“कई दशक से जारी हिंसा के खात्मे के लिए सरकारों के पास पुख्ता योजना का अभाव, सिर्फ घटनाओं के बाद सक्रियता और फिर सुस्ती का आलम”
छत्तीसगढ़ के नक्सलग्रस्त बस्तर इलाके के रक्तरंजित इतिहास में 3 अप्रैल और फिर 8 अप्रैल की तारीखें अलग-अलग तस्वीरों के साथ दर्ज हो गई हैं। पहली तारीख हिंसक झड़प की वह तस्वीर पेश करती है, जिसमें सीआरपीएफ के 22 जवानों और न जाने कितने माओवादियों के खून से वहां की माटी लाल हो उठी। दूसरी तारीख माओवादियों की गिरफ्त से सीआरपीएफ के जवान राकेश्वर सिंह मनहास की सकुशल वापसी की है, जिन्हें कुछ स्थानीय गांधीवादी मध्यस्थों की मदद से रिहा कराया जा सका। तो, क्या ये दोनों तस्वीरें कुछ ऐसा संकेत दे रही हैं, जो निराशा और आशा के बीच झूल रहे हैं।
छत्तीसगढ़ के बीजापुर में माओवादियोंं के साथ यह मुठभेड़ उस समय हुई जब सीआरपीएफ की कोबरा, बस्तरिया बटालियन, डीआरजी और एसटीएफ के करीब 2000 जवान दो दिनों से नक्सल सर्च ऑपरेशन पर निकले हुए थे। 3 अप्रैल यानी शनिवार की सुबह सुरक्षाबलों को सूचना मिली थी कि बीजापुर के जोनागुड़ा के पास बड़ी संख्या में माओवादी और मोस्ट वांटेड माओवादी कमांडर माड़वी हिड़मा मौजूद हैं।
जोनागुड़ा, गुंडम, अलीगुडम और टेकलागुडम सहित कई इलाकों में सर्च ऑपरेशन हुआ, लेकिन माओवादी सुरक्षा बलों के हाथ नहीं आए। सुरक्षा बल वापस लौटने लगे तो सिलेगार के पास घात लगाए माओवादियों ने उन पर हमला कर दिया। सूत्रों के अनुसार, एक दिन पहले से ही माओवादियों ने आसपास के जंगल में अपनी पोजीशन बना ली थी और पूरे गांव को खाली करवा दिया था। माओवादियोंं ने जवानों को शुरुआत में खुला रास्ता दे दिया और 'यू-शेप एम्बुश' रणनीति के तहत उन्हें घेर लिया और अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। माओवादी ऊपरी इलाके में थे, सो उनके लिए सुरक्षा बलों पर निशाना साधना आसान हो गया। करीब 5 घंटे चली मुठभेड़ में 22 जवान शहीद हो गए। माओवादियों ने अपने 4 साथियों के मारे जाने की पुष्टि की है।
इस हमले में 210वीं वाहिनी कोबरा के आरक्षक राकेश्वर सिंह मनहास माओवादियों के चंगुल में फंस गए। बाद में माओवादियों ने भी इस बात की पुष्टि की। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) द्वारा जारी बयान के अनुसार, ‘‘बस्तर आइजी सुंदरराज पी. के नेतृत्व में सुकमा और बीजापुर जिलों के गांवों में बड़ा हमला करने के लिए 2,000 जवान आ गए थे। पिछले साल अगस्त में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में इस तरह के अभियान की योजना बनाई गई थी। नवंबर से शुरू हुए इस अभियान में 150 से ज्यादा स्थानीय लोगों की मौत हुई है। हम सुरक्षा बलों के दुश्मन नहीं हैं, लेकिन वे बलि का बकरा बन रहे हैं। हम मृत पुलिसवालों के प्रति खेद प्रकट करते हैं।’’ इसके बाद आरक्षक राकेश्वर सिंह को छुड़वाने के लिए 6-7 सदस्यों वाले एक मध्यस्थता समूह का गठन किया गया, जिसके प्रयासों के बाद 8 अप्रैल को राकेश्वर सिंह छूट गए।
छत्तीसगढ़ में नक्सलियों और सुरक्षाबलों के बीच यह संघर्ष कई दशकों से जारी है। वर्ष 2000 में अलग राज्य बनने के बाद से छत्तीसगढ़ में 3,200 से ज्यादा मुठभेड़ की घटनाएं हुई हैं। गृह विभाग की एक रिपोर्ट के मुताबिक जनवरी 2001 से मई 2019 तक माओवादी हिंसा में 1,002 नक्सली और 1,234 सुरक्षाबलों के जवान मारे गए हैं। इस दौरान 1,782 आम लोग भी मारे गए और 3,896 माओवादियों ने समर्पण भी किया।
