामले में छात्रों से लूट-खसौट न हो। कोटा के कॅरिअर प्वाइंट कोचिंग के निदेशक ओम माहेश्वरी इससे सहमत हैं। वह कहते हैं कि 'कोचिंग सेंटरों के लिए नियम-कानून होने चाहिए। हालांकि राज्य स्तर पर हैं पर वह सख्ती से लागू नहीं होते। इससे फायदा यह होगा कि गलत तरीके से काम कर रहे कोचिंग सेंटरों पर नकेल कसी जा सकेगी।’

 

कोचिंग के बारे में छात्र क्या कहते हैं। राजस्थान के सीकर जिले के संदीप पैरामाउंट से एसएससी में कंबाइंड ग्रेजुएट लेवल (सीजीएल) परीक्षा के लिए 5 महीने की कोचिंग ले रहे हैं। वह इनकम टैक्स इंस्पेक्टर बनना चाहते हैं। उन्होंने भिवानी से चार साल में बीटेक किया। वह कोचिंग के समर्थक हैं। मुखर्जी नगर के चाणक्य इंस्टीट्यूट से कोचिंग ले रही प्रियंका दिल्ली पुलिस में सब-इंस्पेक्टर बनना चाहती हैं। वह कहती हैं कि घर पर पढ़ाई नहीं होती। कॉलेज में लंबे तरीके से सवाल हल करने बताए जाते हैं जबकि यहां शॉर्ट ट्रिक्स बताई जाती हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय से फिजिक्स ऑनर्स करने रहे मनीष कौशिक के अनुसार, 'दो घंटे में 200 सवालों का जवाब कैसे देना है, यह कोचिंग सेंटर आकर ही पता लगता है और दूसरे विषयों की समझ आ जाती है।’

 

दिल्ली विश्वविद्यालय से बीए करने वाले गोकुल कृष्ण दिल्ली के मुखर्जी नगर के पैरामाउंट कोचिंग सेंटर से सरकारी नौकरी के तहत ऑडिटर बनने के लिए कोचिंग ले रहे हैं। वह बताते हैं कि उन्होंने बीटेक की पढ़ाई की है। दूसरे विषयों को कम समझते हैं इसलिए दूसरे विषयों में समझ बनाने के लिए कोचिंग ले रहे हैं। उनका कहना है कि कोचिंग से पढ़ाई में अनुशासन बना रहता है और नोट्स मिल जाते हैं। यहां लगातार परीक्षाएं होती हैं, टेस्ट होते हैं जिससे परीक्षा देने की आदत सी हो जाती है। दिल्ली के मुखर्जी नगर में शाम के समय छात्रों की भीड़, चारों ओर कोचिंग के होर्डिंग, जमीन पर कोचिंग के विज्ञापन के बिखरे हुए पैंफलेट्स यहां कोचिंग के बड़े कारोबार की कहानी बयां करते हैं।   

 

दिल्ली के विद्यामंदिर क्लासेज के फाउंडर- शिक्षक ब्रज मोहन, श्याम मोहन और मनमोहन बताते हैं कि सफलता सिर्फ कड़ी मेहनत से नहीं मिलती बल्कि उसके लिए सही मार्गदर्शन की भी जरूरत होती है। अभिभावक और शिक्षक छात्र की हर जरूरत पूरा करते हैं लेकिन प्रतियोगिता परीक्षाओं के कुछ मंत्र होते हैं, जो हम बताते हैं। बिना तनाव दिए हम छात्र को यह बताते हैं कि प्रतियोगिता में सफलता है तो विफलता भी है लेकिन विफलता में निराश होने के बजाय उसे सफल होने की चुनौती की तरह लेना चाहिए। विद्यामंदिर के मोहन भाइयों के अनुसार सिलेबस की पढ़ाई प्रतियोगिता परीक्षाओं की पढ़ाई से बिल्कुल अलग है। इन प्रतियोगिताओं के लिए अपने अलग प्रकार के ट्रिक्स होते हैं, जो कोचिंग में आने से पता लगते हैं। 

 

 

हजारों करोड़ का कोचिंग कारोबार

'मैंने लालटेन की रोशनी में पढ़ाई की है। मेरे पिता हमेशा कहते कि बेटा खूब पढ़ो, आगे बढ़ो तभी घर में बिजली आएगी। बिजली की चाहत के चलते मैंने जी तोड़ मेहनत की,’ यह कहते हुए व्हीलचेयर पर बैठे कोटा कोचिंग के जनक वीके बंसल की आंखें चमक जाती हैं। लालटेन की रोशनी ने बंसल को वह रास्ता दिखाया जिसने कोटा में हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का कोचिंग कारोबार स्थापित कर दिया।

 

