16 अगस्त 1928 को जन्मे रजनी कोठारी 19 जनवरी 1915 को इस संसार से विदा हो गए। हंसाबेन कोठारी एवं रजनी कोठारी की जोड़ी ने मार्च 1977 में जनता पार्टी की जीत के बाद, खास तौर पर जुलाई 79 में उसमें हुए विभाजन के बाद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जनता पार्टी में इतनी जल्दी विभाजन और 1980 में इंदिरा की सत्ता में वापसी के बाद भारतीय राजनीति में भारी उथल-पुथल थी। जनता पार्टी के समानान्तर साझी वंशावली वाले छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी, तरुण शांति सेना, समाजवादी युवजन सभा, सर्व सेवा संघ और लोहिया विचार मंच आदि संगठनों से जुड़े सैकड़ों कार्यकर्ता परिवर्तन की धार को न सूखने देने की कोशिश में लगे थे। सिद्धराज ढड्ढा, ठाकुरदास बंग, वीएम तारकुंडे, सुरेंद्र मोहन आदि इन समूहों की गतिविधियों से निकट से जुड़े थे। गांधी, विनोबा, जेपी, लोहिया, एमएन राय आदि प्रकाश स्तंभों पर निर्भर इस धारा से जुड़े आम कार्यकर्ता मुख्य धारा (जनता सरकार) के शीर्ष नेतृत्व के समझौतावाद को कोसते थे। इन जमातों के नेता रजनी कोठारी को अपना स्वाभाविक हमसफ़र मानते थे और उनसे निरंतर संवाद में रहते थे।
रजनी कोठारी के चिंतन का फलक ज़्यादा फैला हुआ था। मार्क्सवादी-लेनिनवादी प्रेरणाओं के चलते दर्जनों छोटे-बड़े समूहों से वह लगातार संपर्क रखते थे। ऐसे समूहों का एक हिस्सा अब तक भूमिगत रहकर सशस्त्र क्रांति के लिए काम कर रहा था। उनके बीच आपातकाल के अनुभव ने अनेक सवाल खड़े कर दिए थे। उन्हें ऐसे मंचों और व्यक्तियों की तलाश थी जहां इन सवालों पर खुलेपन से बात की जा सके। ऐसे समूहों से जुड़े व्यक्ति कोठारी साहब एवं कुछ हद तक लोकायन के संवाददाता थे। डॉक्टर विनयन का नाम उनमें प्रमुखता से लिया जा सकता है। उनका रजनी कोठारी, स्मितु कोठारी और धीरूभाई से लगातार बहस-मुबाहिसा होता रहता था। एक यह विडंबना ही है कि समाजवादी और मार्क्सवादी प्रेरणाओं से काम करने वाले समूह सत्तर के दशक के मध्य तक रजनी कोठारी को व्यवस्था का दलाल बुद्धिजीवी घोषित करते थे जबकि वे इनसे संवाद में सबसे आगे थे।
सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में भारत के प्रौद्योगिक संस्थानों में मार्क्सवादी-लेनिनवादी स्टडी सर्कल्स से जुड़े अनेक नौजवान वैज्ञानिकों ने औपनिवेशिक मानस से मुक्ति पाने के लिए पीपल्स पैट्रियोटिक साइंस एंड टेक्नोलजी (पीपीएसटी) नाम का मंच बनाया। इस मंच और लोकायन-सीएसडीएस के नेतृत्व में एक निरंतर संवाद चला करता था। असल में क्लाड अल्वारिस और सुनील सहस्त्रबुद्धे जैसे कुछ प्रमुख लोग लोकायन एवं पीपीएसटी दोनों में समान रूप से सक्रिय थे। इन संवादों के परिणामस्वरूप लोकतंत्र की अवधारणा का क्रांतिकरण हो रहा था। इससे पहले गांधी के अतिरक्त औपनिवेशिक गुलामी का सवाल कोई विचारधारा नहीं उठाती थी। रजनी कोठारी और आशीष नंदी जैसे लोग सीएसडीएस से इस सवाल को बहुत सिद्दत से उठा रहे थे। इन संवादों की धारावाहिकता शेखर पाठक के ज्ञान के स्वराज की बात या सुनील सहत्रबुद्दे के सारनाथ स्थित लोक विद्याश्रम में देखी जा सकती है।
इससे पहले वामपंथी आंदोलन में सीधे दलित, महिला, आदिवासी, अल्पसंख्यक आदि की पहचान के सवाल या सामाजिक न्याय के सवाल सीधे-सीधे नहीं उठाये जाते थे। अस्सी के ऊहापोह के दौर में ये सवाल वामपंथी आंदोलन के सरोकारों के महत्वपूर्ण मुद्दे बने। यह अचानक नहीं हुआ। ज़मीनी संघर्ष के नेताओं के लोकपक्षीय बौद्धिकों से निरंतर संवाद की लंबी प्रकिया से यह समझदारी पैदा हुई थी। ऐसी सभी प्रक्रियाओं में रजनी कोठारी की महती भूमिका होती थी।
रजनी कोठारी स्वयं तो पीयूसीएल के पदाधिकारी थे लेकिन उनका सहकार और संवाद सभी समूहों से था। इसलिए 23 जनवरी 1915 को दिल्ली में हुई उनकी श्रद्धांजलि सभा में विभिन्न पृष्ठभूमि के लोगों ने हिस्सा लिया। पीयूडीआर की ओर से जोजेफ मैथ्यू ने 1984 दंगे पर प्रकाशित रिपोर्ट “दोषी कौन?” में पीयूसीएल और पीयूडीआर के संयुक्त प्रकाशन में उनकी भूमिका को याद किया। वहीं महिला आंदोलन की अग्रणी चिंतक वासंती रमण ने 1986 में भास्कर नंदी के नेतृत्व वाली न्यू डेमोक्रेसी समूह की पहल पर आयोजिक ‘साम्प्रदायिकता की चुनौती और विविधता पर ख़तरे के बादल’ विषय पर रजनी कोठारी के मार्गदर्शन का ज़िक्र किया। मधु किश्वर ने 84 के दिल्ली दंगों में काम करने के दौरान रजनी कोठारी के संपर्क में आने की बात कही। हिंद स्वराज पीठ के संस्थापक राजीव वोरा ने कोठारी को प्यार करने वाला इंसान बताया। यही वजह थी कि वे कई तेजस्वी लोगों को एक जगह एकत्र कर पाए। इतिहासकार प्रो. गोपाल कृष्ण ने कहा कि साठ के दशक के बौद्धिक शून्य के दौरान कोठारी ने हमारी राजनीतिक समझ बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
आज जब अच्छे दिनों को तरह-तरह के अतिवादी तरीकों से परिभाषित किया जा रहा है। तब रजनी कोठारी की कमी बहुत खलती है। अस्वस्थता, जीवन साथी के न रहने और छह साल पहले बेटे स्मितु कोठारी के न रहने से वह पिछले एक दशक से कुछ नहीं लिख पा रहे थे। लेकिन उनका किया और लिखा इतना है कि कोई भी नई पहल लेने वाला समूह उसमें से अपने लिए पर्याप्त दिशा संकेत खोज सकते हैं।
(विजय प्रताप सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता है। उन्होंने रजनी कोठारी के साथ लोकायन की स्थापना की थी।)