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चेन्नै आपदाः राहत की छुआछूत

मलबा हटाने, जोखिम भरी सफाई करने के लिए चेन्नै में हजारों दलितों को उतारा जा रहा है, मानो ये काम सिर्फ उनका है और उधर राहत वितरण में हो रहा है उनसे भेदभाव
चेन्नै आपदाः राहत की छुआछूत

 किसी भी आपदा में समाज के सबसे हाशिए पर खड़े लोगों तक राहत पहुंची या नहीं, या आपदा से निपटने में दुरूह या गंदे समझे जाने वाले कामों में वंचित समुदाय के अलावा बाकी तबकों की क्या शिरकत रही, ये कुछ पैमाने हैं, जिन का विश्लेषण करके हम समाज के ताने-बाने को अच्छी तरह से समझ सकते हैं। चेन्नै में आई भीषण आपदा, आपदा से बचाव का कार्य, राहत कार्य और अब चल रहे सफाई के काम को क्या इस दृष्टिकोण से परखा जाना चाहिए। जरूर देखा जाना चाहिए और राहत की बात है कि इस दृष्टि से काम करने वाले, आवाज उठाने वाले और अध्ययन करने वाले समूह सक्रिय है। इनसे ये बात उभर कर आ रही है कि चेन्नै में आई तबाही से बड़े पैमाने पर दलितों को नुकसान हुआ और उन्हें उस पैमाने पर राहत नहीं मिली। इसके साथ ही चल रहे राहत और सफाई के कामों में दलित समुदाय को ही बड़ी तादाद में मलबे को हटाने, जोखिम भरी सफाई करने, बंद नाले और सीवर को साफ करने में लगाने का मामला सामने आया है।

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खबर मिली है कि चेन्नै में 14 जिलों से 3000 सफाई कर्मियों को लाया गया है। इस समय 25,000 सफाई कर्मियों को सफाई के काम में लगाया गया है। 5000 और अधिक अभी सरकार आसपास से लाने की कोशिश में लगी हुई है। सफाई कामगारों को इस जोखिम भरे काम को करने के लिए तमिलनाडु सरकार की तरफ से 2000 रुपये स्पेशल भत्ता दिया जाएगा। इसके अलावा अस्थायी सफाई कर्मियों को रोज 300 रुपये की दिहाड़ी दी जाएगी। राज्य सरकार की इस नोटिस से साफ जाहिर है कि इतनी भीषण विभीषिका के बाद भी मलबा सफाई से लेकर जानलेवा सफाई तक का सारा काम सिर्फ और सिर्फ सफाई कामगार समुदाय, यानी दलित समुदाय  ऊपर डाला जा रहा है। इसे लेकर दलित समुदाय में गहरा आक्रोश है।  सफाई कर्मचारी आंदोलन की दीप्ति सुकुमार का कहना है कि ये खुलेआम छुआछूत और जातिगत भेदभाव का मामला है। राष्ट्रीय आपदा से निपटने में सारा जोखिम दलित समुदाय पर ही क्यों डाला जाता है। सरकारों को उनकी जाने ही क्यों सस्ती नजर आती हैं। जबकि वे ही सबसे ज्यादा किसी भी आपदा से प्रभावित होते हैं। ठीक ऐसा ही सुनामी के समय भी किया गया था।  

इसी तरह से राहत सामग्री के वितरण में भी भेदभाव का मामला सामने आया है। सोशल वायस ग्रुप के जॉन पीटर का कहना है कि कड्डलूर जिले में सैंकड़ों दलित परिवार बिना किसी राहत के असहाय बैठे हैं। उनहें किसी तरह की राहत सामग्री नहीं मिली है। और वह अपने संगठन के जरिए उनकी मदद करने में लगे हुए हैं।

दलितों के साथ राहत सामग्री और राहत पहुंचाने में भेदभाव की बात नेशनल कैम्पेन फॉर दलित ह्यूमन राइट्स और नेशनल दलित वॉच के एक महत्वपूर्ण अध्ययन में भी सामने आई। इस अध्ययन में तमिलनाडु में पहले दौर में यानी 9 नवंबर को आई भीषण बारिश और उससे हुई तबाही के दौरान तटीय जिले कड्डलूर में किए गए राहत कार्य का जातिगत आधार पर विश्लेषण किया गया था। इसमें यह पाया गया कि अधिकांश पीड़ित दलित परिवारों को राहत से वंचित रखा गया, जबकि सबसे ज्यादा नुकसान उन्हीं का हुआ था। इस अध्ययन से पता चला कि इस इलाके में 95 फीसदी जो घर ध्वस्त हुए वे दलितों के थे, लेकिन उन्हें कोई राहत या मुआवजा नहीं मिला। इस अध्ययन में इलाके के 8392 घरों का सर्वे किया गया, जिसमें से 41 फीसदी ही दलित थे। अध्ययन से सामने आया कि बाढ़ में घायल होने वाले  90 फीसदी दलित थे, 95 फीसदी दलितों के घर टूटे और 86 फीसदी फसलों का नुकसान भी दलितों को हुआ लेकिन सरकार से उन्हें कोई राहत नहीं मिली। इसकी वजह दलितों के अनुसार यह थी कि तथाकथित ऊंची जातियों ने उन्हें राहत तक पहुंचने ही नहीं दिया। इस अध्ययन में हाथ-पैर टूटी दलित महिलाओं से बातचीत है, उनके नुकसान का ब्यौरा है।

इस अध्ययन से यह साफ होता है कि तमिलनाडु में दलितों के प्रति गहरी विषता मौजूदा है, जिसे सरकारी संरक्षण प्राप्त है। अध्यापक जयारानी का कहना है कि यही जातिगत सोच इस बार भी राहत कार्य और राहत विपरत में नजर आ रही है।

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