कोटा की जेके सिंथेटिक्स फैक्ट्री में बतौर सहायक अभियंता बंसल मस्‍क्यूलर डिस्ट्रॉफी बीमारी से ग्रस्त थे। सन 1991 में उन्होंने नौकरी छोड़ घर में 'बसंल क्लासेज’ शुरू कर दीं। बंसल इंस्टीट्यूट से पहले साल में 10 और अगले साल 50 छात्रों का आईआईटी में चयन हो गया। इसके बाद बंसल ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। इस कामयाबी से प्रेरित हो कोटा में एक के बाद एक कोचिंग सेंटर खुलने लगे। आज यह शहर भारत के बड़े कोचिंग केंद्रों में शुमार है। देश भर से यहां छात्र इंजीनियरिंग-मेडिकल की प्रतियोगी परिक्षाओं की तैयारी के लिए आते हैं। रेजोनेंस कोचिंग सेंटर के प्रबंध निदेशक आरके वर्मा कहते हैं, 'कोटा कोचिंग सेंटर्स में करीब सवा लाख छात्र हैं। इनकी फीस और रहना-खाना मिलाकर यहां औसत अरबों रुपये का सालाना कारोबार होता है।’ आरके वर्मा की अब कोटा में निजी यूनिवर्सिटी खोलने की योजना है। कॅरिअर प्वांइट कोचिंग सेंटर पहले ही यूनिवर्सिटी शुरू कर चुका है। खुशहाल कोटा का एक स्याह पक्ष भी है। यहां के कोचिंग संस्थानों में पढ़ रहे छात्रों में खुदकुशी की घटनाएं बढ़ी हैं। राजस्थान उच्च न्यायालय ने इसका संज्ञान भी लिया है। राज्य सरकार ने मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक कमेटी बना इसके कारणों की जांच शुरू कर दी है। कोटा सिटी पुलिस के आंकडे़ बताते हैं कि सन 2015 में इन कोचिंग संस्थानों में पढऩे वाले करीब 30, सन 2014 में 14 और 2013 में 26 छात्रों ने आत्महत्या की थी। खुदकुशी करने वाले सभी छात्र बाहरी राज्यों के हैं। कोटा के मनोचिकित्सक डॉ. एमएल अग्रवाल बताते हैं कि इन कोचिंग संस्थानों में पढ़ने वाले बच्चे अन्य बच्चों के मुकाबले 25 फीसदी ज्यादा अवसाद के शिकार हैं। इसके कई कारण हैं, डर, माता-पिता से दूर रहने की वजह से तनाव, अवसाद, परेशानियां और कुछ हद तक पारिवारिक पृष्ठभूमि। इसके लिए कोटा पुलिस ने चाइल्ड हेल्प लाइन और व्हॉट्सएप पर मदद सेवाएं शुरू की थी लेकिन वे कारगर साबित नहीं हुईं। वीके बंसल के अनुसार 'भावुक बच्चे ही आत्महत्या करते हैं। इसके लिए कोचिंग संस्थान जिम्मेदार नहीं। बच्चों पर परिजनों का भी बहुत दबाव होता है।’ जबकि अभिभावकों का आरोप है कि छात्रों की पढ़ाई का स्तर गिरने की जानकारी अभिभावकों को नहीं दी जाती। ऐसे में बच्चा अवसादग्रस्त हो खुदकुशी का कदम उठाता है।

 

प्रतियोगिता ने मध्य प्रदेश में भोपाल-इंदौर को भी कोचिंग सेंटर्स बड़े केंद्रों के तौर पर स्थापित कर दिया है। केंद्रीय विद्यालय भोपाल के प्राचार्य रहे सुनील श्रीवास्तव का मानना है कि जो छात्र मेधावी होते हैं वे अपने बूते परीक्षाएं पास करते हैं लेकिन ऐसे छात्रों की संख्या बहुतायत में हैं जो कोचिंग के जाल में फंसकर न कोचिंग कर पाते हैं न स्कूली शिक्षा। एनसीईआरटी के मानदंड के मुताबिक एक कक्षा में छात्रों की अधिकतम संख्या 45 होती है लेकिन कोचिंग में यह तादाद ढाई से तीन सौ तक होती है।

(कोटा से आउटलुक प्रतिनिधि, भोपाल से राजेश सिरोठिया )

 

'शिक्षण संस्थानों में गिर रहा शिक्षा का स्तर

रामानुजम की तरह आनंद कुमार भी गरीबी में पले बढ़े क्योंकि उनके पिता के निधन के बाद परिवार के पास उनके पालन पोषण का कोई  साधन नहीं था। ऐसे भी दिन आए जब वह अपनी मां द्वारा तैयार किए गए पापड़ बाजार में बेचने जाते थे ताकि किसी तरह गुजर बसर हो सके। अंतत: अपने मजबूत इरादों से परिस्थितियों को बदलने पर मजबूर कर देने वाले आनंद कुमार के रिसर्च पेपर अमेरिका और जापान के रिसर्च जर्नल में छपे। आज स्वयं में संस्थान बन चुके आनंद कुमार से कोचिंग, उसके विकास और सुपर 30 पर आउटलुक से निमेश शुक्ला ने बातचीत की:

 

कोचिंग संस्थानों के आधुनिक स्वरूप के इतनी व्यापकता में आने की वजह?

