केंद्र सरकार ने देश की सर्वोच्च अदालत में हलफनामा दिया कि 2005 से 2013 के बीच दवाइयों के चिकित्सकीय परीक्षण (क्लीनिकल ट्रायल्स) से मरने वालों या घातक रूप से पीडि़त होने वालों की तादाद 17 हजार से भी ज्यादा है और इसमें पिछले दो सालों का कोई ब्यौरा नहीं जुड़ा है। इसमें से 3,458 मौतें हैं और 14,320 ऐसे मरीज हैं जिनके ऊपर इन परीक्षणों का घातक असर
पड़ा। लेकिन सरकार को यह नहीं पता कि ये तमाम लोग कहां मारे गए या उन पर किस दवा कंपनी ने ञ्चया प्रयोग किए थे।
जनहित याचिका से जुटे आंकड़े
दरअसल, उपरोक्त आंकड़ा भी सरकार के विभिन्न दस्तावेजों-हलफनामों से सुप्रीम कोर्ट में चिकित्सकीय परीक्षण के खिलाफ जनहित याचिका दाखिल करने वाले संगठन स्वास्थ्य अधिकार मंच ने जुटाया, जिसे बाद में सरकार ने माना। इसकी प्रति आउटलुक के पास है। इसी तरह सरकार 89 लोगों को मुआवजा देने की बात कर रही है, लेकिन ये कौन लोग हैं, इनके नाम-पते क्या हैं, इस बारे में अभी तक कुछ नहीं बताया गया है। न ही अभी सरकार यह बता रही है कि जिन 400 से अधिक नई रासायनिक वस्तुओं का परीक्षण किया गया, वह कहां और किन पर किया गया। इनमें से जिन को मंजूरी दी गई, उनके बारे में भी विस्तृत जानकारी नहीं है। इस बारे में आउटलुक ने औषधि नियंत्रक जी.एन. सिंह ने संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन खबर लिखने तक जवाब नहीं मिला।
ड्रग ट्रायल की राजधानी बनता भारत
यहां ये बताना जरूरी है कि भारत विश्व में चिकित्सकीय परीक्षण की राजधानी बन रहा है। दुनिया भर में होने वाले चिकित्सकीय परीक्षण का लगभग 16 फीसदी (वर्ष 2011) भारत में हो रहे था, जबकि 2005 में यह 2 फीसदी से भी कम था। सन 2014-15 में विश्व के चिकित्सकीय परीक्षणों में भारत के हिस्सा 22 फीसदी से अधिक होने की आशंका जताई जा रही है। वर्ष 2012 में दाखिल की गई इस जनहित याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई अंतिम चरण में है। स्वास्थ्य अधिकार मंच के अमूल्य निधि ने आउटलुक को बताया, 'क्लीनिकल ट्रायल्स के मामले में अंधेर नगरी चौपट राजा वाला हिसाब चल रहा है। भारत ने 2005 से चिकित्सकीय परीक्षण के कानून को ढीला किया है। तब से नागरिकों पर दवाओं के परीक्षण बेलगाम हो गए हैं। पहले चरणों की बाध्यता थी, वह हटा दी गई है इसलिए अब सबसे जोखिम भरे दूसरे चरण के प्रयोग होने लगे हैं। आलम यह है कि सरकार न तो सही-सही आंकड़ों के साथ सामने आ रही है और न ही 2013 से पहले चिकित्सकीय परीक्षण का शिकार बनाए गए हजारों लोगों को मुआवजे पर अपना रुख स्पष्ट कर रही है। मेरा मानना है कि जब तक देश में
क्लीनिकल ट्रायल्स की सही ढंग से निगरानी करने और मरीजों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की व्यवस्था पुख्ता नहीं होती, तब तक इस पर रोक लगनी चाहिए। अभी तो हम भारत को गिनी पिग बनाने पर उतारू नजर आ रहे हैं। ’
