एक छोटे से कमरे से पॉलीस्टर की लाल साड़ी पहने जब वह बाहर आई और बगल की महिला ने उसके चेहरे से पल्लू हटाया तो चेहरा देखकर मेरा कलेजा धक्क से हो गया। वह शक्ल सूरत-कद-काठी से बामुश्किल 14-15 साल की लग रही थी। पत्थर की तरह सूखी आंखों से मुझे देखते हुए उसने भावशून्य अंदाज में कहा, 'मेरा नाम चंद्रिका। मेरा आदमी गटर में खत्म हो गया। मेरे पास कुछ नहीं है।’
चंद्रिका देश के किसी दूर-दराज अविकसित-अर्धविकसित इलाके की निवासी नहीं है। चंद्रिका रहती हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकसित गुजरात के चमचमाते शहर अहमदाबाद के चाणक्यपुरी मोहल्ले के काचा छापरा में। गुजरात के विकास मॉडल की जब-जब चर्चा होती है तो उसकी तमाम किस्सों में अहमदाबाद शामिल होता है। चंद्रिका और पारोबेन दोनों कोई अकेला उदाहरण नहीं हैं। तकरीबन हर महीने गुजरात में सीवर साफ करने वालों की मौतें हो रही हैं, वे गंभीर रूप से घायल हो रहे हैं और इन मौतों को विकास के आंकड़ों में शामिल करने की कहीं से कोई राजनीतिक या प्रशासनिक पहल नहीं दिखाई देती। वह भी तब जब गुजरात उच्च न्यायालय ने 15 फरवरी 2006 को राज्य में सीवर में इनसानों के बिना किसी सुरक्षा गियर के उतारने को गैर-कानूनी घोषित किया था। इसके बाद वर्ष 2014 में देश की सर्वोच्च अदालत ने भी अपने ऐतिहासिक फैसले में इसानों को बिना सुरक्षा उपकरणों के सीवर में उतारने को अपराध घोषित किया था। लेकिन इन सब आदेशों की धज्जियां सरेआम विकसित गुजरात के तमाम शहरों में उड़ाई जा रही हैं।
काचा छापरा की इस मलिन बस्ती में गहरा शोक पसरा था। बस्ती के दो जवान-भावेशभाई हनुभाई वाघेला और रंजीतभाई शंकरभाई वाधवाना की एक कंपनी ऑर्गेनिका इंडस्ट्रीज लि. जीआईडीसी के गटर में मौत हो गई। गांधीनगर पुलिस स्टेशन के अंतर्गत आने वाले दंताली इलाके में स्थित इस कंपनी ने वाल्मीकि समाज के इन दोनों नौजवानों को अपने सीवेज टैंक को साफ करने के लिए 15 हजार रुपये देने का वादा किया था। यह दुर्घटना 13 अक्टूबर 2015 को हुई और खबर लिखे जाने तक यानी 27 अक्टूबर तक इन दो मौतों की भी प्राथमिक रिपोर्ट नहीं लिखी गई थी। वह भी तब जब राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के सदस्य लता महतो इस परिवार से मिल चुके हैं।
चंद्रिका की बगल में आठ महीने के बच्चे प्रिंस के साथ खड़ी थी पारोबेन। पारोबेन मारे गए सफाईकर्मी भावेश की पत्नी हैं और चंद्रिका रंजीत की। पारोबेन के घर में ही मारे गए दोनों सफाई कर्मियों की माला चढ़ी फोटो रखी थी और सामने दीया जल रहा था। पारोबेन मुश्किल से अपने चंचल बेटे प्रिंस को काबू में रखने की असफल कोशिश कर रही थी। गोद में चढ़ा प्रिंस बार-बार अपने पिता की फोटो को नन्हे हाथों से थपथपाने में लगा हुआ था। प्रिंस की दादी रोते हुए उसे खींचकर अपने पास ले जाती हैं।
पारोबेन ने बताया कि डेढ़ साल पहले उनकी शादी हुई थी और उन्हें अपने पति के कामकाज के बारे में ज्यादा नहीं पता था। वह इतना जानती हैं कि उनका आदमी साफ-सफाई का काम करता था। पारोबेन ने बस इतना कहा, 'मेरे पति के शरीर को कोई उठाने भी नहीं आया। वह उनकी गंदगी साफ करने गया था, फिर भी उसकी लाश को उठाने कोई नहीं आया। ये बात मुझे जिंदगी भर दुख देगी।’ पारोबेन के पति की मौत 13 अक्टूबर को हुई और मेरी उनसे पहली मुलाकात 24 अक्टूबर को हुई। वह बदहवास-सी डोल रही थीं, बच्चे को दूध पिलाने में भी मुश्किल होने लगी। मां का खाना बंद होने से दूध सूखने लगा। इतने दिनों में उनसे किसी सरकारी नुमाइंदे ने मुलाकात नहीं की थी।