जी, इसके स्पष्ट कारण हैं। इसकी शुरुआत तो वैसे शिक्षकों ने ही की जो स्कूल में न पढ़ाकर घर में पूरी तवज्जो से पढ़ाते। धीरे-धीरे यह प्रवृत्त‌ि जोर पकड़ने लगी। कुछ अच्छे शिक्षकों को छोड़कर लगभग सभी शिक्षक ऐसा करने लगे, जिससे स्कूल और कॉलेजों के शिक्षा का स्तर गिरता चला गया और छात्र-छात्राओं के पास कोचिंग के अलावा कोई चारा नहीं बचा।

 

प्रतियोगिता परीक्षाओं के दबाव पर क्या कहेंगे?

यह काफी अहम कारण है, स्कूलों की पढ़ाई और प्रतियोगिता परीक्षाओं के स्तर का अंतर ही कोचिंग संस्थाओं के बढ़ने का सबसे महत्वपूर्ण कारण है। आज एक गांव के बच्चे की प्रतियोगिता उसी गांव या शहर के बच्चे से नहीं रह गई है बल्कि ग्लोबलाइजेशन के दौर में उसे विश्व के बेहतरीन देशों के होनहार बच्चों से प्रतियोगिता करनी पड़ती है। ऐसे में जब स्कूलों और कॉलेजों में शिक्षा का स्तर वैसा नहीं है तो कोचिंग संस्थानों की जरूरत बढ़ जाती है।

 

क्या इसे रोकने का कोई उपाय नहीं है?

यह एक बड़ी परियोजना का हिस्सा है। हमें शिक्षकों के प्रशिक्षण की एक बड़ी सटीक प्रणाली बनानी होगी, जिससे शिक्षा का मॉडिफिकेशन हो सके और स्कूल-कॉलेजों में ही वह सब कुछ उपलब्‍ध हो सके जिसके लिए बच्चे बाहर जाते हैं। इससे सबसे ज्यादा भला उन गरीब छात्रों का होगा जो पैसे के अभाव में बेहतर संस्थानों की फीस नहीं दे पाते।

 

इसी को ध्यान में रख आपने सुपर 30 बनाया होगा, उसके बारे में बताएं ?

इस कोचिंग को प्रायोगिक तौर पर शुरू किया गया। आज यह एक संस्थान के रूप में तब्दील हो चुका है, जिसे अब सुपर- 30 कहा जाता है। इस संस्थान में हर साल परीक्षा देने वाले हजारों छात्रों की भीड़ से 30 छात्र चुने जाते हैं और यहां उन्हें आईआईटी प्रवेश परीक्षा की बाबत कोचिंग दी जाती है। मैंने निर्धन परिवारों से आने वाले बच्चों की नि:शुल्क तैयारी कराने की शुरुआत की थी। बहुत खुशी की बात है कि आज इस सोच को अस्तित्व में आए 14 साल हो चुके हैं और अब तक कुल 390 छात्रों को मैंने पढ़ाया है जिनमें से 333 आईआईटी के लिए चुने जा चुके हैं और बाकी भी बेहतर जगहों पर ही हैं।

 

और इसके लिए फंड?

हम जो ट्यूशन पढ़ाते हैं उसी से इसका खर्च निकल आता है। अब चूंकि सुपर 30 मशहूर हो गया है, लिहाजा फंड की पेशकश की जाने लगी है, पर मैंने सभी को अस्वीकार कर दिया। जब मुझे पैसे की जरूरत थी तब किसी ने मदद नहीं की, अब मुझे उन लोगों की मदद नहीं चाहिए।

 

आज जो सम्मान पुरस्कार आपको प्राप्त है उसके बारे में कभी कल्पना की थी क्या?

कभी पुरस्कार या सम्मान पाने के बारे में नहीं सोचा था। मुझे आज खुशी हो रही है कि मैं अपने मिशन के जरिये उन निर्धन बच्चों को तरक्की की ऊंचाइयां छूने में एक कड़ी का काम कर रहा हूं।

 

अभी नया क्या चल रहा है?

कुछ किताबें लिख रहा हूं। ऑनलाइन कोर्स पर भी काम चल रहा है। साथ ही इस बात पर भी बड़ी गंभीरता से विचार चल रहा है कि सुपर 30 की संख्या को 50 से 60 किया जाए।

 

वर्तमान में छात्र-छात्राओं को क्या संदेश देना चाहेंगे?

निराश न हों, धैर्य रखें और विषय को गहराई से समझें, यही सफलता की कुंजी है।

 

 

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