दिसंबर 2012, दिल्ली। नवंबर 2019, हैदराबाद। केवल नाम बदले हैं। शहर का नाम, पीड़िता का नाम, अपराधियों के नाम... लेकिन अपराध वही है। तेलंगाना की राजधानी में 27 साल की पशु चिकित्सक का चार लोगों ने बलात्कार किया और फिर गला घोंट कर हत्या कर दी। सबूत मिटाने की कोशिश में उसके शव को जला दिया गया। इसके बाद मीडिया का तमाशा शुरू हुआ। टीवी चैनलों द्वारा एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में इस आपराधिक घटना की मिनट-दर-मिनट चीर-फाड़ हुई, यह दिखाने के लिए कि कौन खबरों के जरिये कितना ज्यादा विवरण दे सकता है। सड़के विरोध प्रदर्शन से पट गईं। संसद से भी आवाज आई जहां कुछ सांसदों ने बलात्कारियों को नपुंसक बना देने और पब्लिक लिंचिंग तक की बात कह डाली।
असुरक्षित भारत
इस शोर में हैदराबाद की उस महिला का रुदन खो गया जो घर लौट रही थी और गैंग रेप होते और मरते वक्त मदद मांग रही थी। वह बिलकुल वैसे ही रोई जैसे दिसंबर 2012 में वो लड़की रोई थी जिसका चलती बस में निर्दयतापूर्वक गैंग रेप हुआ था। इस घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया था, तब राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन हुए थे। बलात्कार से जुड़े कानूनों में कड़े प्रावधान आए। तभी से, “महिला सुरक्षा” राजनीतिक मुद्दा और चुनावी नारा बन गया है। लेकिन दुनिया में सबसे असुरक्षित माने जाने वाले देश में ज्यादा कुछ नहीं बदला। जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट फॉर वुमेन, पीस एंड सिक्योरिटी की हालिया रिपोर्ट में 167 देशों में हम 133 वें स्थान पर हैं। थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन के एक अन्य वैश्विक सर्वेक्षण में महिलाओं के लिए दस सबसे खतरनाक देशों की सूची में भारत को पाकिस्तान और अफगानिस्तान से भी ऊपर पर रखा गया है।
हर 15 मिनट में एक बलात्कार
आंकड़े भारत में महिलाओं द्वारा भोगी गई कड़वी वास्तविकता को दर्शाते हैं। ये ऐसे देश के आंकड़े हैं, जहां महिलाओं को देवी के रूप में पूजा जाता है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा जारी किए गए नए आंकड़ों से पता चलता है कि 2017 में 33,600 से अधिक महिलाओं का बलात्कार किया गया, यानी हर 15 मिनट में एक बलात्कार। 1971 के बाद से, जब एनसीआरबी ने बलात्कार के आंकड़े एकत्र करना शुरू किया, भारत में यौन हमलों के मामलों में 1,200 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। लेकिन इन आंकड़ों से यह तथ्य पता नहीं चलता कि अपराधियों में नेता, विधायक, स्वयंभू धर्मगुरु और सुरक्षाकर्मी शामिल हैं। उत्तर प्रदेश में नाबालिग से बलात्कार के आरोप में नवंबर के पहले सप्ताह में गिरफ्तार किए गए तीन लोगों में एक सीआरपीएफ जवान भी शामिल है। यह कहानी तब और भयानक हो जाती है जब देश के हर कोने में बार-बार ऐसी खौफनाक घटनाएं होती हैं। जैसे, जम्मू के कठुआ के एक मंदिर में आठ साल की बच्ची की बलात्कार के बाद हत्या हो जाती है।
घटनाएं महज मीडिया की सुर्खियां
हैदराबाद स्थित राजनीतिक टिप्पणीकार ब्रिगेडियर (सेवानिवृत्त) जी.बी. रेड्डी और भी कड़े कानून बनाने की वकालत करते हैं। उन्होंने आउटलुक को बताया, “दुर्भाग्य से, बलात्कार केवल मीडिया की सुर्खियां बनते हैं। वे इन अपराधों को सार्वजनिक आक्रोश और उपद्रव दिखा कर सनसनीखेज बनाते हैं, लेकिन ये लोग आज तक सरकार को कोई भी सख्त कानून लाने के लिए मजबूर नहीं कर पाए हैं।” वह कहते हैं, “निर्भया के बाद क्या हुआ?” एक्टिविस्टों के दबाव के कारण सरकार केवल मृत्युदंड दे सकती है, जो बिलकुल प्रभावकारी नहीं है। मांग थी कि अपराध में कमी लाने के लिए अपराधियों को नपुंसक बना दिया जाए और गैंग रेप के बाद हत्या करने वाले आरोपियों को फांसी की सजा दी जाए।” हालांकि, मानवाधिकार कार्यकर्ता मौत की सजा को मध्यकालीन प्रथा कहते हैं जिसका आधुनिक समाज में कोई स्थान नहीं है। उनका तर्क है कि मौत की सजा भी ऐसे जघन्य अपराधों पर अंकुश लगाने में विफल रही है।
यह भी एक तथ्य है कि कानून समुचित सहयोग न मिलने पर शक्तिहीन हो जाता है। बलात्कार के मामलों के दौरान पुलिस पर अक्सर असंवेदनशीलता का आरोप लगाया जाता है। हैदराबाद पुलिस पर भी आरोप है कि पीड़िता का परिवार जब उसकी गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाने थाने गया तो पुलिस का कहना था कि हो सकता है वो किसी के साथ चली गई हो। एक बार जब मामला अदालत में चला जाता है वहां पीड़िता को बार-बार जाना पड़ता है और उसे बार-बार उसी स्थिति में घसीटा जाता है। एनसीआरबी के आंकड़ों से पता चलता है कि बलात्कार के मामलों में सिर्फ 32 फीसदी मामलों में दोषसिद्ध हो पाता है। इसका मुख्य कारण जांच प्रक्रिया में देरी है। न्याय में देरी एक बार फिर चर्चा में है। हैदराबाद केस के साथ इस बारे में इसलिए बात हो रही है क्योंकि 2012 के गैंग रेप के दोषियों की दया याचिका अभी राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के पास है। चारों अभियुक्तों को 2013 में फांसी की सजा सुनाई गई थी। उन दिनों के किशोर कानून के तहत उनमें से नाबालिग को अधिकतम तीन साल की सजा सुनाई गई थी और एक अभियुक्त तिहाड़ जेल में मृत पाया गया था।
फास्ट ट्रैक कोर्ट की मांग
2012 के मामले के तुरंत बाद, बलात्कार के मामलों में न्याय में तेजी लाने के लिए ज्यादा फास्ट-ट्रैक अदालतों (एफटीसी) की बात हुई थी। 2013 में, सरकार ने 2015 से 2020 के बीच कम से कम 1,800 एफटीसी स्थापित करने का प्रस्ताव दिया था। लगभग सात साल बाद, इस साल जुलाई में, केंद्र ने निर्भया फंड के साथ 1,023 एफटीसी की स्थापना के लिए एक नई योजना की घोषणा की। सुप्रीम कोर्ट के वकील और 1978 में रंगा-बिल्ला मामले में बचाव पक्ष के वकील डी.के. गर्ग का कहना है कि एफटीसी की स्थापना कर अनावश्यक कानूनी अड़चनों को दूर किया जा सकता है। वह इसके माध्यम से त्वरित न्याय वितरण प्रणाली के कार्यान्वयन के पक्षधर हैं।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान सहित कम से कम 11 राज्यों ने आवंटित किए गए निर्भया फंड के एक पैसे का उपयोग नहीं किया है।