चंद्रिका का हाल भी बेहाल था, वह बुखार में थी और घर में खाने तक को नहीं था। एक महीने के भीतर उसके ससुर और पति दोनों की मौत हो गई। उनके रिश्तेदार राजूभाई ने बताया कि अभी तक कोई मदद का आश्वासन तक नहीं मिला है। उलटे दबी जुबान में परिजनों ने बताया कि प्रशासन मामले को रफा-दफा करने के लिए उन पर दबाव डाल रही है। यह कहा जा रहा है कि ये दोनों क्यों गटर में उतरे, इसपर भी परिवार के खिलाफ कार्रवाई हो सकती है।
अभी उन्हें कुछ पता नहीं कि आगे कैसे जीवन चलेगा। यहां अभी पूरे परिवार को इस बात का ज्ञान नहीं कि इस मामले को कैसे आगे बढ़ाना है। अभी सितंबर में ही दो सफाईकामगार अहमदाबाद में गटर में मारे गए थे। यहीं पर स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद जरूरी हो जाती है। सफाई कर्मचारी आंदोलन के गुजरात के कार्यकर्ता ईश्वरभाई वघेला ने बताया कि पूरे गुजरात में बड़ी संख्या में सफाई कर्मचारी गटर में मर रहे हैं। मरने वालों में कच्चा काम (अस्थायी-ठेके) करने वाले ज्यादा है। गटर में लोग इन्हें ही ज्यादा उतारते हैं। ऐसे में इनकी मौत होने पर कोई बड़ा मुद्दा नहीं बनता। पुलिस-प्रशासन का सारा जोर मामले को रफा-दफा करने पर ही होता है। मानव गरिमा संस्था से जुड़े पुरुषोतम ने आउटलुक को बताया कि पूरे गुजरात में दलित गटर के अंदर मारे जा रहे है। हर मामले को एक ही तरह से दबाया जाता है। गुजरात की असलियत खोलती हैं ये मौतें। सरकार इनके परिजनों को मुआवजा देने के बजाय, पीडि़त परिवार को नौकरी देने के बजाय डराने-धमकाने का काम करती है। अक्सर वे इनकार ही कर देती है कि ऐसी कोई घटना घटी ही नहीं।
पूरे गुजरात में सीवर में दलित समुदाय की मौतों पर राज्य सरकार के खिलाफ आवाज उड़ती रही है। हालांकि मैला ढोने वालों की मौजूदगी से लेकर सीवर में मौतों दोनों पर ही सरकार का रवैया इनकार वाला रहा है। सूरत में जुलाई 2013 में चार सफाई कर्मचारी गटर में मारे गए थे। उस मामले में भी पुलिस ने एफआईआर नहीं दर्ज की थी। इस दुर्घटना में भी पुलिस प्रशासन मामले की तफ्तीश करने का बहाना करके मामले को टालने की कोशिश कर रही थी। इसका तगड़ा विरोध करते हुए कामगार स्वास्थ्य सुरक्षा मंडल ने कहा था कि जब तीनों सफाई कामगार सूरत के सीवरेज प्लांट में जहरीली गैस से मरे और यह तथ्य सबके सामने है, तब इसमें क्या चीज पुलिस तफ्तीश कर रही है, ये समझ नहीं आ रहा है। इससे पहले राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने बाकायदा राज्य सरकार को नोटिस जारी किया था कि मारे गए (वर्ष 2009) 29 सफाई कामगारों के परिजनों को मुआवजा देने में राज्य सरकार क्यों देर लगा रही है।
बस्ती के राजूभाई करते हैं कि गुजरात के विकास की सारी कहानी हम दलितों की स्थिति पर तमाचा है। हम आज भी गटर में मरने को मजबूर हैं, आप बताइए, कहां है विकास, किसका विकास। सफाई कर्मचारी आंदोलन के नेता विल्सन बेजवाड़ा का कहना है कि ये तमाम मौतें हत्याएं हैं, जिसकी जिम्मेदारी राज्य सरकार पर है। गुजरात के विकास मॉडल की पोल खोलती हैं ये मौतें। दो लोग मारे गए, कोई बता सकता है कि आखिर 10 दिन बाद भी एफआईआर क्यों नहीं दर्ज हुई। सुप्रीम कोर्ट का आदेश क्या गुजरात पर लागू नहीं? आखिर इनसानों की जान बचाने के लिए सीवर का आधुनिकीकरण करने के लिए केंद्र और राज्य सरकार क्यों नहीं तैयार है?