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पाट‌ल‌िपुत्र का मूल्यांकन सूत्र

यदि आप बिहार में भारतीय पुलिस ‌सेवा के अधिकारी भी हैं, तब भी आप पुलिस मुख्यालय की ताकतवर जातीय लॉबियों, नेताओं और उनके गुर्गों के उत्पीड़न से नहीं बच सकते।
पाट‌ल‌िपुत्र का मूल्यांकन सूत्र

नवंबर, 2009 से मार्च, 2010 के लिए मूल्यांकन

  • इन्होंने बेहद उत्साह और समर्पण दिखाया है, अभिनव प्रशिक्षण पद्धति तैयार की, निष्पक्ष, विश्वसनीय, कड़े परिश्रमी, बुद्धिमान, पेशेवराना रूप से सुदृढ़ और भरोसेमंद हैं (23/3/10)

 

नवंबर, 2009 से मार्च, 2010 के लिए उसी प्राधिकारी द्वारा किया गया मूल्यांकन

  • भविष्यशास्‍त्र और होमियापैथी में गहरी रूचि लेते हैं, अपनी निष्ठा के प्रति सचेत हैं और इस बात का ध्यान भी रखते हैं कि उन्हें वह मिले जो उन्हें मिलना है। अपने कार्य के लिए जरूरी दक्षता हासिल करने में उन्हें जल्द ही सक्षम हो जाना चाहिए(25/4/11)

 

अपने से वरिष्ठ पर्यवेक्षक द्वारा किया गया मूल्यांकन

  • उनके पास फील्ड के कार्यों के लिए जरूरी सहनशक्ति और ड्राइव नहीं है। वह मुश्किल कामों से बचते हैं। वह अवज्ञाकारी हैं और उनका प्रदर्शन नकली है (18/12/12)

 

चार दिन बाद राज्य के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) द्वारा किया गया मूल्यांकन

  • एक कनिष्ठ के रूप में वह एक महान संपदा हैं जबकि एक वरिष्ठ के रूप में एक सच्चे शिक्षक। पोस्ट मार्टम सुविधाओं के बारे में उनके प्रेजेंटेशन ने इस राज्य में विश्वस्तरीय सुविधाएं स्‍थापित करने का मार्ग प्रशस्त किया है। मेरे पास इस अधिकारी को असाधारण करार देने के लिए पर्याप्‍त से अधिक कारण हैं। (26/12/12)

मजे की बात है कि यह चारो मूल्यांकन एक ही अधिकारी के प्रदर्शन के बारें में हैं। इसमें भी रेखांकित करने वाली बात यह है कि पहले दो मूल्यांकन, जो कि नाटकीय रूप से एक-दूसरे के उलट हैं, एक ही पर्यवेक्षक द्वारा किए गए हैं। मार्च 2010 में अधिकारी को नवंबर, 2009 से मार्च, 2010 के बीच किए गए कार्य के लिए असाधारण आंका गया और उसे 10 में से 9 अंक दिए गए। अगले वर्ष अप्रैल में उसे बिलकुल इसी समया‌वधि में किए गए कार्य के लिए औसत आंका गया और 10 में से 4 अंक दिए गए। जाहिर है कि मूल्यांकन करने वाले अधिकारी इतने लापरवाह थे कि वह भूल गए कि उन्होंने पहले भी एक मूल्यांकन रिपोर्ट पर दस्तखत किए हैं और नई रिपोर्ट को भी मुख्यालय भिजवा दिया।

बिहार के गृह विभाग ने चार साल बाद 11 जून, 2015 को यह माना कि दो एक-दूसरे के उलट मूल्यांकन रिपोर्ट हैं और यह निष्कर्ष दिया कि दूसरा वाला ‘समय बाधित’ है इसलिए अवैध है। हालांकि मूल्यांकन करने वाले अधिकारी से जो कि इस समय एक केंद्रीय पुलिस सेवा के प्रमुख हैं उनसे कोई स्पष्टीकरण नहीं मांगा गया जबकि मूल्यांकित अधिकारी, जो कि खुद पुलिस महानिरीक्षक स्तर के हैं, उन्हें अपमानित होना पड़ा और केंद्रीय प्रतिनियुक्ति के लिए पैनल में भी शामिल करने से इनकार कर दिया गया।