माओवादी हमले केवल छत्तीसगढ़ में ही नहीं हो रहे हैं। फरवरी में गृह राज्यमंत्री किशन रेड्डी ने संसद में बताया कि 2018 में माओवादी हिंसा की 833 घटनाएं दर्ज हुईं, जबकि 2019 और 2020 में 670 और 665 हुईं। झारखंड के चाईबासा में मार्च 2021 में आइईडी ब्लास्ट में झारखंड जगुआर के तीन जवान मारे गए। जुलाई 2018 में झारखंड के ही गढ़वा में बारूदी सुरंग के विस्फोट में जगुआर फोर्स के छह जवान शहीद हो गए थे। 2018 में माओवादियों ने आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम में टीडीपी विधायक के. सर्वेश्वर राव और पूर्व विधायक सिवेरी की गोली मारकर हत्या कर दी थी। इस तरह माओवादियों की सक्रियता का दायरा छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा के कुछ इलाके, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र तक फैले हुए हैं। लेकिन हकीकत यह भी है कि ज्यादातर हिंसक घटनाएं छत्तीसगढ़ और झारखंड में ही होती हैं। 2019 में माओवादी हिंसा की 69 प्रतिशत घटनाएं इन्हीं दो राज्योंं में हुईं।
ज्यादातर हिंसा छत्तीसगढ़ में क्यों है, इस पर राज्य के एक पूर्व डीजीपी का कहना है, ‘‘सत्तर के दशक में सामाजिक गैर-बराबरी के खिलाफ शुरू हुआ आंदोलन जल्द ही अपने मुद्दों से भटक गया। इस हिंसावादी विद्रोह की सबसे बड़ी मार आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, झारखंड और बिहार जैसे राज्यों को झेलनी पड़ रही है। सरकार इस हथियारबंद विद्रोह को हथियारों के सहारे ही कुचलना चाहती है, लेकिन कई बार इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। मसलन 2010 में सुकमा में सीआरपीएफ के 76 जवानों को माओवादियों मार गिराया था। इसी तरह झीरम में 2013 में परिवर्तन यात्रा पर निकली कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता विद्याचरण शुक्ल और एक दर्जन नेताओं सहित 25 लोगों की माओवादियों ने हत्या कर दी थी। इसके बाद, 15 नवंबर 2005 की रात को बिहार के जहानाबाद में एक हजार माओवादियों ने जेल पर हमला कर दिया था और माओवादी अजय कानू समेत 350 लोगों को जेल से छुड़ाने में कामयाब रहे थे। जाहिर है नक्सली बीच-बीच में कुछ न कुछ ऐसी घटनाएं करते रहते हैं जिससे उनका असर साफ तौर पर दिखता रहता है।’’
इस मामले में केंद्र से लेकर राज्य सरकारों ने भी कई बार माओवादियों के पूर्ण सफाए की योजना बनाई। 2010 में केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम के समय एक अभियान शुरू किया गया, जिसे 'ऑपरेशन ग्रीन हंट' कहा जाता था। फिर भाजपा के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने 2005 से 2011 के बीच सलवा जुडूम के लोगों को एसपीओ का दर्जा देकर माओवादियोंं के सफाए का दांव लगाया था। अब मोदी सरकार छत्तीसगढ़ सरकार के साथ मिलकर अभियान चला रही है, जिसे 'ऑपरेशन प्रहार' नाम दिया गया है। इस ऑपरेशन में दूसरे माओवाद ग्रस्त राज्यों को भी शामिल किया गया है। बीजापुर में हुए हमले के बाद चुनावी राज्य असम से सीधे जदगलपुर पहुंचे गृह मंत्री अमित शाह ने कहा, ‘‘हम नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाएंगे। पिछले 5-6 साल में कोर क्षेत्र में कई सुरक्षा कैंप खोले गए हैं, जिसकी वजह से माओवादी घबड़ाए हुए हैं। यह हमला उसी घबड़ाहट का परिणाम है। केंद्र और राज्य सरकार मिलकर काम कर रही है।’’
सवाल यही उठता है कि अगर सभी सरकारें खात्मे के लिए तैयार हैं तो फिर समस्या का अंत क्यों नहीं हो रहा है। इस पर पूर्व डीजीपी का कहना है, ‘‘माओवादियों के खिलाफ लड़ाई में सरकारों के पास स्पष्ट प्लान का अभाव है। सिर्फ घटना के बाद उनकी थोड़ी सक्रियता और फिर बयानबाजी दिखाई पड़ती है। उसके बाद चीजें फिर पुराने ढर्रे पर चलने लगती हैं।’’