पूरी तस्वीर डरावनी
एक और चौंकाने वाला तथ्य यह है कि वर्ष 2013 में चिकित्सकीय परीक्षणों के लिए मुआवजे का कानून बना। उसके बाद 2014-15 में दवा परीक्षणों से हुई मरीजों की मौतों या घातक प्रतिकूल प्रभाव के संबंध में कोई आंकड़ा सरकार ने सार्वजनिक नहीं किया है। जबकि कानून यह कहता है कि किसी भी तरह के चिकित्सकीय परीक्षण के तीन महीने के भीतर इसके प्रभाव की रिपोर्ट सार्वजनिक कर दी जानी चाहिए। लेकिन 2013 के बाद से कोई आंकड़ा आधिकारिक तौर पर नहीं दिया गया है। इसकी एक बड़ी वजह है कि अब नए कानून के हिसाब से मुआवजा देना पड़ेगा। इसलिए कोई मामला सामने नहीं आ रहा है। यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि दवा परीक्षण के जितने भी मामले सामने आए हैं, वे छोटी सी बानगी हैं, पूरी तस्वीर तो बेहद डरावनी है। ये तमाम मामले भी संगठनों या पीडि़तों के प्रयास से बाहर आए हैं। अभी तक भारत में ऐसी कोई प्रणाली नहीं विकसित की गई है, जो मरीजों के जिंदगी से खिलवाड़ करने वाले खूनी खेल पर कड़ी निगरानी रख सके और उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई कर सके। किस तरह चिकित्सकीय परीक्षण किए जा रहे हैं, इसे समझने के लिए इसके कुछ मामलों को देखना जरूरी हैं।
सभी हैं गिनी पिग
अक्सर यह सोचा जाता है कि नई दवाइयों के ये तमाम अनैतिक-गैरकानूनी प्रयोग सिर्फ गरीब आबादी पर किए जाते हैं, लेकिन यह सच नहीं है। दिल्ली में आईआईटी में शोधकर्ता अरविंदभाई कश्यपकुमार पटेल के पिता का ऑपरेशन गुजरात के अहमदाबाद शहर के सबसे सुविधासंपन्न अस्पताल में देश के एक जाने-माने एंजियोप्लास्टी विशेषज्ञ डॉक्टर ने किया। डॉक्टर ने पिता पर चिकित्सकीय परीक्षण किया। इसके खिलाफ अरविंद ने हर दरवाजा खटखटाया। अरविंद ने इसके लिए डॉ. समीर आईदानी और लाइफ केयर इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस एंड रिसर्च अस्पताल के खिलाफ अपनी अर्जी सुप्रीम कोर्ट में लंबित जनहित याचिका में लगाई है। अरविंद ने बताया कि लाइफ केयर इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस एंड रिसर्च में एंजियो-प्लासिटी के ऑपरेशन के दौरन उनके पिता को क्लीनिकल ट्रायल का शिकार बनाया। पिता की मौत हो गई और इसके बाद उन्हें पता चला कि जो स्टंट लगाया गया था वह क्लीनिकल ट्रायल का हिस्सा था। अब भी उन्हें इंसाफ का इंतजार है।
गुजरातः बाकायदा एजेंट से खेल
अब एक नजर डालते हैं गुजरात के कुछ दूसरे मामलों पर जिनसे पता चलता है कि किस तरह बाकायदा एजेंट रखकर ये कंपनियां मरीजों को पकड़ रही हैं और बिना प्रभाव बताए उन्हें गिनी पिग-सा इस्तेमाल कर रही हैं। इनकी शिकायत पीडि़तों ने थाने में करके कार्रवाई की मांग की थी लेकिन हुआ कुछ नहीं। इन शिकायतों की प्रति आउटलुक के पास है:
- -अहमदाबाद के वातवा के विनजोल गाम के हीनाबेन कनुभाई ठाक्कर ने थाने में रिपोर्ट लिखाई कि क्लाइनथा रिसर्च लिमिटेड ने उनके ऊपर विदेशी गोलियों का प्रयोग किया। यह दो चरणों में होने वाला अध्ययन था। पहले चरण में ही उन्होंने डॉञ्चटर से शिकायत की कि उनके सिर में दर्द हो रहा है, चञ्चकर आ रहा है, लेकिन उन्होंने कहा कि ऐसा होता है। फिर उनकी तबीयत और खराब हो गई। हालत खराब होने पर उनके पति उन्हें वापस उस ञ्चलीनिक ले गए, लेकिन वहां कोई इलाज नहीं किया गया बल्कि उन्हें बाहर निकाल दिया गया। कई चञ्चकर काटने के बाद सिविल अस्पताल में इलाज हुआ तो पता चला कि उनके दिमाग में ट्यूमर हो गया है। उन्होंने अपनी जेब से 50-60 हजार रुपये खर्च करके मुश्किल से इलाज किया।
- - गुजरात के अहमदाबाद के अमराईवाडी की दंतानी भारती नरेश ने अमराईवाडी थाने में शिकायत लिखाई कि उन पर विदेशी दवाई का प्रयोग किया गया। यह दो चरणों में होना था और इसके लिए 10,190 रुपये देने का वादा किया गया। पहला चरण पूरा होने के बाद उनकी जांच की गई कि वह गर्भवती हैं और उन्हें गर्भपात करना पड़ेगा। वह इसके लिए तैयार नहीं थीं, तो उन्हें डराया गया कि अगर नहीं किया तो दवा की वजह से उनका बच्चा विकलांग होगा। उनका गर्भपात कराया गया और किसी ने उनका कोई ध्यान नहीं रखा।
- ठीक इसी तरह की शिकायत देवी पूजक साविताबेन रमनभाई और कुछ और महिलाओं ने भी कराई है।
- - अमरावाडी की सोलंकी मंजुबेन धायाबाई ने अमरावाडी पुलिस थाने में शिकायत लिखाई कि इसी कंपनी ञ्चलाइनथा रिसर्च लिमिटेड ने उनकी किडनी पर प्रयोग किया। यहां भी एजेंट रविभाई है। प्रयोग के बाद उनके बदन पर निशान उभर आए और तबीयत खराब हो गई। लेकिन कोई इलाज नहीं हुआ।
- इस पूरे प्रकरण में क्लाइथ रिसर्च लिमिटेड द्वारा नियुक्त किए गए एजेंट रवि आनंदराम केश्वानी की शिकायत भी आंख खोलने वाली है। इसमें उन्होंने बताया कि कैसे बड़ी संख्या में इन दवाओं का प्रयोग गर्भवती महिलाओं पर कराया गया और सबको जबरन गर्भपात कराना पड़ा। इसकी वजह से अनगिनत महिलाओं को भीषण घरेलू कलह का सामना करना पड़ा और कई के पति ने तो तलाक तक दे दिया।
निशाने पर हार्ट, कैंसर, डायबिटीज के मरीज
ऐसे तमाम मामले देश भर में फैले हुए हैं। हालांकि, इसके केंद्र के रूप में मध्य प्रदेश का इंदौर शहर सामने आया था। लेकिन देश की राजधानी दिल्ली, पंचसितारा अस्पतालों से जगमगाते गुडग़ांव, हैदराबाद, पूना आदि तमाम शहरों में गैर जिक्वमेदार चिकित्सकीय परीक्षण महामारी की तरह फैले हुए हैं। वजह भी साफ है, करोड़ों रुपये का फायदा और देसी-विदेशी दवा बनाने वाली कंपनियों का मुनाफा।