परेश सक्सेना, एमबीबीएस और एमडी, 1994 बैच के बिहार कैडर के आईपीएस अधिकारी का यह मामला इस तथ्य को दर्शाता है कि भारतीय पुलिस सेवा तक के अधिकारियों के प्रदर्शन का मूल्यांकन किस मनमाने तरीके से किया जा सकता है और क्यों उनमें से अधिकांश दबाव में झुक जाते हैं और कार्य के दौरान अलग-अलग लॉबियों के गठजोड़ कर लेते हैं।
वर्ष 1998 में सीतामढ़ी के पुलिस अधीक्षक के रूप में सक्सेना को जिलाधिकारी कार्यालय पर भीड़ के हमले के मामले की जांच का श्रेय जाता है, जिसमें पुलिस को फायरिंग करनी पड़ी थी और उसमें कुछ मौतें हुई थीं। इस मामले का फैसला जून, 2015 में आया जिसमें भाजपा विधायक रामनरेश यादव, जद(यू) के पूर्व सांसद नवल किशोर राय, राजद के वरिष्‍ठ नेता अनवारुल हक, उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी के रालोसपा के जिला अध्यक्ष और सचिव को दोषी ठहराते हुए सजा सुनाई गई।
मगर एसपी के रूप में सक्सेना के प्रदर्शन को जहां जिलाधिकारी, रेंज के डीआईजी, जोन के आईजी और जोन के कमिश्नर ने असाधारण आंका वहीं उस समय के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) आशीष रंजन सिन्हा ने उनकी रेटिंग को घटाकर औसत कर दिया। कभी लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के करीबी रहे सिन्हा रिटायर हो चुके हैं और 2014 में भाजपा में शामिल हो चुके हैं। उधर, अब जाकर बिहार सरकार ने माना है रेटिंग घटाने के मामले में सक्सेना को अंधेरे में रखा गया और पुलिस महानिदेशक ने मूल्यांकन रिपोर्ट में यह दर्ज नहीं किया कि उन्होंने खुद सक्सेना को प्रशस्ति पत्र दिया था।

डीजीपी के इस व्यवहार के पीछे का कारण राज्य के रिटायर्ड और कार्यरत अधिकारी कुछ यूं बयान करते हैं कि उत्तर प्रदेश से आने वाले सक्सेना कायस्‍थ हैं मगर उनकी करीबी अभयानंद से थी जो कि बाद में राज्य के डीजीपी बने। तात्कालीन डीजीपी अलग जातीय लॉबी का नेतृत्व करते थे और अभयानंद से सक्सेना की करीबी के लिए उन्हें दंडित करना चाहते थे।

इसके बाद समय आया बिहार पुलिस अकादमी में उप निदेशक के रूप में उनके कार्यकाल का जहां उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारी यानी निदेशक को इतना प्रभावित किया कि मार्च, 2010 में उन्होंने सक्सेना के प्रदर्शन को असाधारण माना मगर इसके कुछ समय बाद ही उन्होंने कथित वित्तीय अनियमितताओं को लेकर निदेशक पर अंगुली उठाई और इसे रिकॉर्ड में भी दर्ज कर दिया। नतीजा, अगले दो वर्ष तक डायरेक्टर से उन्हें औसत रेटिंग मिलती रही और उन्हें 10 में से 4 अंक दिए गए। सक्सेना के सौभाग्य से लगातार दो डीजीपी आनंद शंकर और नीलमणी ने दोनों की मौकों पर निदेशक के मूल्यांकन को दरकिनार करने लायक माना और उनके मूल्यांकन रे‌टिंग को बदलकर असाधारण कर दिया।