उदाहरण के लिए 2018 में जब राज्य में विधानसभा चुनाव होने थे, उस वक्त कांग्रेस पार्टी ने जो ‘जन घोषणापत्र’ जारी किया था, उसे 2013 में झीरम घाटी में माओवादी हमले में मारे गए कांग्रेस नेताओं को समर्पित किया गया था। उसमें लिखा है, ‘‘प्रत्येक माओवाद ग्रस्त पंचायत को सामुदायिक विकास कार्यों के लिए एक करोड़ रुपये दिए जाएंगे, ताकि विकास के माध्यम से उन्हें मुख्यधारा से जोड़ा जा सके।’’ लेकिन ढाई साल बाद भी कोई पहल नहीं दिखती है।
जाहिर है, जब तक सरकारें अपना रवैया नहीं बदलतीं माओवादियोंं के खिलाफ लड़ाई आसान नहीं है। सरकारों को एक ठोस कारगर नीति के साथ आगे की कार्रवाई करने की जरूरत है, जिसमें न केवल सुरक्षा बलों में बेहतर समन्वय की दरकार है, बल्कि स्थानीय लोगों का समर्थन भी बेहद अहम है।
झारखंड में दहकती रहती है आग
पहाड़, जंगल, दुर्गम इलाके और असंतोष से उपजे आक्रोश के कारण झारखंड माओवादियों के लिए उर्वर भूमि है। कोयला खदान और दूसरे माइनिंग क्षेत्र, सड़क आदि निर्माण के काम लेवी के लिए आकर्षण का केंद्र हैं। इसमें अफीम की खेती ने नया ऐंगल जोड़ दिया है। खदान लेवी के बड़े आधार हैं तो विस्फोटक के भी। इसी कारण खदानों और निर्माण में लगने वाले वाहनों को जलाने की घटनाएं आये दिन होती रहती हैं। 2020 में पुलिस ने 874 किलो जिलेटिन-विस्फोाटक और 276 आइईडी जब्त किए।
6-7 गांधीवादियों के एक मध्यस्थता समूह के प्रयासों के बाद नक्सलियों ने 8 अप्रैल को आरक्षक राकेश्वर सिंह मनहास को रिहा कर दिया
यहां एक लाख से एक करोड़ रुपये तक इनाम वाले डेढ़ सौ से अधिक नक्सली हैं। पश्चिम बंगाल के 24 परगना के भाकपा माओवादी पोलित ब्यूरो सदस्य प्रशांत बोस उर्फ किशन दा, इसी रैंक के गिरिडीह के मिसिर बेसरा उर्फ भास्कर पर एक करोड़ रुपये का इनाम है। इसी तरह पश्चिम बंगाल के मिदनापुर के भाकपा माओवादी सेंट्रल कमेटी के सदस्य असीम मंडल उर्फ आकाश, इसी रैंक के पीरटांड गिरिडीह के अनल दा उर्फ तूफान के सिर पर भी झारखंड पुलिस ने एक करोड़ रुपये का इनाम घोषित कर रखा है। रांची, खूंटी, लातेहार, गुमला, सिमेडागा इलाकों में आतंक मचाने वाले पीएलएफआइ (पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट ऑफ इंडिया) के सुप्रीमो खूंटी जिला निवासी दिनेश गोप पर 25 लाख रुपये, इसी संगठन के गुमला निवासी मार्टिन केरकेट्टा, टीएसपीसी (तृतीय सम्मेुलन प्रस्तुुति समिति) की रीजनल कमेटी के आक्रमण गंझू, जेजेएमपी की जोनल कमेटी के पप्पू लोहरा पर दस लाख रुपये के इनाम हैं। अनेक नक्सलियों पर 25, 15, 10, 5, एक लाख रुपये के इनाम हैं। और भी संगठन हैं जो वामपंथी उग्रवाद के नाम पर सक्रिय हैं मगर शुद्ध आपराधिक गिरोह की तरह काम करते हैं। आये दिन नक्सलियों की पुलिस से मुठभेड़ होती रहती है। मारे जाने, सरेंडर करने, गिरफ्तारी की खबरें आती रहती हैं।
आये दिन इलाके पर कब्जे को लेकर नक्सलियों में आपसी टकराव भी होते रहते हैं। झारखंड अफीम उत्पादन का बड़ा केंद्र है, यह भी नक्सलियों के आश्रय में पनपता है। सड़क और दूसरे निर्माण के काम में ठेकेदारों, बड़े किसानों, उद्योगपतियों से लेवी की उगाही की जाती है। कोरोना काल में निर्माण और ठेके का काम मंदा पड़ा तो व्यापारियों से वसूली के लिए छोटे गिरोहों की मदद से शहर में घुसपैठ बढ़ गई। राजभवन और नगर निगम के सामने तक नक्सलियों ने पोस्टर चिपका दिये।
समस्या यह है कि सरकारें आती-जाती रहती हैं और नक्सलियों का असर भी उसी अनुरूप घटता-बढ़ता रहता है। बिहार-झारखंड में संगठन की बड़ी जिम्मेदारी निभाने वाला प्रमोद मिश्र और छत्तीसगढ़-गढ़वा सीमा पर बूढ़ा पहाड़ में संगठन को विस्तार देने वाला भिखारी उर्फ मेहताजी के जेल से छूटने के बाद फिर सक्रिय होने की खबर है। जिस तरह से नक्सल गतिविधियां जारी हैं, उससे एक बात स्पष्ट है कि सिर्फ पुलिस एक्शन के भरोसे नक्सलवाद को खत्म करना संभव नहीं है।
(इनपुट अक्षय दुबे साथी)