एक खौफनाक सच यह है कि ये क्लीनिकल ट्रायल्स सबसे ज्यादा दिल की बीमारी, खासतौर से स्टंट लगाने में, कैंसर रोगियों और मधुमेह (डायबटीज) के रोगियों पर किए जा रहे हैं। दवाइयों की कीमतों में सबसे ज्यादा खेल यहां है और दवा कंपनियों के भीतर नई दवाएं लाने की होड़ भी इसी क्षेत्र में सबसे ज्यादा है। गुडग़ांव की एक प्रतिष्ठित क्लीनिक का मामला भी आउटलुक के हाथ लगा है, जहां कैंसर के 39 रोगियों की मौत एक दवा के प्रयोग के दौरान हुई है। जो दवा (नाम नहीं दिया जा रहा है ञ्चयोंकि अभी जांच चल रही है) इन मरीजों को दी गई, वह सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन (सीडीएससीओ) द्वारा प्रमाणित नहीं है। फिर भी यह दवा कंपनी, जो गुडगांव के एक अपार्टमेंट से अपना दक्रतर चला रही है, इस दवा को 4-6 लाख रुपये में बेच रही है। चालीस के करीब मरीजों की मौत होने के बावजूद इस दवा कंपनी और इसका इस्तेमाल करने वाले डॉञ्चटरों के खिलाफ कोई कार्रवाई न होना, इस ओर इशारा कर रहा है कि घूस के तौर पर लाखों रुपये का अदान-प्रदान हुआ है। सूत्रों के मुताबिक, इस कंपनी के प्रबंधन ने करीब 70-80 लाख रुपये नकद देकर मामले को रफा-दफा किया है। इस मामले में कभी सच बाहर आया तो निश्चित ही कैंसर के अनगिनत मरीजों को बचा सकेंगे।
भोपाल गैस पीड़ित से लेकर गुडगांव तक है शिकार
ऐसे लाखों मामले हमारे इर्द-गिर्द पसरे हो सकते हैं। बहुत कम मामलों में यह साबित हो पाया है कि मरीजों पर क्लीनिकल ट्रायल्स हुआ था। ऐसा ही एक मामला भोपाल गैस पीडि़तों का था, जिसमें इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च ने माना था कि इलाज के लिए आए 23 मरीज क्लीनिकल ट्रायल्स की वजह से मरे और 22 पर इनका प्रतिकूल असर पड़ा। लेकिन सरकारी प्रश्रय और कानूनी खामियों की वजह से असुरक्षित चिकित्सीय परीक्षण बेलगाम जारी है।
कुलबुलाते सवाल
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर सोशल मेडिसिन एंड कक्वयुनिटी हेल्थ के विकास वाजपेयी ने 2013 में अपने शोध पत्र में लिखा था कि पिछले दस सालों में भारत में चिकित्सकीय परीक्षण उद्योग ने जबर्दस्त बढ़त हासिल की। डद्ब्रलूटीओ के बाद बौद्धिक संपदा अधिकारों में जिस तरह के बदलाव आए, उससे इन तरह के बेलगाम अनैतिक क्लीनिकल ट्रायल्स को और जगह मिली। दिल्ली साइंस फोरम के डॉ. अमितसेन गुप्ता ने आउटलुक को बताया, स्थिति खतरनाक है। सरकार को व्यवस्था ठीक करने के लिए निवेश करना होगा, जो वह नहीं कर रही। नियामक व्यवस्था को दुरुस्त करते हुए सदाचार समितियों का गठन कायदे से करना होगा। बड़ी दवा कंपनियों के लिए कॉन्ट्रेक्ट रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन (सीआरओ) को जवाबदेह बनाने- उनका रजिस्ट्रेशन करने, परीक्षण के लिए मरीजों की रजामंदी के कठोर नियम और मुआवजे के नियम बनाए बिना स्थिति नियंत्रण में नहीं आएगी।
देखना यह है कि सर्वोच्च न्यायालय देश के नागरिकों को इन बेलगाम, अनैतिक और गैरकानूनी दवा परीक्षण से बचाने की ञ्चया राह निकालता है। क्या हम बड़ी दवा कंपनियों के गिनी पिग बनने से बचने के लिए कानूनी ढांचा और कड़े मुआवजे के प्रावधान के लिए तैयार हैं, ये सवाल शायद सभी के दिमाग में कुलबुला रहे हैं।