और इसके बाद मौका था कोशी रेंज के डीआईजी के रूप में उनके कार्यकाल का ‌जब उन्हें एक असमी महिला के बलात्कार और हत्या की जांच की निगरानी सौंपी गई। इस अपराध का आरोप राजनीतिक रूप से प्रभावशाली एक ईंट भट्टे के मालिक पर था। सक्सेना ने पूर्व में गई जांच में कई अनियमिताएं और प्रक्रियागत खामियां पाईं। उन्होंने मामले में दोषी पुलिस वालों और ईंट भट्टे के मालिक के खिलाफ केस दर्ज करने का आदेश दिया। हालांकि प्रभा‌वशाली नेताओं के दबाव में तब उस रेंज के आईजी ने मामले में दखल देकर सभी दोषियों को बचा दिया। यही नहीं सक्सेना ने जिस दरोगा के खिलाफ मामला चलाने का निर्देश दिया था उसे उन्होंने प्रोत्साहन दिया। उस दरोगा ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर सक्सेना से अपनी जान का खतरा बताया। संबंधित दरोगा के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई जबकि दोषियों को छूट जाने देने वाले एसपी को तरक्की दे दी गई।

इस मामले में सक्सेना का पक्ष तब सही साबित हुआ जब अप्रैल, 2015 में उस ईंट भट्ठे के मालिक की पश्चिम बंगाल से आए उसी के दो मजदूरों ने हत्या कर दी और खुद पुलिस में समर्पण कर दिया। दोनों ने बताया कि भट्ठे का मालिक उनमें से एक की पत्नी जबकि दूसरे की बहन से बलात्कार की कोशिश कर रहा था।

मगर इस घटना से पहले संबंधित आईजी, सक्सेना के मूल्यांकन रिपोर्ट में लिख चुके थे, ‘ अधिकारी लापरवाह और शांत है, उसमें पहल करने और ड्राइव का अभाव है... एक दरोगा को इतना प्रताड़ित किया कि उसने इस अधिकारी के खिलाफ मीडिया में अपना गुस्सा निकाला...अधिकारी को व्यवहारिकता थेरेपी और काउंसिलिंग की जरूरत है... उसकी निष्ठा प्रमाणित नहीं की जा सकती... फील्ड के पदस्थापन के लिए सही नहीं हैं।’ आईजी ने सक्सेना को 10 में से 3.5 अंक यानी औसत से भी कम अंक दिया।

मात्र चार दिन बाद मूल्यांकन समीक्षा प्राधिकारी यानी डीजीपी ने इस रेटिंग को पलट दिया और लिखा, ‘मैं बड़ी संख्या में लोगों से मिलने का आदि हूं और मैं यह प्रमाणित कर सकता हूं कि लोग बिना संकोच के उस अधिकारी से अपने मामलों की जांच की निगरानी करवाने की मांग करते हैं जिनका इस रिपोर्ट में जिक्र किया गया है...किसी पुलिस वाले की कार्यप्रणाली की इससे बेहतर प्रशंसा कुछ नहीं हो सकती।’ डीजीपी ने यह भी लिखा कि उन्होंने वह पत्र देखा है जिसमें संबंधित आईजी ने सक्सेना को पुलिस पदक दिए जाने की जोरदार अनुशंसा की है। आईजी के प्रशंसा पत्र और उनकी मूल्यांकन रिपोर्ट की तुलना की जाए तो अंग्रजी के विपरितार्थक शब्दों का एक अच्छा शब्दकोष बन सकता है।

इस बेहद उतार-चढ़ाव वाले मूल्यांकन रिपोर्टों (आउटलुक के पास प्रतियां हैं) से इस बात की आकर्षक भीतरी जानकारी मिलती है कि किस गंभीरता से पुलिस अधिकारियों को आंका या नहीं आंका जाता है।

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